Monday, November 08, 2010
बिन धुँआ, बिन धमाका, हरियाली सी इक दीवाली
इस बार की दीवाली बहुत बहुत वर्षों बाद हमने अपने बच्चों के साथ मनाई। यह दीवाली तो उनके साथ के कारण ही विशेष हो गयी थी किन्तु और भी बहुत सी विशेषताएँ व खुशियाँ भी इसके साथ थी। पहली बार दोनो जवाईं भी दीवाली हमारे साथ मना रहे थे। दोनो बेटियों के नये घरों में यह पहली दीवाली थी। हम पहली बार उनके ये घर देख रहे थे। उनके घर के साथ साथ नया फ़र्नीचर, नयी सजावट व उनके याने दोनों दम्पत्तियों के व्यक्तित्व की छाप उनके घरों में देख रहे थे। मन तो इन सब बातों से ही खुश था। किन्तु एक नयी बात और हुई। हमने 'बिन धुँआ, बिन धमाका, हरियाली सी इक दीवाली' मनाई।
मुझे सदा से पेड़ पौधों से बहुत लगाव रहा है। सारा जीवन बड़े बगीचों वाले घरों में बिताया है। जब मुम्बई बदली हुई तो अपने कुछ पौधे व बोन्साई भी अपने साथ ले गयी थी। बच्चियों में भी यह वनस्पति प्रेम है। छोटी बेटी तो अपनी बिल्लियों के कारण पौधे नहीं लगा सकती किन्तु बड़ी बहुत समय से मेरे साथ मिलकर गमले व पौधे खरीदना चाहती थी। सो इस दीवाली से पहले दिन मेरा जवाँई व मैं कुछ गमले व पौधे खरीद लाए और बिटिया का घर आँगन उसके घर लौटने से पहले ही सजा दिया। जब वह शाम को घर लौटी तो इतनी खुश हुयी कि निश्चय हुआ कि अगले दिन याने दीवाली के दिन और गमले खरीदे जाएँगे। और इस दीवाली पटाखों की जगह हम गमले व पौधे खरीद रहे थे। सुन्दर सुन्दर फूल वाले छोटे पौधे लटकने वाले गमलों में लगाये गये। कुछ बैठक में सजाए गये।
इस विषय पर एक लेख तो मैंने दीवाली के दिन ही लिख लिया था किन्तु बिटिया की लोटपोट( लैपटौप)पर हिन्दी कलम डौट कौम का उपयोग कर लिखा था, सुरक्षित करती कि उससे पहले ही उसे खो बैठी। किन्तु अब यह भी बता सकती हूँ कि यहाँ बहुत बड़ी हाउसिंग सोसायटी होने के कारण बहुत बढ़िया प्रबन्ध किया गया। सोसायटी ने चन्दा लेकर बहुत गजब का पटाखों व आतिशबाजियों का प्रबन्ध किया था। हम अपने आँगन व बाद में छत से ही उसका आनन्द लेते रहे। यदि पटाखे बजाने ही हों तो यह तरीका बेहतर है। अलग अलग लोग पटाखे खरीदें उससे यह अधिक सही है।
आज ही अली जी का लेख 'देख तो दिल कि जां से उठता है ये धुआं सा कहां से उठता है ?' पढ़ा। उन्हें पटाखों के शोर व धुँए से परेशानी है। सच कहूँ तो मुझे पटाखे बहुत पसन्द थे। खूब बजाती थी व आस पास के घरों के बच्चों से भी अपने घर पर ही बजवाती थी। बच्चों की सुरक्षा के लिये लम्बे डंडों में चाकू से एक कट लगाती थी। फिर उसपर पटाखा या मोमबत्ती या अगरबत्ती फ़ंसाती थी व अपनी निगरानी में अपने बच्चों के साथ आस पास के बच्चों की भी लाइन लगा बारी बारी एक लोहे के ऊँचे स्टूल पर रखे पटाखे या अनार को कम से कम चार फ़ुट की दूरी से बजवाती थी और स्वयं भी खूब बजाती थी। तब ना प्रदूषण की इतनी समस्या हुई थी, ना शिवकाशी के बच्चों की स्थिति के बारे में पता था, ना ही बीमार, वृद्धों के कष्ट का ध्यान था। हम शहर से दूर रहते थे, घर दूर दूर थे, प्रदूषण देखा नहीं था, वृद्धो जैसे मेरे माता पिता व हमारे किसी पड़ोसी के घर आए उनके माता पिता हमारे साथ ही दीवाली का आनन्द ले रहे होते थे। यदि कोई अधिक बीमार होता तो हम दीवाली थोड़े ही मना रहे होते, हम मिलकर उसकी सेवा में लगे होते। किन्तु वह छोटी सी बस्ती का जमाना था, जहाँ सब साथ साथ खुशी या त्यौहार मनाते थे। सब पड़ोसी साथ होते थे।
