प्रिय तुम जब भी जाते हो
पल भर भी ना सो पाती हूँ
जानती हूँ तुम ना आओगे
क्यों राह तुम्हारी तकती हूँ ?
तुम आओगे तो मैं ये बोलूँगी
तुम न आते, आती केवल याद
तुम आते तो मैं यूँ तकती जाती
ज्यूँ मैं चकोर हूँ और तुम चाँद ।
लगता है यूँ ही युग बीते हैं
देख देख तुम्हारी ही ये राह
अब तो प्रियतम तू आ जा
मिट न जाये कहीं ये चाह ।
देखो यूँ नहीं अब रूठा करते
मिलने की ऋतु न बीती जाए
जब जाता इक बार वसन्त ये
फिर ना कोई इसे लौटा पाए ।
समय पंख लगा कर उड़ता जाता
ये न कभी किसी की बाट जोहता
मिलना हो जो तो आ जा अब तो
बिन तुम कुछ मुझे नहीं सुहाता ।
कितनी सूनी सी शामें मेरी
कितने खाली से हैं ये दिन
बिरहा की इस ज्वाला में
जलता मन और काया मेरी ।
सोच न तू ये दिन फिर आएँगे
कल फिर तेरे और मेरे जीवन में
सूख जाएगा जब जल सरिता का
कैसे उसे लौटा कर ले आएँगे ?
चल बहुत ही बाट जोह ली
अब तो विदा की बेला आई
तेरे कुछ सपनों को साथ लिए
जाती हूँ घर अपने, ओ हरजाई ।
घुघूती बासूती
Monday, April 30, 2007
Saturday, April 28, 2007
बौना वृक्ष
वर्षों से मैं उस वृक्ष को बौना समझती थी
उसके साथ के सारे वृक्ष कितने ऊँचे थे
मैं उसे हिकारत की नजर से देखती थी
कितनी भी खाद दो, पानी दो, सेवा दो
वह तो बस बढ़ने का जैसे दुश्मन हो ।
छोड दिया मैंने उसकी परवाह करना
छोटे छोटे उसके साथ लगाए केले भी
कितने ऊँचे लम्बे पत्तों से हरे भरे थे
पपीतों ने भी थी उससे बाजी मारी
नींबू ,अमरूद, चीकू सब ही आगे थे ।
मैंने छोड दी थी कोई आशा उससे
मेरी बगिया में जैसे वह सौतेला था
बीते मौसम , बीत गए कुछ वर्ष
सब वृक्षों से हो गया था प्यार मुझे
बस यह बौना ही मुझे खटकता था ।
न जाने क्या सोच मैंने न चलाई
उस पर आरी या कुल्हाडी थी
दे दिया था मैंने उसे जीवन दान
समझती थी मैं अपने को दयावान
चलता रहा बौने का जीवन संग्राम ।
फिर एक दिन सुनी मैंने समुद्री
तूफान के आने की चेतावनी
लिपटी मैं गले अपने वृक्षों से
जानती थी जान उनकी थी
बहुत ही भयंकर खतरे में ।
रात को जोरों का तूफान आया
काँपी धरती और अंबर सारा
हो रहा था विनाश का शोर
रह रह कर वृक्षों के गिरने
की भयानक आवाज आती थी ।
भोर हुई, तूफान कुछ थमा
मैं भागी बगीचे की तरफ
विध्वंस का तांडव ही था
जहाँ तक जाती थी नजर
लाशें बिछी थीं वृक्षों की ।
पथराई नजर ढूँढ रही थी
कहीं जीवन चिन्हों को
देखा खडा था वह बौना
भागी मैं सीने से लगाया
और आँसू से उसे भिगोया ।
लम्बे ऊँचे वृक्षों की जडे
नीचे बहुत ही उथली थीं
मेरा बौना ऊपर था कम
धरती के अन्दर था अधिक
मेरा बौना तो बहुत गहरा था ।
घुघूती बासूती
१७. ४. २००७
उसके साथ के सारे वृक्ष कितने ऊँचे थे
मैं उसे हिकारत की नजर से देखती थी
कितनी भी खाद दो, पानी दो, सेवा दो
वह तो बस बढ़ने का जैसे दुश्मन हो ।
छोड दिया मैंने उसकी परवाह करना
छोटे छोटे उसके साथ लगाए केले भी
कितने ऊँचे लम्बे पत्तों से हरे भरे थे
पपीतों ने भी थी उससे बाजी मारी
नींबू ,अमरूद, चीकू सब ही आगे थे ।
मैंने छोड दी थी कोई आशा उससे
मेरी बगिया में जैसे वह सौतेला था
बीते मौसम , बीत गए कुछ वर्ष
सब वृक्षों से हो गया था प्यार मुझे
बस यह बौना ही मुझे खटकता था ।
न जाने क्या सोच मैंने न चलाई
उस पर आरी या कुल्हाडी थी
दे दिया था मैंने उसे जीवन दान
समझती थी मैं अपने को दयावान
चलता रहा बौने का जीवन संग्राम ।
फिर एक दिन सुनी मैंने समुद्री
तूफान के आने की चेतावनी
लिपटी मैं गले अपने वृक्षों से
जानती थी जान उनकी थी
बहुत ही भयंकर खतरे में ।
रात को जोरों का तूफान आया
काँपी धरती और अंबर सारा
हो रहा था विनाश का शोर
रह रह कर वृक्षों के गिरने
की भयानक आवाज आती थी ।
भोर हुई, तूफान कुछ थमा
मैं भागी बगीचे की तरफ
विध्वंस का तांडव ही था
जहाँ तक जाती थी नजर
लाशें बिछी थीं वृक्षों की ।
पथराई नजर ढूँढ रही थी
कहीं जीवन चिन्हों को
देखा खडा था वह बौना
भागी मैं सीने से लगाया
और आँसू से उसे भिगोया ।
लम्बे ऊँचे वृक्षों की जडे
नीचे बहुत ही उथली थीं
मेरा बौना ऊपर था कम
धरती के अन्दर था अधिक
मेरा बौना तो बहुत गहरा था ।
घुघूती बासूती
१७. ४. २००७
Friday, April 27, 2007
यह कैसा न्याय ?......... साथ में एक किस्सा भी !
