अभी अपनी खिड़की से बाहर का दृष्य देखते हुए मेरा मन उस पर लिखने को हुआ। लिखने के लिए की बोर्ड पर हाथ लगाते ही पिछले मकान याने नवीं मुम्बई की एक ऐसी ही शाम याद आ गई और याद आ गई एक बच्ची से की गई बातचीत।
नवीं मुम्बई की उस हाउसिंग सोसायटी में चारों तरफ कार पार्क करने की जगह थी जहाँ जब तक लोग काम से लौटकर नहीं आते थे सैर करने को व बच्चों के खेलने के लिए काफी जगह रहती थी। साथ में ही सोसायटी का बगीचा भी था जहाँ चारों तरफ चलने के लिए रास्ता भी दिया था। लॉन, काफी सारे पेड़, फूलों की झाड़ियाँ, क्यारियाँ, बेलें, बैठने को एक सुन्दर चबूतरे के नीचे बेंच। सुबह सुबह जाने पर तो कई गौरेय्या भी यहाँ वहाँ घास पर फुदकती मिल जाती थीं। कुल मिलाकर शहर के लिहाज से वहाँ सैर करना अच्छा लगता था।
मैं लगभग हर शाम वहाँ घूमती थी। पति को मुम्बई से दफ्तर से आने में बहुत समय लग जाता था। मैं घूमते हुए समय भी काटती व वजन भी। वहाँ कुछ बच्चे खेलते, कुछ सायकल चलाते और कुछ किशोरियाँ खेलने कूदने की बजाय मेरी तरह सैर करतीं। इन सबके अलावा लगभग दस वर्ष की एक छोटी लड़की भी थी जो खेलने की बजाए जिस किसी के साथ सैर करती। उसके पिता व चाचा की दुकानें थीं, जिनमें से एक का उद्घाटन कुछ समय पहले ही हुआ था। सोसायटी के सभी परिवारों को पूजा, दोपहर के भोजन आदि के लिए बुलाया गया था। यह बात और थी कि वहाँ पहुँचने पर उस संयुक्त परिवार की एक भी महिला मुझे व मेरी पड़ोसिन को ढूँढे से नहीं मिली। मैं तो नई थी, मेरी पड़ोसिन ही मुझे बुलाकर साथ ले आई थी सो वह काफी लज्जित हुई और हम उनके भगवान जी व घर के दो तीन पुरुषों को नमस्ते कर घर लौट आए थे।
एक शाम वह लड़की भी मेरे साथ चलने लगी। चार चक्कर लगाने के बाद वह मुझसे बतियाने लगी।
'आँटी आप कौन से फ्लोर पर रहती हैं?'
'१२'
'आँटी आप अकेले क्यों सैर करती हैं?'
मैंने उसकी तरफ देखा, कोई उत्तर नहीं दिया। देने से पहले ही उसने अगला प्रश्न पूछ लिया।
'आप अकेली रहती हैं?'
'नहीं। मेरे पति साथ में रहते हैं।'
'आपके बच्चे नहीं हैं।'
'हैं।'
'तो वे आपके साथ क्यों नहीं रहते?'
'वे दूसरे शहर में रहते हैं।'
'क्यों?'
'उनका काम वहाँ है।'
'हमारी दादी कहती हैं कि सबको साथ रहना चाहिए।'
'सही कहती हैं।'
'फिर आपके बेटे क्यों साथ नहीं रहते।'
'मेरी बेटियाँ हैं।'
'तो वे अपने ससुराल में रहती हैं।'
'नहीं, अपने घर में।'
'सास से अलग।'
'सास अलग शहर में रहती हैं।'
वह थोड़ी देर सोचती रही।
'सब लोग एक दुकान में काम नहीं करते?'
'नहीं।'
मैं थोड़ी सी चौंकी क्योंकि दुकान में काम करना जरा विचित्र सा लगा। मैंने विज्ञान में वर्षों से डूबी व रिसर्च करती अपनी बिटिया व दफ्तर में काम करती दूसरी बिटिया की जब किसी दुकान, विशेषकर उस बच्ची के परिवार की तरह टाइल्स की दुकान में कल्पना करी तो मैं असहज हो गई। मैं बुदबुदाई........
'बेटियाँ दुकान में काम नहीं करतीं।'
वह हँसकर कहती है..