अब जब शहर में हूँ, जब एक दशक से भी अधिक से शिवकाशी के बच्चे, प्रदूषण आदि के बारे में सोचना शुरू हुआ है तो पटाखे गायब होते गये हैं। और इस बार तो उनकी जगह पौधों ने ही ले ली। शायद मेरी मित्र रश्मि रवीजा भी जिन्होंने 'बारूद के ढेर में खोया बचपन' लेख लिखा है भी हमारी इस 'हरियाली सी इक दीवाली' को पसन्द करें। समय बदल गया है, समस्याएँ बढ़ गयी हैं, सो शायद खुशी मनाने के तरीक भी बदलने होंगे।
हाँ, हमने दीए भी जलाए थे।
घुघूती बासूती
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Paudhon se mujhe bhee bahut pyaar hai! Diwalee pe pataakhe na bajate hue to muddat ho gayee! Sirf diye jalte hain.Mai khudhee cuttings se apne paudhon me izaafa kartee rahtee hun.
ReplyDeleteबिलकुल सही किया आपने हमने और भी तो कई तौर तरीके बदल लिये हैं फिर ये समय की माँग भी है। आपको बहुत बहुत बधाई कि बच्चों के साथ दीपावली मनाई।
ReplyDeleteआतिशबाजी में पैसे फूँकने के बजाय उनसे पौधे खरीदने का आइडिया बहुत अच्छा है। पैसा खर्च करके अपने आसपास आग, ध्वनि और धुँआ का अस्थायी वातावरण रचने से बेहतर है कि स्थायी हरियाली को बढ़ाने का प्रयास हो। प्रेरक पोस्ट।
ReplyDeleteइस बार कोशिश की थी पर बेटी की इच्छा देख मना नहीं कर सका ! अगली बार कोशिश करूंगा ! अनुसरणीय कार्य व पोस्ट के लिए बधाई !
ReplyDeleteदीपावली मनाने का इससे बेहतरीन तरीका हो भी नहीं सकता.........पटाखों की जगह गमले. और फुल्झादियों की जगह फूल. .........काश !ऐसा हर देशवासी सोच पता और कर पाता.
ReplyDeleteबहुत प्रेरणादायक बात कही है ....शहरों में जहाँ सोसायटीज़ का चलन है वहाँ के लिए बहुत अच्छा विचार है ...और परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन भी ज़रूरी है ...बहुत पसंद आई यह हरियाली दीवाली
ReplyDeleteयह बात बहुत अच्छी लगी, चंदा करके आतिशबाजी की जाये।
ReplyDeleteघुघूती जी इतनी अच्छी लगी ये पोस्ट कि आँखें बार-बार भटक कर शब्दों से ज्यादा चित्रों से चिपक जा रही हैं...जितनी बार देखो,मन नहीं भरता...पौधों की हरियाली मन मोह ले रही है...इन पत्तों की हरियाली ऐसी ही बनी रहें और उन्हें देख, बिटिया के आँखों की चमक भी
ReplyDeleteकितनी सुन्दर यादें लिखी हैं..आपने, अपने पटाखे चलाने की...काश संयम और अनुशासन से पटाखे चलाये जाते और अपने पेडों की रक्षा की जाती तो हमारे बच्चों के पास भी ये यादें होतीं....ना कहीं बचपन झुलसता और ना ही बच्चे पटाखों का बहिष्कार करने को मजबूर होते
आंखों को राहत पहुंचाती हरयाली भरी पोस्ट ! पर्व पर आपका नया प्रयोग अनुकरणीय है ! कुछ लोग प्रकृति के विरुद्ध जाकर खुशियां मनाते हैं , आपने अनुकूलता का मार्ग चुना तो जितनी भी सराहना की जाये कम ही होगी !
