Saturday, May 25, 2013

चाहतों का बोनसाई


चाहतों का बोनसाई

चाहतों का इक नन्हा सा पेड़
कभी उगाया था बगीचे में अपने,

नित सुनाती लोरी उसे स्वप्नों की
मैं नित दे रही थी पानी पसीने का
डालती थी खाद मैं मुस्कानों की
जब गिरता पवन के झौंको में
तो टेक लगाती अपनी अपेक्षाओं की
चट करने जो आता कीट तो डालती
कीटनाशक अपनी आकांक्षाओं का।

अभी तो उसने ढंग से
जड़ भी न पकड़ी थी
फैलाकर अपनी पत्तों की बाँहें
इक अंगड़ाई भी न ली थी,
मेरी चाहतों के पौधे में
अभी तो न खिले थे फूल, न
फल लगे थे मेरी चाहतों के।

अभी तो उसे यह अनुमान भी
न होने पाया था कि कितनी
फैल सकती शाखाएँ मेरी चाहतों की
कितनी घनी छाँव दे सकती हैं वे
या कितने फूल जड़े जा सकते हैं
मेरी चाहतों के हर रंग में, या
मीठे फल दे सकता था वह
मेरी चाहतों का नन्हा वृक्ष।

इक दिन आ गया राजसी आदेश
जाना होगा तुम्हें देश से विदेश
बाँध लो पोटली में अपना घर,
समेट लो अपना नाता रिश्ता हर
ताला बंद करो जीवन व चाहतें
और समेट लो धरती अपनी
सिकोड़ो, बाँधों अपना आकाश।

चाहतों का जो था नन्हा सा पेड़
उखाड़ा समेटा उसे इक गमले में
सीमाएँ निर्धारित करीं जड़ों टहनियों की
उसके फैलाव, पत्तियों, खाद, पानी की
जब भी बढ़ती टहनियाँ उसकी
आ जाता फिर वही आदेश
समेटो, जाना है यहाँ या वहाँ
काट छाँट कर छोटी कर देती मैं शाखें
जब तब कतर देती मैं जड़ों के जाले को।

अब देता है छोटे फूल, फल
और छोटी सी ही जब छाँव वह
वृक्ष बनना था चाहतों का जिसने
बन गया है वह इक बोनसाई
समेटने का दिया आदेश जिसने
तले छाँव उसकी सुस्ताना चाहते हैं
वे ही पूछते हैं अब मुझसे
क्यों उपजाए अपनी चाहतों के
तुमने इतने छोटे फूल, फल
कैसे सिकुड़ा तुम्हारा आकाश।

घुघूती बासूती

17 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा आज शनिवार (25-05-2013) छडो जी, सानु की... वडे लोकां दियां वडी गल्लां....मुख्‍़तसर सी बात है..... में "मयंक का कोना" पर भी है!
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. @ कैसे सिकुड़ा तुम्हारा आकाश ...

    - ओह। प्रिय सकुशल हो, नज़रों के सामने, यह भी बड़ी नियामत है। छोटी सी ज़िंदगी में भी बड़े समझौते है। जिनके लिए हैं, उन्हें दिखें यह ज़रूरी भी नहीं। :(

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  3. जड़ों से उखड़कर
    मुर्झाती हैं चाहतें
    सिकुड़े आकाश के तले
    वृक्ष हो जाते हैं
    बोनसाई।

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  4. सच है चाहतों के वृक्ष को बोन्साई ही बनाना पड़ता है नहीं तो शायद अस्तित्व ही न रहे ।

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  5. क्यों उपजाए अपनी चाहतों के
    तुमने इतने छोटे फूल, फल
    कैसे सिकुड़ा तुम्हारा आकाश।
    ..जितनी छोटी चाहत उतनी बड़ी राहत ..

    बहुत सुन्दर रचना

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  6. वे ही पूछते हैं अब मुझसे
    क्यों उपजाए अपनी चाहतों के
    तुमने इतने छोटे फूल, फल
    कैसे सिकुड़ा तुम्हारा आकाश।

    बोनसाई के बिंब से मानव मन की पूरी व्यथा कथा उंडॆल दी आपने, बहुत शुभकामनाएं.

    रामराम.

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  7. चाहतों का जो था नन्हा सा पेड़
    उखाड़ा समेटा उसे इक गमले में
    सीमाएँ निर्धारित करीं जड़ों टहनियों की
    उसके फैलाव, पत्तियों, खाद, पानी की
    जब भी बढ़ती टहनियाँ उसकी
    आ जाता फिर वही आदेश
    समेटो, जाना है यहाँ या वहाँ
    काट छाँट कर छोटी कर देती मैं शाखें
    जब तब कतर देती मैं जड़ों के जाले को।.............बहुत सुन्दर रचना

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  8. Ye to hamaree gatha suna dee aapne...muddaton baad aapke blogpe ana achha laga!

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  9. बोनसाई के साथ मानव स्वयं सिकुड़ने लगा ।

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  10. काफी लम्बे समय के बाद आप के भाव पढ़ने को मिले. वैसे तो दुनिया अब बहुत छोटी हो गयी है.

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  11. वृक्ष बनना था चाहतों का जिसने
    बन गया है वह इक बोनसाई
    इस दर्द को कैसे कहें/सहें
    बेहतरीन भाव

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  12. बहुत कुछ संजोए हुए है अपने में ये रचना...इसका नाम ही इतना आकर्षक लगा...कि पढ़ने का जी चाहा...
    धन्यवाद!
    ~सादर!!!

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  13. सचमुच.. मजा आ गया.. सार्थक रचना..

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  14. नियन्त्रण कर सकने की चाह में हम अपनी चाहतों को बोन्साई बनाये रखते हैं।

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  15. हम यह क्यों न समझे कि यह बोनसाई उस विराट की ही प्रतिकृति है !

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  16. बहुत सुन्दर रचना

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