कुछ दिन पहले एक बन्धु ने अपने चिट्ठे में लिखा था कि किस प्रकार एक विशेष प्रकार के अपराधियों को मार पीट कर उन्हें उनके करे की सजा देनी चाहिए । तब भी मुझे लगा था कि यह गलत है व भावना में बहकर न्याय नहीं होता । मेरा सबसे बड़ा भय यही था कि किसी निर्दोष को सजा न मिल जाए या, जोश में आकर लोग अपराध से अधिक सजा न दे डालें , या कुछ लोग यह रास्ता अपने शत्रुओं को मजा चखाने के लिए न उपयोग करें ।
कल के टाइम्स औफ इन्डिया में एक समाचार पढ़ा । अमेरिका में एक संस्था इनोसेन्स प्रोजेक्ट द्वारा निर्दोष लोगों को न्याय दिला रही है । इसने २०० ऐसे व्यक्तियों को, जिन्हें लम्बी कारावास हुई थी व जो कुल मिलाकर २४७५ वर्ष कारावासों में बिता चुके थे, डी एन ए के प्रमाणों द्वारा मुक्ति दिलवाई है । यदि आप हिसाब लगाएँगे तो हर निर्दोष ने औसतन १२वर्ष व साढ़े चार महीने कैद में गुजारे ! २००वाँ व्यक्ति जेरी मिलर, उम्र ४८ वर्ष, ने २४ वर्ष कैद में बिताए हैं । उसे एक ४४ वर्षीय महिला का बलात्कार करने के लिए सजा दी गई थी । किसी अपराधी ने बलात्कार करके महिला को कार के बूट में बन्द कर दिया था । ऐसा कर वह भाग गया और कुछ लोगों ने, जिन्होंने उसे देखा था, उस अपराधी का चित्र बनवाने में मदद की । इसी चित्र के आधार पर जेरी पकड़ा गया ।
क्या आप इस व्यक्ति व उसके परिवार की व्यथा की कल्पना कर सकते हैं ? पहली तो बात किसी भी निर्दोष व्यक्ति को जब दोषी करार दिया जाता है तो यह उसके व उसके परिवार के साथ अन्याय है व यह उनके मान सम्मान को धूल में मिला देता है । किन्तु बलात्कार का दोष तो ऐसा है कि जिसपर लगे यह उसके व उसके प्रिय जनों के बलात्कार सा है । सोचिये उसकी पत्नी या महिला मित्र या प्रेमिका की मनोदशा ! यदि उन्हें न भी विश्वास होता हो तब भी उनके मन में संदेह तो आता होगा । क्या होगी उसके माता पिता व परिवार की दशा ! कौन परिवार सह पाएगा कि उनका पुत्र एक बलात्कारी है ?
जब भी कोई अपराध होता है, विशेष रूप से जघन्य, तो सब लोग, पुलिस, मीडिया , सरकार आदि, जल्द से जल्द अपराधी को पकड़ना चाहते हैं व लोगों का क्रोध शान्त कतना चाहते हैं ।
यह सही भी है किन्तु किसी भी निर्दोष को सजा देना एक नया अपराध करने से भी बड़ा अपराध है । जिसके साथ अपराध किया गया हो उसे लोगों की सहानुभुति तो मिलती है किन्तु इस बेचारे के साथ तो न न्याय, न सहानुभूति !
अतः हमें याद रहना चाहिये कि एक पीड़ित को न्याय दिलाने के चक्कर में आवेश में आकर एक निरअपराधी को सजा नहीं होनी चाहिये । जब मैंने यह समाचार पढ़ा तो मुझे बचपन में अपने साथ घटी एक घटना याद आ गई ।
घटना
जब मैं लगभग १२ वर्ष की थी तो एक बार मेरे माता पिता व अड़ोसी पड़ोसी सब एक विवाह में गए हुए थे । हमारे घर दूर दूर थे व इस स्थिति में दूर दूर तक कोई भी घर में नहीं था । एक चोर हमारे घर आया । मैंने उसे देख लिया, और.... हँसिये नहीं, उसे पकड़ने उसके पीछे भागी । बेचारे चोर ने ऐसी बच्ची की कल्पना नहीं की होगी । सो वह भी भागा, वह आगे और मैं पीछे , रात के अन्धकार में बगीचे में पहुँच गए । अचानक एक लाइट के नीचे शायद उसे यह खयाल आया कि वह एक बच्ची से डर कर भाग रहा है , सो वापिस मेरी तरफ आया । तब मुझे भी लगा कि कुछ अधिक ही वीरता हो गई । सो चिल्लाई.. भैय्या, चोर,चोर , पकड़ो । चोर रुक गया और मैं भी रुक रही । शायद उसने सोचा होगा कि जब छोटी बहन इतनी बड़ी वीरांगना है तो बड़ा भाई कैसा होगा । हम दोनों खड़े थे फिर वह भागने लगा और मैं फिर से उसके पीछे ! तब तक भाई भी आ गया और मैंने चिल्ला कर कहा कि दूसरी तरफ से जाओ । घर के चारों और बगीचा था और मैं उसे घेर कर पकड़ना चाहती थी । वह बेचारा !
