युयुत्सु
लड़ रहे सारे युयुत्सु इक महा संग्राम में
हर जीवन समर भूमि बना है आज इस संसार में
हर क्षेत्र कुरूक्षेत्र बना आज के मानव के लिए
जन्म लेने से मरण तक जूझता वह जीने के लिए
कभी प्रश्न जीने का होता, कभी जीवन प्रश्न बनता
कभी प्रश्न मूल्यों का होता , कभी मूल्य प्रश्न बनते
आज लड़ता रोटी के लिए कल शिक्षा के अधिकार को ।
तीन वर्षीय नन्हे युयुत्सु जा खड़े हैं शाला के द्वार पर
आज दाखिले की मुटभेड़ है तो कल अस्तित्व के लिए
मीलों तक वाहनों में लटकता विद्या प्राप्ति को है वह
कुछ तो चढ़ जाते हैं भेंट इस सड़क संग्राम के
बाँकी इस सीमा तक थके हैं इस दैनिक युद्ध से
अपने अपने दड़बों में लौटें जो संध्या काल में
वे ही विजयी हुए हैं आज के इस संग्राम में ।
कल फिर भिड़न्त होगी उसकी प्रतिद्वन्दता के दौर में
तुष्टि उसको ना मिलेगी जग के किसी भी ठौर में
भागा फिरता जा रहा है कुछ और पाने के लिए
जितना पा रहा है पाएगा उससे अधिक कहीं और वह
दौड़ रहा प्यासे मृग की भांति स्पर्धा के मरुस्थलों में
उसे ग्यात है कि तृष्णा बुझ न पाएगी किसी जल स्रोत से
ना कोई क्षीर सागर ही मिटा पाएगा उसकी इस प्यास को
धन की क्षुधा कुछ ऐसी लगी है जो मिटाए से भी ना मिटे
पद की चाह तीव्र कितनी और चाह अथाह सम्मान की
अपने यौवन की देखो कैसे आहुति वह दे रहा इस दौड़ में ।
कुछ पल न हैं रिक्त उसके जो दे सके वह आत्म खोज को
किसके लिए वह लड़ रहा है यह भी नहीं वह जानता
प्रकृति कहती है इक पल तो रुक आ बैठ मेरी गोद में
धनुष से छूटे बाण सा वह रुक नहीं सकता अभी
गन्तव्य उसका दूर है और क्षितिज कुछ पास है
लक्ष्य उसका ऐसा है कि वह पा नहीं सकता कभी ।
कुछ नए युयुत्सु जन्म लेंगे युद्ध करने इक नई रणभूमि में
अपना कुरुक्षेत्र इनको थमा कर बैठ जाएगा बूढ़ा युयुत्सु
बैठ सोचेगा वह फिर जीवन के अपने संध्या काल में
क्या खोया और क्या पाया इस सारे युद्ध के जंजाल में
खो चुका होगा वह तब तक सारे अवसर प्यार के
मरु सी फिसलती देखेगा जीवन आयु और काल को
कुछ तो उपलब्ध न हुआ उसे इस जीवन संग्राम से ।
रिक्त हाथ लिए जन्मा था वह रिक्त हाथ ही वह जाएगा
किन्तु जो सालेगी वह होगी हृदय और आत्मा की रिक्तता
शून्य से आरम्भ हुआ था और वह शून्य ही वह रह जाएगा
सारे तमगे व विजय चिन्ह बस यहीं वह अपने छोड़ जाएगा
अपने हिस्से के शेष युद्ध नए युयुत्सुओं को वसीयत कर जाएगा
ले अपनी सारी जिगीषा हर यियुत्सु यूँ ही धूल में मिल जाएगा
किन्तु पंक्तिबद्ध खड़ा एक नया युयुत्सु संग्राम में उतर आएगा ।
घुघूती बासूती
Sunday, April 01, 2007
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
वाह वाह!! क्या कहूँ.. बहुत गहरी रचना है. हम तो डूब गये. बहुत खूब!! बधाई आपको!!