'हाँ, आँटी दीदियाँ दुकान में काम थोड़े ही करती हैं। वे तो घर में रहती होंगी। नहीं? दुकान में तो आपके कुँवर सा,(मुझे देखती है कि शायद मैं समझी नहीं और समझाते हुए कहती है ) मतलब जीजाजी लोग काम करते होंगे।'
'नहीं, वे भी नहीं।'
वह कुछ देर चुप रही। दो चक्कर हम चुपचाप चले। उसे शायद चुप रहना पसन्द नहीं या फिर मेरा साक्षात्कार अधूरा था।
'अंकल कब आते हैं?'
'वे देर से आते हैं।'
'क्यों?'
'उनका दफ्तर बहुत दूर है।'
वह ऐसे देखती है जैसे समझती नहीं। कुछ सोचती है।
'आँटी अंकल की दुकान कहाँ है?'
'उनकी दुकान नहीं है।'
'अरे! फिर?'
'फिर कुछ नहीं, उनकी दुकान नहीं है।'
'ओहो, तो वे हमारे नौकर लाखा और जयमल की तरह औरों की दुकान में काम करते हैं?'
मैं निःशब्द। उससे यह भी नहीं पूछती कि वह किस कक्षा में पढ़ती है। पूछने का कोई अर्थ भी नहीं बचता क्योंकि उसने कौन सा दुकान में काम करना है और हिसाब रखना है।
बात वह सही कह रही थी, मेरे पति, पुत्रियाँ व जवाईं सच में लाखा व जयमल की तरह औरों की दुकानों में ही तो काम करते हैं, चाहे वे दुकानें बड़े कारखानों के दफ्तर हों या मल्टीनेशनल्स के बड़े बड़े दफ्तर हों, या भारत के शीर्ष के अनुसन्धान केन्द्र! हैं तो वे किसी और की दुकानें ही।
वह शरीर से रहती चाहे मुम्बई, नवीं ही सही, में थी, किन्तु .....
इतने में एक कार रुकी और ढेरों सामान के साथ सर पर पल्लू डाले तीन महिलाएँ कार से उतरीं। वह मम्मी मम्मी, दादी दादी कहती हुई कूदती फाँदती उनके पास, संयुक्त परिवार की स्त्रियों के पास, शायद कुछ और उपयोगी जीवन मूल्य सीखने चली गई। हवा में बस कुछ प्रश्न बहते हुए रह गए.....
'आँटी अंकल की दुकान कहाँ है?'
'ओहो, तो वे हमारे नौकर लाखा और जयमल की तरह औरों की दुकान में काम करते हैं?'
'हाँ, आँटी दीदियाँ दुकान में काम थोड़े ही करती हैं। वे तो घर में रहती होंगी। नहीं?'
घुघूती बासूती
Friday, October 21, 2011
अंकल की दुकान कहाँ है?
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ओह! के बाद इस पोस्ट को पढ़कर आह! ही नकलिती है। देखने, सुनने और एहसास करने की बातें हैं। कितना सच बिखरा प़ड़ा है चारों ओर! कभी बच्चे की तोतली जुबान में तो कभी झरते पत्तों में।
ReplyDelete..दिल को छूती, सोचने पर विवश करती यह पोस्ट भी पाठकों के दिलो दिमाग को मथेगी। आह! पर बधाई देने का मन नहीं हो रहा है।
आशा है,दस साल की वह बच्ची...जैसे जैसे बड़ी होती जायेगी... उसके सामने एक नई दुनिया खुलेगी...जहाँ वह देखेगी कि औरतें भी सिर्फ सर पर पल्लू रख खाना ही नहीं पकाती..बल्कि घर से बाहर निकल कर काम भी करती हैं.
ReplyDeleteपर ये टी.वी. सीरियल्स उन्हें किसी नई दुनिया तक पहुँचने दें तब न ....चैनल सर्फ़ करते समय...जब भी किसी सीरियल की झलक दिखे...जेवर से लदी ....सर पर पल्लू संभाले औरतें...या तो घर वालों की सेवा में लगी होती हैं या फिर आँसू बहाती रहती हैं. इन नन्ही जानों पर इसका बहुत असर पड़ता है...जो अपने घर में भी यही देखती हैं और...अपनी माँ-दादी के साथ टी.वी. पर भी यही सब देखती हैं.
निकलती
ReplyDeleteजी हाँ पराधीनता की जंजीर पहने हम जीवन बिता देते हैं -खुद की अपनी दुकान नहीं होती !