एक तरफ कूँआ तो दूसरी तरफ खाई !
एक तरफ बहना तो दूसरी तरफ भाई !
गन्नों में जा बाढ़ से बाहर छलांग लगाई !
ऐसे उस बेचारे ने हमसे अपनी जान छुड़ाई !
इस घटना के कुछ दिन बाद मैंने उस चोर को दो तीन बार देखा । मैं अपने पिताजी के साथ थी व आसपास सब जान पहचान वाले लोग थे । चाहती तो पकड़वा सकती थी । कुछ और नहीं तो दो चार हाथ तो उसे पड़ ही जाते । किन्तु उस उम्र में भी मुझे इस बात का एहसास था कि कम से कम शून्य दशमलव एक प्रतिशत तो गलत होने की संभावना है । आज भी मुझे उसकी वे भेदती आँखें याद हैं, वह अवश्य सोचता होगा कि मैंने उसे पकड़वाया क्यों नहीं । किन्तु मैं जानती हूँ मैंने ठीक किया था । यदि मैं पूरी तरह से आश्वस्त नहीं थी तो मैं उसपर आरोप नहीं लगा सकती थी ।
घुघूती बासूती
कल के टाइम्स औफ इन्डिया में एक समाचार पढ़ा । अमेरिका में एक संस्था इनोसेन्स प्रोजेक्ट द्वारा निर्दोष लोगों को न्याय दिला रही है । इसने २०० ऐसे व्यक्तियों को, जिन्हें लम्बी कारावास हुई थी व जो कुल मिलाकर २४७५ वर्ष कारावासों में बिता चुके थे, डी एन ए के प्रमाणों द्वारा मुक्ति दिलवाई है । यदि आप हिसाब लगाएँगे तो हर निर्दोष ने औसतन १२वर्ष व साढ़े चार महीने कैद में गुजारे ! २००वाँ व्यक्ति जेरी मिलर, उम्र ४८ वर्ष, ने २४ वर्ष कैद में बिताए हैं । उसे एक ४४ वर्षीय महिला का बलात्कार करने के लिए सजा दी गई थी । किसी अपराधी ने बलात्कार करके महिला को कार के बूट में बन्द कर दिया था । ऐसा कर वह भाग गया और कुछ लोगों ने, जिन्होंने उसे देखा था, उस अपराधी का चित्र बनवाने में मदद की । इसी चित्र के आधार पर जेरी पकड़ा गया ।
क्या आप इस व्यक्ति व उसके परिवार की व्यथा की कल्पना कर सकते हैं ? पहली तो बात किसी भी निर्दोष व्यक्ति को जब दोषी करार दिया जाता है तो यह उसके व उसके परिवार के साथ अन्याय है व यह उनके मान सम्मान को धूल में मिला देता है । किन्तु बलात्कार का दोष तो ऐसा है कि जिसपर लगे यह उसके व उसके प्रिय जनों के बलात्कार सा है । सोचिये उसकी पत्नी या महिला मित्र या प्रेमिका की मनोदशा ! यदि उन्हें न भी विश्वास होता हो तब भी उनके मन में संदेह तो आता होगा । क्या होगी उसके माता पिता व परिवार की दशा ! कौन परिवार सह पाएगा कि उनका पुत्र एक बलात्कारी है ?
जब भी कोई अपराध होता है, विशेष रूप से जघन्य, तो सब लोग, पुलिस, मीडिया , सरकार आदि, जल्द से जल्द अपराधी को पकड़ना चाहते हैं व लोगों का क्रोध शान्त कतना चाहते हैं ।
यह सही भी है किन्तु किसी भी निर्दोष को सजा देना एक नया अपराध करने से भी बड़ा अपराध है । जिसके साथ अपराध किया गया हो उसे लोगों की सहानुभुति तो मिलती है किन्तु इस बेचारे के साथ तो न न्याय, न सहानुभूति !