ReplyDeleteप्रेरणादायक आलेख्।
ReplyDeleteअब लोग समझदार हो रहे हैं।
ReplyDeleteBilkul sahi deevali manayee apne .Patakhe to aadmi ke kroor ho jane ki nishani hain .Pracheen kaal me pradooshan ka sthan nahi thaa.
ReplyDeleteआपने बहुत अच्छा उदाहरण प्रस्तुत किया है ।
ReplyDeleteदीयों की रौशनी और पौधों की हरियाली के बीच दिवाली मनाने का आनंद ही कुछ और है ।
बधाई और शुभकामनायें ।
'हरियाली सी इक दीवाली'
ReplyDeleteकितनी सुन्दर!कितनी प्रेरणादायक !
बधाई और शुभकामनायें ।
बहुत सुन्दर .... इससे सुन्दर दीपावली क्या हो सकती है ?
ReplyDeleteबधाई
हरियाली का स्वागत और आतिशबाजी का मजा...वाह, क्या बात है!
ReplyDelete..दीवाली में आतिशबाजी का मजा ही कुछ और है..हरियाली का स्वागत हम तो बाकी 364 दिन करेंगे।
आपकी दीवाली मनाने का यह अन्दाज़ मुझसे अधिक श्रीमती जी को भाया।
ReplyDeleteघुघूती जी मेरी नजर में आप बहुत सौभाग्यशाली हैं की आपने धुंए , और धमाके से रहित हरीभरी दीपावली का अननद लिया. मैं तो दीपावली के सदमे से अभी तक नहीं उबर पाया हूँ. कभी दीपावली मेरा पसंदीदा त्यौहार होता था और आज मेरे लिए ये त्यौहार एक पीड़ादायक अनुभव से ज्यादा कुछ नहीं होता. पता नहीं हिन्दुओं में कब इतनी अक्ल आयेगी की वो इस दिन आतिशबाजी करना बंद करेंगे.
ReplyDeleteहमें समय के साथ हमारे खुशी मनाने के तरीके भी बदलने पड़ेंगे. पौधे और हरियाली ज़रूर एक अच्छा विकल्प है.
ReplyDeleteमनोज खत्री
bahut sahi kiya... Ghughuti basuti ko bhi to hariyali pasand hai... prayavaran kee raksha ke liye ye thos kadam hain.. duva baarood nahi chahun or khile hariyal..
ReplyDeletebahut sahi kiya... Ghughuti basuti ko bhi to hariyali pasand hai... prayavaran kee raksha ke liye ye thos kadam hain.. duva baarood nahi chahun or khile hariyal..
ReplyDeleteबच्चों के साथ हरियाली दीवाली मानाने की बहुत बहुत बधाई|
ReplyDeleteहरियाली की दीवाली ही सही है. बधाईयाँ.
ReplyDeleteवाह....
ReplyDeleteमन प्रसन्न कर दिया आपकी इस पोस्ट ने....
ईश्वर करें मनुष्यमात्र के मन में यही भाव हों और लोग प्रकृति पर्यावरण के प्रति संवेदनशील होकर इसी प्रकार दीवाली/अन्य पर्व मनाएं...
न शोर न प्रदूषण और न दुर्घटना का डर - इससे अच्छी दीवाली कैसी होगी?
ReplyDeleteमान्यवर
ReplyDeleteनमस्कार
बहुत सुन्दर
मेरे बधाई स्वीकारें
साभार
अवनीश सिंह चौहान
पूर्वाभास http://poorvabhas.blogspot.com/