चाहतों का बोनसाई
चाहतों का इक नन्हा सा पेड़
कभी उगाया था बगीचे में अपने,
नित सुनाती लोरी उसे स्वप्नों की
मैं नित दे रही थी पानी पसीने का
डालती थी खाद मैं मुस्कानों की
जब गिरता पवन के झौंको में
तो टेक लगाती अपनी अपेक्षाओं की
चट करने जो आता कीट तो डालती
कीटनाशक अपनी आकांक्षाओं का।
अभी तो उसने ढंग से
जड़ भी न पकड़ी थी
फैलाकर अपनी पत्तों की बाँहें
इक अंगड़ाई भी न ली थी,
मेरी चाहतों के पौधे में
अभी तो न खिले थे फूल, न
फल लगे थे मेरी चाहतों के।
अभी तो उसे यह अनुमान भी
न होने पाया था कि कितनी
फैल सकती शाखाएँ मेरी चाहतों की
कितनी घनी छाँव दे सकती हैं वे
या कितने फूल जड़े जा सकते हैं
मेरी चाहतों के हर रंग में, या
मीठे फल दे सकता था वह
मेरी चाहतों का नन्हा वृक्ष।
इक दिन आ गया राजसी आदेश
जाना होगा तुम्हें देश से विदेश
बाँध लो पोटली में अपना घर,
समेट लो अपना नाता रिश्ता हर
ताला बंद करो जीवन व चाहतें
और समेट लो धरती अपनी
सिकोड़ो, बाँधों अपना आकाश।
चाहतों का जो था नन्हा सा पेड़
उखाड़ा समेटा उसे इक गमले में
सीमाएँ निर्धारित करीं जड़ों टहनियों की
उसके फैलाव, पत्तियों, खाद, पानी की
जब भी बढ़ती टहनियाँ उसकी
आ जाता फिर वही आदेश
समेटो, जाना है यहाँ या वहाँ
काट छाँट कर छोटी कर देती मैं शाखें
जब तब कतर देती मैं जड़ों के जाले को।
अब देता है छोटे फूल, फल
और छोटी सी ही जब छाँव वह
वृक्ष बनना था चाहतों का जिसने
बन गया है वह इक बोनसाई
समेटने का दिया आदेश जिसने
तले छाँव उसकी सुस्ताना चाहते हैं
वे ही पूछते हैं अब मुझसे
क्यों उपजाए अपनी चाहतों के
तुमने इतने छोटे फूल, फल
कैसे सिकुड़ा तुम्हारा आकाश।
घुघूती बासूती
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा आज शनिवार (25-05-2013) छडो जी, सानु की... वडे लोकां दियां वडी गल्लां....मुख़्तसर सी बात है..... में "मयंक का कोना" पर भी है!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
@ कैसे सिकुड़ा तुम्हारा आकाश ...
ReplyDelete- ओह। प्रिय सकुशल हो, नज़रों के सामने, यह भी बड़ी नियामत है। छोटी सी ज़िंदगी में भी बड़े समझौते है। जिनके लिए हैं, उन्हें दिखें यह ज़रूरी भी नहीं। :(
जड़ों से उखड़कर
ReplyDeleteमुर्झाती हैं चाहतें
सिकुड़े आकाश के तले
वृक्ष हो जाते हैं
बोनसाई।
सच है चाहतों के वृक्ष को बोन्साई ही बनाना पड़ता है नहीं तो शायद अस्तित्व ही न रहे ।
ReplyDeleteक्यों उपजाए अपनी चाहतों के
ReplyDeleteतुमने इतने छोटे फूल, फल
कैसे सिकुड़ा तुम्हारा आकाश।
..जितनी छोटी चाहत उतनी बड़ी राहत ..
बहुत सुन्दर रचना
वे ही पूछते हैं अब मुझसे
ReplyDeleteक्यों उपजाए अपनी चाहतों के
तुमने इतने छोटे फूल, फल
कैसे सिकुड़ा तुम्हारा आकाश।
बोनसाई के बिंब से मानव मन की पूरी व्यथा कथा उंडॆल दी आपने, बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
ReplyDeleteचाहतों का जो था नन्हा सा पेड़
उखाड़ा समेटा उसे इक गमले में
सीमाएँ निर्धारित करीं जड़ों टहनियों की
उसके फैलाव, पत्तियों, खाद, पानी की
जब भी बढ़ती टहनियाँ उसकी
आ जाता फिर वही आदेश
समेटो, जाना है यहाँ या वहाँ
काट छाँट कर छोटी कर देती मैं शाखें
जब तब कतर देती मैं जड़ों के जाले को।.............बहुत सुन्दर रचना
Ye to hamaree gatha suna dee aapne...muddaton baad aapke blogpe ana achha laga!
ReplyDeleteबोनसाई के साथ मानव स्वयं सिकुड़ने लगा ।
ReplyDeleteकाफी लम्बे समय के बाद आप के भाव पढ़ने को मिले. वैसे तो दुनिया अब बहुत छोटी हो गयी है.
ReplyDeleteवृक्ष बनना था चाहतों का जिसने
ReplyDeleteबन गया है वह इक बोनसाई
इस दर्द को कैसे कहें/सहें
बेहतरीन भाव
बहुत सुंदर
ReplyDeleteएक बार अवश्य देखें- तौलिया और रूमाल
बहुत कुछ संजोए हुए है अपने में ये रचना...इसका नाम ही इतना आकर्षक लगा...कि पढ़ने का जी चाहा...
ReplyDeleteधन्यवाद!
~सादर!!!
सचमुच.. मजा आ गया.. सार्थक रचना..
ReplyDeleteनियन्त्रण कर सकने की चाह में हम अपनी चाहतों को बोन्साई बनाये रखते हैं।
ReplyDeleteहम यह क्यों न समझे कि यह बोनसाई उस विराट की ही प्रतिकृति है !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना
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