अतः हमें याद रहना चाहिये कि एक पीड़ित को न्याय दिलाने के चक्कर में आवेश में आकर एक निरअपराधी को सजा नहीं होनी चाहिये । जब मैंने यह समाचार पढ़ा तो मुझे बचपन में अपने साथ घटी एक घटना याद आ गई ।
घटना
जब मैं लगभग १२ वर्ष की थी तो एक बार मेरे माता पिता व अड़ोसी पड़ोसी सब एक विवाह में गए हुए थे । हमारे घर दूर दूर थे व इस स्थिति में दूर दूर तक कोई भी घर में नहीं था । एक चोर हमारे घर आया । मैंने उसे देख लिया, और.... हँसिये नहीं, उसे पकड़ने उसके पीछे भागी । बेचारे चोर ने ऐसी बच्ची की कल्पना नहीं की होगी । सो वह भी भागा, वह आगे और मैं पीछे , रात के अन्धकार में बगीचे में पहुँच गए । अचानक एक लाइट के नीचे शायद उसे यह खयाल आया कि वह एक बच्ची से डर कर भाग रहा है , सो वापिस मेरी तरफ आया । तब मुझे भी लगा कि कुछ अधिक ही वीरता हो गई । सो चिल्लाई.. भैय्या, चोर,चोर , पकड़ो । चोर रुक गया और मैं भी रुक रही । शायद उसने सोचा होगा कि जब छोटी बहन इतनी बड़ी वीरांगना है तो बड़ा भाई कैसा होगा । हम दोनों खड़े थे फिर वह भागने लगा और मैं फिर से उसके पीछे ! तब तक भाई भी आ गया और मैंने चिल्ला कर कहा कि दूसरी तरफ से जाओ । घर के चारों और बगीचा था और मैं उसे घेर कर पकड़ना चाहती थी । वह बेचारा !
एक तरफ कूँआ तो दूसरी तरफ खाई !
एक तरफ बहना तो दूसरी तरफ भाई !
गन्नों में जा बाढ़ से बाहर छलांग लगाई !
ऐसे उस बेचारे ने हमसे अपनी जान छुड़ाई !
इस घटना के कुछ दिन बाद मैंने उस चोर को दो तीन बार देखा । मैं अपने पिताजी के साथ थी व आसपास सब जान पहचान वाले लोग थे । चाहती तो पकड़वा सकती थी । कुछ और नहीं तो दो चार हाथ तो उसे पड़ ही जाते । किन्तु उस उम्र में भी मुझे इस बात का एहसास था कि कम से कम शून्य दशमलव एक प्रतिशत तो गलत होने की संभावना है । आज भी मुझे उसकी वे भेदती आँखें याद हैं, वह अवश्य सोचता होगा कि मैंने उसे पकड़वाया क्यों नहीं । किन्तु मैं जानती हूँ मैंने ठीक किया था । यदि मैं पूरी तरह से आश्वस्त नहीं थी तो मैं उसपर आरोप नहीं लगा सकती थी ।
घुघूती बासूती
Tuesday, April 24, 2007
वह गये कहाँ
जाने वह गये कहाँ
जो मेरे मन में बसते थे
खो गये वह कहाँ
जो साँसों में रहते थे
छूट गये वह कहाँ
जो सपनों में मिलते थे ।
जिनके आने से मन नाचा करता था
जिनके होने से हर पल सपना लगता था
वह आते थे तो हर क्षण छोटा लगता था
समय पँख लगाये तब उड़ता रहता था ।
राहों में बिछते थे फूल जहाँ
अब काँटे ही काँटे हैं पड़े वहाँ
सीने में अरमान बसते थे जहाँ
अब अंगारे हैं सुलग रहे वहाँ
चाहत की खिलती थी कलियाँ जहाँ
अब आँसुओं का है सैलाब वहाँ ।
सूनी सूनी सब राहें हैं
खाली खाली पैमाने हैं
छलकी छलकी सी आँखें हैं
सूनी सूनी सी बाँहें हैं ।
लम्बे से ये रस्ते हैं
डगमग करते हैं पाँव
गये कहाँ वे वृक्ष सभी
कोमल थी जिनकी छाँव
कल-कल करते वे झरने
वह मेरा प्यारा सा गाँव ।
जाने वह खुशबू गयी कहाँ
जो अन्त: तक में बस जाती थीं
जाने है वह प्रेम हिना कहाँ
जो मन तक को रंग जाती थी ।
जाने वह तेरे गीत कहाँ
जो कानों में रस बरसाते थे
जाने वह सुख सरिता कहाँ गयी
जिसमें हम गोते खाते थे
वे बाँहों के हार कहाँ
जो हमें गले लगाते थे ।
वे साँझें,वे दिन जादू वाले,
सतरंगी आकाश,वे बादल मतवाले,
वे मीठी बातें,तेरे वे बोल रसवाले
कामदेव के तीर से,नयना वे मदवाले ।
वे सारे जुगनू गये कहाँ
जो तेरी राह दिखाते थे
वे धक-धक करते हृदय कहाँ
जो तेरे आने का राज बताते थे
वे सारे तारे गये कहाँ
जो तुम तोड़ ले आते थे ।
छोटे छोटे वे सुख अपने
वे अपने रंगी ख्वाब कहाँ
इक दिन भी ना मिलने पर
वह मीठी सी कसक कहाँ ।
