Thursday, December 12, 2013

समलैंगिकता को कानूनी मान्यता



एक पढ़ी लिखी नौकरी करती बेहद निपुण स्त्री ने जो पारम्परिक अरैन्ज्ड विवाह में विश्वास करती थी, जिसने एक से एक अच्छे अन्तर्जातीय रिश्ते ठुकराकर अपने माता पिता के द्वारा चुने सुन्दर, सुशील, अच्छे घर के सजातीय पुरुष से विवाह किया।

वह पहले ही दिन पति के मित्र ( प्रेमी) का अपने ससुराल में पूरा दखल, घर में महत्व, पति पर उसका इतना प्रभाव कि वह जो कहे वह पति मान ले देख दंग रह गई। पति उसके साथ मायके जाने को मना कर दे, किसी रस्म को निभाने से मना कर दे, उसके साथ कमरे में रहने को ही मना कर दे तो हर मर्ज का एक इलाज वह मित्र था। सास ससुर उस मित्र को गुहार लगाते और वह कहे तो पति सर के बल खड़े होने को भी तैयार हो जाता।

खैर बाद में पता चला कि जिसकी वह पत्नी है उसका भी पति है, और पति का पति वह मित्र है। उसका पति तो खैर नाम का ही था। इस असम्भव से रिश्ते को भी पति में बदलाव का अवसर दे निभाने की कोशिश जब पूरी तरह से असफल हो गई तो स्त्री ने तलाक दे दिया। किन्तु वह स्त्री उस पूर्व पति को कभी कोसती नहीं थी। उसका कहना था कि वह भी समाज का शिकार एक पीड़ित था। उसे क्या दोष देना। उससे तो सहानुभूति होनी चाहिए।

यदि वह स्त्री उस समलैंगिक के साथ सहानुभूति रख सकती थी तो हम क्यों नहीं? यदि हम स्वयं को उनके स्थान पर रखकर देखें तो शायद हम इतने कठोर नहीं होंगे। शेष समाज से अलग होना, अचानक अपने बारे में यह जानना कि अन्य मित्रों की तरह वह विपरीत लिंगियों की बजाए अपने ही लिंग वालों की तरफ आकर्षित है। बार बार कोशिश करना कि अन्य मित्रों या सहेलियों की तरह व्यवहार करें, विपरीत लिंगियों से दोस्ती व लगाव रखने की असफल कोशिश करना, किन्तु उनमें कोई आकर्षण न पाना। जिनसे आकर्षित हो उनसे कह नहीं सकना, अपराध भाव, हीन भावना से किशोरावस्था से ही ग्रसित होना। यह सब कितना कठिन होता होगा। अपने आकर्षण, अपने सत्य को परिवार से छिपाकर रखना, झूठ ही विपरीत लिंगियों में नकली रुचि दिखाना यह सब क्या कम सजा है उनके लिए जो समाज और हम उन्हें और सजा देना चाहें?

 हममें कुछ तो मानवीय संवेदनाएँ होनी ही चाहिएँ।


घिनौने बलात्कार के लिए कम सजा और सहमति से बने समलैंगिक सम्बन्धों के लिए उम्र कैद क्या कहीं से भी उचित है?

यदि उस पति का परिवार अपने बेटे का सत्य सामने होने पर भी उसको देखने से इनकार न करता, उसे विवाह के लिए बाध्य न करता तो उस स्त्री के जीवन में इतनी उथल पुथुल, इतना दुख, एक नकली विवाह को करने में और फिर तोड़ने में शक्ति, धन, समय की बरबादी न होती, विवाह के लिए जो मन में रोमान्टिक कल्पनाएँ होती हैं वे चूर चूर न होतीं।

मुझे तो माता पिता, व समाज उस स्त्री के कष्ट के लिए उस कमजोर पुरुष से अधिक उत्तरदायी लगते हैं।
यदि आपको समलैंगिकों से सहानुभूति नहीं है तो भी उनसे धोखे, अज्ञान में विवाह करने वाले अभागों को इस दुर्भाग्य से बचाने के लिए ही सही हमें, आपको, समाज को समलैंगिकों को अपनी तरह, अपने जैसों के साथ जीने का अधिकार देना होगा।

घुघूती बासूती

20 comments:

  1. न मालुम कितने ऐसे दम्पति समाज में होते हैं।दोनों संत्रास के शिकार।सामाजिक हकीकात के दर्द को सगुण रूप से आपने रखा,आभार।

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज शुक्रवार (13-12-13) को "मजबूरी गाती है" (चर्चा मंच : अंक-1460) पर भी है!
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. समाज और न्याय को इस ओर संवेदनशील होना चाहिए । विचारणीय लेख ।

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  4. a well written post mam , when u have time please see http://tsdaral.blogspot.in/2013/12/blog-post_12.html
    and if u will permit me i would like to repost this post as is on naari blog woth back link to ur blog
    please email me acceptance

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  5. लोग सामजिक धार्मिक रूप से इसका जितना चाहे विरोध करे ठीक है उनकी मर्जी किन्तु इसे क़ानूनी अपराध कि श्रेणी में तो नहीं ही रखना चाहिए ।

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  6. अपराध तो नहीं ही होना चाहिए ... वो भी क्रिमिनल ओफेन्स ... समझ से परे है ये ... हर किसी को दूसरे की भावनाओं का सामान करना चाहिए ...

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  7. कुछ लोगों से इतनी लम्बी बात करके भी उनकी सोच नहीं बदल पाया. जब तक अपने परिवार, मित्रों में स्वयं अनुभव नहीं होगा, शायद उन्हें बदल नहीं पायेंगे. पर इस बहाने इस विषय पर जो बात हो रही है, वह अच्छी बात है.

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    1. समस्या यही है - जो खुद को नहीं हुआ उसे संभव मानते ही नहीं, और जो खुद को हुआ उसके अलावा कोई सत्य स्वीकार नहीं करते।

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  8. समस्या का संवेदनशील पक्ष प्रस्तुत किया है .
    लेकिन यह समस्या हकीकत मे बहुत कम लोगों की होती है . बाकी तो सब मौज मस्ती कर रहे हैं जी .

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    1. डॉ टी एस दराल जी, कुछ रोग हैं जो संसार में बहुत कम लोगों में पाए जाते हैं. कुछ तो केवल एक दो हजार या एक दो लाख में. दवा कम्पनियां उनके लिए दवा खोजने का कष्ट नहीं करतीं. किन्तु आशा करती हूँ कि डॉक्टर तो सीमित दवाओं व सीमित जानकारी होने पर भी मरीज की सहायता करते ही होंगे. या कि कम को कष्ट है सोच जाने देते होंगे?

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  9. वैयक्तिक सामाजिक समस्या को कानूनी दायरे से बाहर ही रखा जाए। अध्यादेश लाया जा रहा है। समलिंगी वोट जो कराये सो कम।

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  10. एक लड़की की ज़िन्दगी तो बरबाद हो गयी ...और ऐसे न जाने कितने रिश्ते दबे घुटे...घिसटते हुए चल रहे होंगे. मुश्किल है कि चुपचाप सबकुछ सहते रहे कोई तो उपरी तौर पर सब कुशल-मंगल है...पर जब ये बातें सामने आती हैं तो सब मानने से इनकार करने लगते हैं कि ऐसा कुछ तो कभी था ही नहीं.

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  11. पसंद अपनी-अपनी, किन्तु अपाकृतिक।

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  12. मानव संबंधों की जटिल स्थिति

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  13. निष्पक्ष रहकर अपनी बात कहने (और समझाने) का आपका एक अलग अंदाज़ है जो इस आलेख में फिर उभरकर सामने आया है।

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  14. Manushya prakriti se ladaa hai, jab sooraj doob kar andhera kar deta hai, to aadmi pair pasaar kar so nahin jata, usne light izaad kee hai. sardi, garmi, barsaat sab prakritik hai, lekin aadmi inse bachne ke upaay karta hai. To kewal yahin "prakritik"hone ka aagrah kyon?

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  15. संबंधो की जटीलता ....... उफ़्फ़ !

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  16. इस विषय पर आपके विचार पढ़ कर ताज़गी का अहसास हुआ। हैरानी यह है कि हमसे अगली पीढी के कुछ लोग भी इस विषय में अज्ञानता पाले हैं।

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  17. बुरा न लगे तो इस विषय पर अपने लेख की कड़ी भी "पेल" दूँ? http://kaulonline.com/chittha/2013/12/377-par-7-tark/

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