ReplyDelete'नौकरी' शब्द में ही 'नौकर' विद्यमान है :)
ReplyDeleteगनीमत है कि हम प्राइवेट नौकर नहीं हैं। सरकारी नौकर होने से कुछ और भ्रम बना रहता है।
ReplyDeleteबच्ची ने बहुत सच्ची और बड़ी बात कह दी। आपकी पारखी दृष्टि के क्या कहने...!
उस बच्ची ने सच ही तो कहा है. हाँ गलती से "अकल की दूकान" पढ़ ली थी - हमारी अकल ठिकाने लगा जो गयी.
ReplyDeleteहवा में बस कुछ प्रश्न बहते हुए रह गए.....
ReplyDeleteदुनिया में दो तरह के ही लोग हैं। एक वे जो खुद का काम करते हैं और दूसरे वे जो औरों के लिए काम करते हैं। यह सच कितनी अच्छी तरह सीखा है उस लड़की ने। उस ने अपना पैमाना बना लिया है। अब वह उसी पैमाने पर इंसानों को तोलती रहेगी। शायद जीवन भर।
ReplyDeleteबच्चे जिस जगह रहते है उन पर उन चीजो का बहुत असर होता है वो जो आस पास देखते है उनके लिए सारी दुनिया वैसे ही होती है | ऐसे ही बच्चियों के मन में ये समां जाता है की उन्हें भी बड़ा हो कर बस विवाह करना है और घर में काम करना है इससे ज्यादा वो अपने लिए कोई सपने देख ही नहीं पाती है वैसे अच्छा भी है न देखे सपने पापा उनकी तो दुकान खुलवाने से रहे |
ReplyDeleteहम लोग भी तो सरकार की दूकान के ही मुलाजिम हैं।
ReplyDeleteएक छोटी सी बच्ची बड़ी सी सीख दे गई.
ReplyDeleteइस नादान बच्ची की बात सुनकर एक और बच्चे की कुछ ऐसी ही बातें याद आ गयीं।
ReplyDeleteहम भी दुकान में ही काम करते हैं, आखिर हैं तो नौकर ही, भले ही कैसे भी और कितने अच्छे से रह लें ।
ReplyDeleteआप उस छोटी बच्ची की बात कर रही हैं और मैं मेरी पढी-लिखी डाक्टर बहु के बारे में बताती हूं। वह भी व्यावसायी परिवार से है। एक दिन मुझसे मेरे पिताजी का इतिहास पूछने बैठ गयी। मैंने उसे बताया कि मेरे पिताजी के परिवार में कपडे की दुकान थी लेकिन वे जिद करके दिल्ली पढने चले गये। फिर उन्होंने नौकरी की। तो उसका उस छोटी बच्ची जैसा की मासूम प्रश्न था तो उन्होंने अपने घर की दुकान छोड़कर दूसरे की दुकान पर नौकरी कर ली। मैं उस समय केवल हंस दी, इसके अलावा और कोई चारा नजर नहीं आया।
ReplyDeleteउस लड़की के निश्छल प्रश्न --अजीब सवाल खड़े करते है ! काश हम इतने ही निश्छल होते ! सुन्दर सुन्दररण
ReplyDeleteबच्चों के सीधेपन में कहाँ फिट बैठती है दुनियादारी।
ReplyDeleteबातें......... निकलती हैं तो बहुत कुछ याद दिला जाती है...
ReplyDelete.
ReplyDelete.
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सही तो कहा उसने, या तो आप खुद ही दुकान के मालिक हैं या फिर लाखा-नथमल...
मुझे अपनी आमा याद आ रही है...
वह कहा करतीं थी...
उत्तम खेती
मध्यम बान (स्वयं का बिजनेस)
तृतीय चाकरी (नौकरी)
भीख निदान !
...
हमारे ज्ञानी-ध्यानी पूर्वज इस संसार को ही मिथ्या बता गए, एक बाज़ार जहां झूट ही बिकता है...
ReplyDeleteकभी कभी छोटे बच्चे भी कितना बडा सच बोल देते हैं । हम फूले नही समाते कि बेटे या बेटी को इतना बडा डॉक्टर या इंजीनियर या मैनेजर बना दिया ।
ReplyDeleteबच्चे अक्षरश: सच बोलते हैं सहज और सरल हृदय.
ReplyDeleteहा हा, हम भी सरकारी की दुकान में नौकर हैं।
ReplyDeleteबहुत ही रुचिकर प्रस्तुति। आपकी लेखन शैली पठनीय है।
"उसे शायद चुप रहना पसन्द नहीं या फिर मेरा साक्षात्कार अधूरा था।"