कहाँ गये वे दीपक सारे
जो मेरी आँखों में जलते थे
गये कहाँ वे सारे सपने
जो मेरी आँखों में पलते थे
गये कहाँ वे सारे फूल
जो अपनी बगिया में खिलते थे ।
कहाँ गयी वह चुम्बक सी शक्ति
जो तुम्हे खींच ले आती थी
कहाँ गयी वह प्रेम चाँदनी
जो प्रेम रस बरसाती थी ।
कहाँ गया वह मेरा यौवन
जो दीवाना तुम्हें बनाता था
कहाँ गया वह बचपन का नेह
जो मनमीत हमें बनाता था
कहाँ गया वह अपना सपना
जो रंगी जहां बनाता था ।
मिलकर चलते एक राह पर
जाने कब छूटा तेरा हाथ
रोते हँसते, मिलकर चलते
न जाने कब छूटा तेरा साथ ।
अब ढूँढ रहीं आँखें तुझको
इन जीवन की राहों में
खोज रही हूँ यादों में तुझको
इन जीवन के पन्नों में
बुला रही खुशबू तुझको
इस जीवन के उपवन में ।
लौट के आ जा प्रियतम मेरे
अब तो जीवन बीत चला
कुछ साँसें हैं साथ मेरे
जीवन घट तो अब रीत चला ।
घुघूती बासूती
जो मेरे मन में बसते थे
खो गये वह कहाँ
जो साँसों में रहते थे
छूट गये वह कहाँ
जो सपनों में मिलते थे ।
जिनके आने से मन नाचा करता था
जिनके होने से हर पल सपना लगता था
वह आते थे तो हर क्षण छोटा लगता था
समय पँख लगाये तब उड़ता रहता था ।
राहों में बिछते थे फूल जहाँ
अब काँटे ही काँटे हैं पड़े वहाँ
सीने में अरमान बसते थे जहाँ
अब अंगारे हैं सुलग रहे वहाँ
चाहत की खिलती थी कलियाँ जहाँ
अब आँसुओं का है सैलाब वहाँ ।
सूनी सूनी सब राहें हैं
खाली खाली पैमाने हैं
छलकी छलकी सी आँखें हैं
सूनी सूनी सी बाँहें हैं ।
लम्बे से ये रस्ते हैं
डगमग करते हैं पाँव
गये कहाँ वे वृक्ष सभी
कोमल थी जिनकी छाँव
कल-कल करते वे झरने
वह मेरा प्यारा सा गाँव ।
जाने वह खुशबू गयी कहाँ
जो अन्त: तक में बस जाती थीं
जाने है वह प्रेम हिना कहाँ
जो मन तक को रंग जाती थी ।
जाने वह तेरे गीत कहाँ
जो कानों में रस बरसाते थे
जाने वह सुख सरिता कहाँ गयी
जिसमें हम गोते खाते थे
वे बाँहों के हार कहाँ
जो हमें गले लगाते थे ।
वे साँझें,वे दिन जादू वाले,
सतरंगी आकाश,वे बादल मतवाले,
वे मीठी बातें,तेरे वे बोल रसवाले
कामदेव के तीर से,नयना वे मदवाले ।
वे सारे जुगनू गये कहाँ
जो तेरी राह दिखाते थे
वे धक-धक करते हृदय कहाँ
जो तेरे आने का राज बताते थे
वे सारे तारे गये कहाँ
जो तुम तोड़ ले आते थे ।
छोटे छोटे वे सुख अपने
वे अपने रंगी ख्वाब कहाँ
इक दिन भी ना मिलने पर
वह मीठी सी कसक कहाँ ।
कहाँ गये वे दीपक सारे
जो मेरी आँखों में जलते थे
गये कहाँ वे सारे सपने
जो मेरी आँखों में पलते थे
गये कहाँ वे सारे फूल
जो अपनी बगिया में खिलते थे ।
कहाँ गयी वह चुम्बक सी शक्ति
जो तुम्हे खींच ले आती थी
कहाँ गयी वह प्रेम चाँदनी
जो प्रेम रस बरसाती थी ।
कहाँ गया वह मेरा यौवन
जो दीवाना तुम्हें बनाता था
कहाँ गया वह बचपन का नेह
जो मनमीत हमें बनाता था
कहाँ गया वह अपना सपना
जो रंगी जहां बनाता था ।
मिलकर चलते एक राह पर
जाने कब छूटा तेरा हाथ
रोते हँसते, मिलकर चलते
न जाने कब छूटा तेरा साथ ।
अब ढूँढ रहीं आँखें तुझको
इन जीवन की राहों में
खोज रही हूँ यादों में तुझको
इन जीवन के पन्नों में
बुला रही खुशबू तुझको
इस जीवन के उपवन में ।
लौट के आ जा प्रियतम मेरे
अब तो जीवन बीत चला
कुछ साँसें हैं साथ मेरे
जीवन घट तो अब रीत चला ।
घुघूती बासूती
Wednesday, April 18, 2007
काकेश जी से विनती........काले कौओं का इन्तजाम कीजिए !
हे कौओं के राजा ! क्या आप जानते हैं कि यहाँ जहाँ मैं रहती हूँ एक भी कौआ नहीं पाया जाता ? आपके शासन में इतना अन्याय क्यों ? अब हम सात साल से काले कौआ नहीं मना रहे । क्या सभी कौए फेयर ऍनड लव्ली का उपयोग कर कबूतर बन गए ? फौरन एक फरमान जारी कर इस पर रोक लगाइये राजन् !
