मुम्बई आए हुए महीने बीत गए थे। बस केवल अनीता जी से मिलना हुआ था। मुम्बई आने से पहले ही अभय तिवारी व प्रमोद सिंह से बात हुई थी। सोचा था कि यहाँ आने पर मिलना भी हो जाएगा। किन्तु कभी वे लोग व्यस्त तो कभी मैं व्यस्त रही। आखिर उनके आने का कार्यक्रम ५ दिसम्बर को बन ही गया। मैंने अभय से अनुरोध किया था कि वे अपनी फिल्म सरपत का डी वी डी भी अवश्य लेकर आएँ। किन्तु वे लाना भूल गए। खैर मुलाकात हुई। मिलकर बैठे। गप्प की। अभय ने कहा कि वे सरपत का डी वी डी भेज देंगे।
परसों अचानक नीचे से चौकीदार का फोन आया कि कुरियर वाला आया है। सोचा कोई पत्र ही होगा। किन्तु जब उसने अभय का भेजा हुआ पैकेट दिया तो मुझे बहुत सुखद आश्चर्य हुआ। शाम को घुघूत के साथ मिलकर फिल्म देखी। फिल्म देखकर मन खुश हो गया। मुझे बेकार में लम्बी खींची फिल्में सहन ही नहीं होती। न ही मुझे मार धाड़ सह्य है।
फिल्मों का मेरा ज्ञान यदि एक छोटी चम्मच में रखें तो भी जगह बची रह जाएगी। फिर भी मैं कह सकती हूँ कि फिल्म बहुत अच्छी लगी। किसी फिल्म, कहानी या पुस्तक को तभी अच्छा कह सकते हैं जब वह हमें बाँधे रहे। यह फिल्म शुरू से अन्त तक कसकर पकड़े रही। पॉपकॉर्न्स या किसी पेय ग्रहण करने की इच्छा की भी कोई गुँजाइश नहीं थी। जैसा कि मैंने अभय को पत्र लिखकर धन्यवाद कहते हुए कहा, इस फिल्म में वह सब नहीं है जिसके कारण मैं फिल्में नहीं देखती और वह सब है जो मैं किसी फिल्म से चाहती हूँ। कहानी है जो बाँधे रहती है, चिल्लाना या लाउड एक्टिंग नहीं है, सुन्दर स्वाभाविक दृष्य हैं। सबकुछ स्वाभाविक सा है किन्तु अब क्या होगा की तर्ज पर रोचकता बनाए रखती है। एक नाटकीय तरीके से फिल्म का अनेपक्षित अंत होता है। और अचानक फिल्म खत्म हो गई का भान होता है। उस गॉगल्स लगाए छोटे लड़के की छवि देर तक साथ रहती है।
फिल्म में प्रमोद का भी कलात्मक योगदान है। कला की पारखी न होते हुए भी कहूँगी कि सारे दृष्य सुहाने लगे।
एक अच्छी फिल्म बनाने व दिखलाने के लिए धन्यवाद अभय।
घुघूती बासूती
Friday, December 18, 2009
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शायद कभी हमें भी मौका लग जाये सरपत देखने का..अभय भाई का वादा है. :)
ReplyDeleteसच कहा घुघूती दी,
ReplyDeleteअभय ने बहुत सुथरी-समझदार फिल्म बनाई है। मैं अब तक कई बार देख चुका हूं।
अच्छी जानकारी।
ReplyDeleteकाश हमें भी कहीं से यह सीडी मिल जाती।
ReplyDeleteफिल्म देखें तो कुछ कहें ! वर्षों हो गए थियेटर का मुंह देखे हुए !
ReplyDeleteनहीं देखी हमने, पर इसकी अनुशंसा कई बार की जा चुकी है । पढ़ा भी है इसके बारे में । देखता हूँ कब मौका मिलता है देखने का ।
ReplyDeleteप्रविष्टि का आभार ।
देखना तो हम भी चाहते हैं, देखिए कभी तो अवसर मिलेगा।
ReplyDeleteकोशिश करूंगा इसे देखने की.
ReplyDeleteअजित जी ने इस फ़िल्म की प्रशंसा की थी पहले . फ़िल्म देखने की कोशिश करुन्गा
ReplyDeleteबहुत सुन ली प्रशंसा अब देख ही लेता हूँ...!
ReplyDeleteएक ठू सी.डी. की तो हमें भी दरकार है जी!
ReplyDeleteइलाहाबाद ब्लॉगर सम्मेलन में इस फिल्म का प्रदर्शन किया गया था। सबने बहुत सराहा था। हमें भी इसका सौभाग्य मिला। आनन्द आ गया था।
ReplyDeleteएक सरपत नामक फिल्म तो मैंने कुछ समय पहले यहीं जे.एन.यू. में मूवी शो
ReplyDeleteके दौरान देखी थी ..
मुझे लगता है उसी की बात कर रहे है आप ..
डाक्यूमेंट्री के अंदाज में है वह फिल्म ..
कंटेंट और भाषा दोनों में सरपत की 'धार' लाजवाब है !
अच्छी फिल्मे देखने का शौक मुझे भी हमेशा रहा है...इसे भी देखने का मौका मिल जाए तो...खुशकिस्मती होगी...वैसे आपने जिक्र कर जिज्ञासा और बढा दी..
ReplyDeleteफिल्म के बारे में जानकर अच्छा लगा।
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जल में रह कर भी बेचारा प्यासा सा रह जाता है।
जिसपर हमको है नाज़, उसका जन्मदिवस है आज।
एक पन्द्रह-बीस सैकण्ड का प्रोमो तो यू-ट्यूब पर डाला ही जा सकता है. उससे बेहतर अंदाजा लगेगा इस काम का.
ReplyDeleteकाश हम भी फिल्म देख पाते.. आपने भी सस्पेंस बनाए रखा.. अब फिल्म देखने को लेकर उत्सुकता बढ़ गई है..
ReplyDeleteयूं तो गांव में हर टीले टब्बे पर सरपत दिखते हैं जिससे घरेलू चीजें जैसे छोटी छोटी मौनी (कटोरी जैसी चीज) या मडैया आदि बनाये जाते हैं। लेकिन कल शिर्डी गया था तो रास्ते में सरपत देख मुझे इस फिल्म का नाम याद आया था।
ReplyDeleteइस फिल्म देखने की तमन्ना तो मेरी भी है। लाउड मूवी का अपना महत्व होता है लेकिन यह डिपेंड करता है कि किस सब्जेक्ट पर और किस अंदाज में फिल्म बनाई गई है।
aakhir is film me aisa kya है ?
ReplyDeleteaapke vivran ne utsukta bahut badha di...
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