ReplyDeleteवाह! घुघूति बासूति - " किन्तु पंक्तिबद्ध खड़ा एक नया युयुत्सु संग्राम में उतर आएगा । "
ReplyDelete" इसलिए राह संघर्ष की हम चुनें,
जिन्दगी आँसुओं से नहाई न हो ।
शाम सहमी न हो, रात हो न डरी,
भोर की आँख फिर डबडबाई न हो ॥"
बहुत ही बढ़िया घुघूती बासूती जी।
ReplyDeleteजानें क्यों युयुत्सु नाम मुझे बचपन से ही अपनी ओर आकर्षित किए हुए है, यहां तक की मैनें याहू पर युयुत्सु के ही नाम से एक आई डी भी बना रखी है सालों से।
धन्यवाद आपका एक बढ़िया रचना पढ़वाने के लिए
पता नहीं क्यों, पढ़कर कुछ बेचैनी कम होती-सी लगी.
ReplyDeleteसुन्दर रचना...हर क्षण एक नया समर है..इस बात की याद दिलाती हुई... लिखते रहिये...
ReplyDeleteसमझमे आने वाली रचना लिखने के लिए आपको बधाई - बहुत ख़ूब लिखा है
ReplyDeleteआपकी इतनी अच्छी कविता को पढकर मुझे ये कहना है-
ReplyDeleteआशा और विश्वास को लेकर हमको आगे बढना होगा,
अगर आ पडी जरूरत तो फिर, नियति से भी लड्ना होगा.
"ले अपनी सारी जिगीषा हर यियुत्सु यूँ ही धूल में मिल जाएगा
ReplyDeleteकिन्तु पंक्तिबद्ध खड़ा एक नया युयुत्सु संग्राम में उतर आएगा।"
ऐसा भी हो सकता है कि उस युयुत्सु को एक दिन वास्तविक सत्य का ज्ञान हो जाए और वह कह उठे, बढ़ जाओ आगे तुम
बहुत ही सुन्दर और यथार्थपरक कविता!
घुघुति जी, पहले तो इतनी भारी-भरकम कविता देखकर डर ही गया और नहीं पढ़ी, पर कुछ दिन बाद पुन: देखी और पढ़ी भी। क्या कहने! पर कौन सुने, कौन माने।
ReplyDeleteआपने बहुत यथार्थ भरी कविता प्रस्तुत करी है। व्यक्तिगत रूप से कई लोग इसे मानते भी हैं, यदि समाज इसे मानता तो यह विडम्बना की स्थिति होती ही क्यों? शायद यह नहीं रुक सकती... रुकना भी नहीं चाहिये... आखिर मूल कारण तो हम ही हैं। हम ही ने तो तय लिये हैं यह मानक और जानबूझकर स्वयं और भावी युयुत्सुओं में भी यही मानक स्थापित करवाये हैं।
धन की क्षुधा कुछ ऐसी लगी है जो मिटाए से भी ना मिटे
पद की चाह तीव्र कितनी और चाह अथाह सम्मान की
इसी को तो हमने परिभाषित किया है - महत्वाकांक्षा के नाम से! फिर तो पीना हे होगा इस समर रूपी हलाहल को, नहीं तो कभी पुन: स्मरण करें संतोष को।
EK BAHUT SUNDAR RACHNA .
ReplyDeleteISAKA LIKHA HAR LAFAZ DIL MEIN UATRA ..AUR EK VISHRAAM DE GAYA ..
BADHAAI !!
"घुघूती बासूती"--- जब ये शब्द सुना तो अनायास मेरे मुख पर मुस्कुराहट दौङ गई| बचपन मे कई बार घुघूती बासूती करवाया था हमने खैर| आपने कविता बहुत गज़ब लिखी है, एक दम यर्थाथ| बधाई!
ReplyDeleteSomeplace I forgot to care.
ReplyDeleteI…can’t remember where.
Children dropping at my feet.
They don’t have enough to eat.
Abhi
घुघूति बासूति जी,
ReplyDeleteअब हम क्या कहें ...तुम्हारी हमारी कहानी ही तो है यह
इतनी सुंदर रचना के लिये ह्रदय से धन्यवाद
कविता काफी अच्छी है . आपकी नराई से प्रेरित हो कर मैने भी अपनी नराई लिख डाली. कृपया पढ़ कर टिप्पणी करें.
ReplyDeletekakesh.wordpress.com
ghughooti baasuti jee
ReplyDeleteaapke kavitaen bahut achchhee hain. mazaa aa gyaa
नया संग्राम बह रहा है इस नवीन रचना से
ReplyDeleteयुयुत्सु को आना ही हो लड़ना तो उसे ही है
इस कर्म भूमि पर...सुंदर रचना...
पुनः नया आभास नया सवेरा पाया