काले कौआ के दिन( काले कौआ कुमाऊँ में संक्रान्ति के समय मनाए जाने वाला त्यौहार है ।) हमारा मन तरह तरह के आकार जैसे, ढोलक, डमरू, लौंग, फूल आदि के शकरपारे बनाने, उन्हें माला में पिरोने फिर उन्हें काले कौओं को बुला बुला कर खिलाने को मचलता है । किन्तु यहाँ पूर्णतया काला तो क्या अधकाला कौआ भी नहीं दिखता । मोर, कोयल और तरह तरह के पक्षी तो बहुत आते हैं पर क्या कोई कुमाऊनी कौओं का हिस्सा इन्हें खिलाएगा ?
श्याम वर्ण कृष्ण की इस कर्मभूमि में श्याम या अर्धश्याम कौओं का यह अकाल मेरे गले नहीं उतरता । देखो तो इनकी याद में मैंने एक गीत (पैरोडी) रच डाला है ।
अब तक मुझे यह समझ नहीं आ रहा था कि अपनी विनती लेकर किसके पास जाऊँ । आपके नाम का अर्थ तो मुझे पता था पर आपको पता है कि नहीं यह शंका थी , किन्तु अब तो शंका निवारण हो गया । सो हे राजन् ! गीत भी प्रस्तुत है.........
सारे कौए कहीं खो गए
हाय हम कौए विहीन हो गए
सारे ......
हाय हम काले कौए मनाने से रह गए !
हाथों ने बनाए जो शकरपारे
वे सारे धरे रह गए
सारे .........
बिन कौए ये समय जो बीता
क्या कहें हम पर क्या क्या बीता
कौए न आए जबसे हम यहाँ हैं आए
हाय हम कौए .........
तुमने हमसे की थी जो काँव काँव की बातें
उनको दोहराते हम जो टेप किये होते
हमसे शकरपारे खाने के दिन खो गए
हाय हम कौए .........
बहुत से शिकवा और गिला है
कौओ हमको ये गम मिला है ।
सारे....
हाय....
कुछ कीजिए काकेश !
आपकी ही कौआ भक्त,
घुघूती बासूती
काले कौआ के दिन( काले कौआ कुमाऊँ में संक्रान्ति के समय मनाए जाने वाला त्यौहार है ।) हमारा मन तरह तरह के आकार जैसे, ढोलक, डमरू, लौंग, फूल आदि के शकरपारे बनाने, उन्हें माला में पिरोने फिर उन्हें काले कौओं को बुला बुला कर खिलाने को मचलता है । किन्तु यहाँ पूर्णतया काला तो क्या अधकाला कौआ भी नहीं दिखता । मोर, कोयल और तरह तरह के पक्षी तो बहुत आते हैं पर क्या कोई कुमाऊनी कौओं का हिस्सा इन्हें खिलाएगा ?
श्याम वर्ण कृष्ण की इस कर्मभूमि में श्याम या अर्धश्याम कौओं का यह अकाल मेरे गले नहीं उतरता । देखो तो इनकी याद में मैंने एक गीत (पैरोडी) रच डाला है ।
अब तक मुझे यह समझ नहीं आ रहा था कि अपनी विनती लेकर किसके पास जाऊँ । आपके नाम का अर्थ तो मुझे पता था पर आपको पता है कि नहीं यह शंका थी , किन्तु अब तो शंका निवारण हो गया । सो हे राजन् ! गीत भी प्रस्तुत है.........
सारे कौए कहीं खो गए
हाय हम कौए विहीन हो गए
सारे ......
हाय हम काले कौए मनाने से रह गए !
हाथों ने बनाए जो शकरपारे
वे सारे धरे रह गए
सारे .........
बिन कौए ये समय जो बीता
क्या कहें हम पर क्या क्या बीता
कौए न आए जबसे हम यहाँ हैं आए
हाय हम कौए .........
तुमने हमसे की थी जो काँव काँव की बातें
उनको दोहराते हम जो टेप किये होते
हमसे शकरपारे खाने के दिन खो गए
हाय हम कौए .........
बहुत से शिकवा और गिला है
कौओ हमको ये गम मिला है ।
सारे....
हाय....
कुछ कीजिए काकेश !
आपकी ही कौआ भक्त,
घुघूती बासूती
Monday, April 16, 2007
मेहरबानी मेरे दोस्त
मेहरबानी मेरे दोस्त तूने मुझे उड़ना सिखा दिया,
चाँद सितारों की सैर करा स्वर्ग दिखा दिया,
सुनहरे सपनें दिखा मुझे प्यार करना सिखा दिया,
तूने ही तो मुझे प्रेम सोमरस प्याला पिला दिया,
जड़वत थी मैं अब तक तूने हिला दिया,
मर मर कर जी रही थी, जी जी कर मरना सिखा दिया ।
मेहरबानी मेरे दोस्त जो मरने के लिए तूने मुझे जिला दिया,
सतरंगी आसमाँ में संग उड़ कर इक नया जहां दिखा दिया,
फिर पंख कतर कर मेरे इस धरती पर ला दिया,
बन्धन सारे काट तूने मुझे जीना सिखा दिया,
जिस चाकू से काटे बन्धन उस चाकू को तूने दिल पर चला दिया,
जिस पन्ने पर लिखी थी प्रेम कहानी, उस पन्ने को ही जला दिया ।
मेहरबानी मेरे दोस्त जो तूने मेरे दिल को रोना सिखा दिया,
सूनी सी थी जो आँखें उनको आँसुओं से धो दिया,
झील से शान्त दिल को धड़कना सिखा दिया,
सोई हुई थी मैं अब तक तूने मुझे जगा दिया,
उदासीन से इस मन को खुशियों से भर दिया,
शून्य सा था मेरा जीवन उसे तूने फूलों से भर दिया,
मेहरबानी मेरे दोस्त जो तूने मुझे विरहन बना दिया,
जो बन्धन मेरे काट तूने मुझे अपना बन्दी बना लिया,
मूक थी मैं अब तक, तूने मुझे शब्दों से भर दिया,
जीवन की सीधी राहोँ को मुड़ना सिखा दिया,
बेरंग सा था जीवन तूने उसे रंगों से भर दिया ,
जो रंग कर मेरे मन को काली स्याही में डुबो दिया ।
चाँद सितारों की सैर करा स्वर्ग दिखा दिया,
सुनहरे सपनें दिखा मुझे प्यार करना सिखा दिया,
तूने ही तो मुझे प्रेम सोमरस प्याला पिला दिया,
जड़वत थी मैं अब तक तूने हिला दिया,
मर मर कर जी रही थी, जी जी कर मरना सिखा दिया ।
मेहरबानी मेरे दोस्त जो मरने के लिए तूने मुझे जिला दिया,
सतरंगी आसमाँ में संग उड़ कर इक नया जहां दिखा दिया,
फिर पंख कतर कर मेरे इस धरती पर ला दिया,
बन्धन सारे काट तूने मुझे जीना सिखा दिया,
जिस चाकू से काटे बन्धन उस चाकू को तूने दिल पर चला दिया,
जिस पन्ने पर लिखी थी प्रेम कहानी, उस पन्ने को ही जला दिया ।
मेहरबानी मेरे दोस्त जो तूने मेरे दिल को रोना सिखा दिया,
सूनी सी थी जो आँखें उनको आँसुओं से धो दिया,
झील से शान्त दिल को धड़कना सिखा दिया,
सोई हुई थी मैं अब तक तूने मुझे जगा दिया,
उदासीन से इस मन को खुशियों से भर दिया,
शून्य सा था मेरा जीवन उसे तूने फूलों से भर दिया,
मेहरबानी मेरे दोस्त जो तूने मुझे विरहन बना दिया,
जो बन्धन मेरे काट तूने मुझे अपना बन्दी बना लिया,
मूक थी मैं अब तक, तूने मुझे शब्दों से भर दिया,
जीवन की सीधी राहोँ को मुड़ना सिखा दिया,
बेरंग सा था जीवन तूने उसे रंगों से भर दिया ,
जो रंग कर मेरे मन को काली स्याही में डुबो दिया ।
Sunday, April 01, 2007
युयुत्सु
युयुत्सु
लड़ रहे सारे युयुत्सु इक महा संग्राम में
हर जीवन समर भूमि बना है आज इस संसार में
हर क्षेत्र कुरूक्षेत्र बना आज के मानव के लिए
जन्म लेने से मरण तक जूझता वह जीने के लिए
कभी प्रश्न जीने का होता, कभी जीवन प्रश्न बनता
कभी प्रश्न मूल्यों का होता , कभी मूल्य प्रश्न बनते
आज लड़ता रोटी के लिए कल शिक्षा के अधिकार को ।
तीन वर्षीय नन्हे युयुत्सु जा खड़े हैं शाला के द्वार पर
आज दाखिले की मुटभेड़ है तो कल अस्तित्व के लिए
मीलों तक वाहनों में लटकता विद्या प्राप्ति को है वह
कुछ तो चढ़ जाते हैं भेंट इस सड़क संग्राम के
बाँकी इस सीमा तक थके हैं इस दैनिक युद्ध से
अपने अपने दड़बों में लौटें जो संध्या काल में
वे ही विजयी हुए हैं आज के इस संग्राम में ।
कल फिर भिड़न्त होगी उसकी प्रतिद्वन्दता के दौर में
तुष्टि उसको ना मिलेगी जग के किसी भी ठौर में
भागा फिरता जा रहा है कुछ और पाने के लिए
जितना पा रहा है पाएगा उससे अधिक कहीं और वह
दौड़ रहा प्यासे मृग की भांति स्पर्धा के मरुस्थलों में
उसे ग्यात है कि तृष्णा बुझ न पाएगी किसी जल स्रोत से
ना कोई क्षीर सागर ही मिटा पाएगा उसकी इस प्यास को
धन की क्षुधा कुछ ऐसी लगी है जो मिटाए से भी ना मिटे
पद की चाह तीव्र कितनी और चाह अथाह सम्मान की
अपने यौवन की देखो कैसे आहुति वह दे रहा इस दौड़ में ।
कुछ पल न हैं रिक्त उसके जो दे सके वह आत्म खोज को
किसके लिए वह लड़ रहा है यह भी नहीं वह जानता
प्रकृति कहती है इक पल तो रुक आ बैठ मेरी गोद में
धनुष से छूटे बाण सा वह रुक नहीं सकता अभी
गन्तव्य उसका दूर है और क्षितिज कुछ पास है
लक्ष्य उसका ऐसा है कि वह पा नहीं सकता कभी ।
कुछ नए युयुत्सु जन्म लेंगे युद्ध करने इक नई रणभूमि में
अपना कुरुक्षेत्र इनको थमा कर बैठ जाएगा बूढ़ा युयुत्सु
बैठ सोचेगा वह फिर जीवन के अपने संध्या काल में
क्या खोया और क्या पाया इस सारे युद्ध के जंजाल में
खो चुका होगा वह तब तक सारे अवसर प्यार के
मरु सी फिसलती देखेगा जीवन आयु और काल को
कुछ तो उपलब्ध न हुआ उसे इस जीवन संग्राम से ।
रिक्त हाथ लिए जन्मा था वह रिक्त हाथ ही वह जाएगा
किन्तु जो सालेगी वह होगी हृदय और आत्मा की रिक्तता
शून्य से आरम्भ हुआ था और वह शून्य ही वह रह जाएगा
सारे तमगे व विजय चिन्ह बस यहीं वह अपने छोड़ जाएगा
अपने हिस्से के शेष युद्ध नए युयुत्सुओं को वसीयत कर जाएगा
ले अपनी सारी जिगीषा हर यियुत्सु यूँ ही धूल में मिल जाएगा
किन्तु पंक्तिबद्ध खड़ा एक नया युयुत्सु संग्राम में उतर आएगा ।
घुघूती बासूती
लड़ रहे सारे युयुत्सु इक महा संग्राम में
हर जीवन समर भूमि बना है आज इस संसार में
हर क्षेत्र कुरूक्षेत्र बना आज के मानव के लिए
जन्म लेने से मरण तक जूझता वह जीने के लिए
कभी प्रश्न जीने का होता, कभी जीवन प्रश्न बनता
कभी प्रश्न मूल्यों का होता , कभी मूल्य प्रश्न बनते
आज लड़ता रोटी के लिए कल शिक्षा के अधिकार को ।
तीन वर्षीय नन्हे युयुत्सु जा खड़े हैं शाला के द्वार पर
आज दाखिले की मुटभेड़ है तो कल अस्तित्व के लिए
मीलों तक वाहनों में लटकता विद्या प्राप्ति को है वह
कुछ तो चढ़ जाते हैं भेंट इस सड़क संग्राम के
बाँकी इस सीमा तक थके हैं इस दैनिक युद्ध से
अपने अपने दड़बों में लौटें जो संध्या काल में
वे ही विजयी हुए हैं आज के इस संग्राम में ।
कल फिर भिड़न्त होगी उसकी प्रतिद्वन्दता के दौर में
तुष्टि उसको ना मिलेगी जग के किसी भी ठौर में
भागा फिरता जा रहा है कुछ और पाने के लिए
जितना पा रहा है पाएगा उससे अधिक कहीं और वह
दौड़ रहा प्यासे मृग की भांति स्पर्धा के मरुस्थलों में
उसे ग्यात है कि तृष्णा बुझ न पाएगी किसी जल स्रोत से
ना कोई क्षीर सागर ही मिटा पाएगा उसकी इस प्यास को
धन की क्षुधा कुछ ऐसी लगी है जो मिटाए से भी ना मिटे
पद की चाह तीव्र कितनी और चाह अथाह सम्मान की
अपने यौवन की देखो कैसे आहुति वह दे रहा इस दौड़ में ।
कुछ पल न हैं रिक्त उसके जो दे सके वह आत्म खोज को
किसके लिए वह लड़ रहा है यह भी नहीं वह जानता
प्रकृति कहती है इक पल तो रुक आ बैठ मेरी गोद में
धनुष से छूटे बाण सा वह रुक नहीं सकता अभी
गन्तव्य उसका दूर है और क्षितिज कुछ पास है
लक्ष्य उसका ऐसा है कि वह पा नहीं सकता कभी ।
कुछ नए युयुत्सु जन्म लेंगे युद्ध करने इक नई रणभूमि में
अपना कुरुक्षेत्र इनको थमा कर बैठ जाएगा बूढ़ा युयुत्सु
बैठ सोचेगा वह फिर जीवन के अपने संध्या काल में
क्या खोया और क्या पाया इस सारे युद्ध के जंजाल में
खो चुका होगा वह तब तक सारे अवसर प्यार के
मरु सी फिसलती देखेगा जीवन आयु और काल को
कुछ तो उपलब्ध न हुआ उसे इस जीवन संग्राम से ।
रिक्त हाथ लिए जन्मा था वह रिक्त हाथ ही वह जाएगा
किन्तु जो सालेगी वह होगी हृदय और आत्मा की रिक्तता
शून्य से आरम्भ हुआ था और वह शून्य ही वह रह जाएगा
सारे तमगे व विजय चिन्ह बस यहीं वह अपने छोड़ जाएगा
अपने हिस्से के शेष युद्ध नए युयुत्सुओं को वसीयत कर जाएगा
ले अपनी सारी जिगीषा हर यियुत्सु यूँ ही धूल में मिल जाएगा
किन्तु पंक्तिबद्ध खड़ा एक नया युयुत्सु संग्राम में उतर आएगा ।
घुघूती बासूती
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