परसों की मेरी पोस्ट पर एक युवा मित्र ने मुझे सुझाव दिया है कि मैं अपनी कलम का रुख बदल दूँ। उनका कहना है कि स्त्रियों को लेकर मेरी कलम एक तरफ ही चलती है। उनका सुझाव है कि मुझे स्त्रियों के शरीर को अधिक ढकने के लिए कुछ करना चाहिए। गर्मी की भरी दुपहरी उनके शरीर का पूरा ढका न होना मित्र को कष्टप्रद लगता है। यदि वे अपने शरीर को गरीबी के कारण नहीं ढक पा रहीं तो यह चिन्ता का विषय है किन्तु यह चिन्ता सर्दियों में अधिक सही होगी। यदि यह उनकी पसन्द का मामला है तो मैं इस 'स्त्री को अधिकाधिक वस्त्र पहनाओ' आन्दोलन से नहीं जुड़ सकती। मेरे लिए यह महत्वपूर्ण तो क्या कोई मुद्दा ही नहीं है। मुद्दे ही ढूँढने हैं तो और ढेरों हैं।
एक और बात, मैं न तो धर्म( religion) के अनुसार चलती हूँ , न मैं कोई काम आँख मूँदकर इसलिए करती हूँ कि कोई संस्कृति यह कहती है। यदि मैं किसी बात को ठीक समझती हूँ तो अवश्य करती हूँ, यदि मेरा कोई प्रिय मुझसे कुछ करवाना चाहे तो यदि उससे मेरे किसी विश्वास या नैतिकता पर आँच नहीं आती तो मैं कर लेती हूँ। जिस संस्कृति का मुझपर थोड़ा बहुत प्रभाव पड़ा है उस संस्कृति में कपड़े केवल कपड़े होते हैं, अच्छाई या नैतिकता या धर्म का कोई तमगा नहीं। इसके अनुसार सब लोग, कबीले आदि अपनी सुविधानुसार, अपने प्रदेश के जलवायु व जीवनोपार्जन के साधनों के अनुसार कपड़े पहनते हैं या कम से कम पहनते थे। वे कपड़े किसी दूर देश जन्मे किसी नैतिकता या धर्म का दर्शन सिखाने वाले के कहे अनुसार नहीं पहनते थे। अब आज यह चलन हो गया है कि सब लोग किसी एकदम अलग जलवायु, वातावरण, परिस्थितियों व जीवनोपार्जन के बिल्कुल अलग साधनों वाले देश में बने सदियों पहले के नियमों का कड़ाई से पालन करें तो मैं इस लड़ाई में विरोधी दल में ही रहूँगी। मुझसे सहायता की अपेक्षा न करें।
मैं जहाँ से आती हूँ याने उत्तराखंड, वहाँ स्त्रियाँ किसी गुड़िया की तरह लपेटकर अलमारी में नहीं सजाई जातीं। वे कठिन काम करती हैं। वे अपनी भैंसों के लिए जंगलों में घास काटती हैं, पेड़ों पर चढ़कर पत्ते तोड़ती या काटती हैं, खेतों में काम करती हैं, नौले(स्रोत)या नदी की धारा से पानी भरकर लाती हैं, दूध दुहती हैं, गोबर को खाद के गड्ढे में सम्भालती हैं,भैंस को नहलाती हैं,धान कूटती हैं,घर को गोबर से लीपती हैं। अब ये सब काम तो ऐसे नहीं हैं कि स्त्री ढेरों कपड़ों में लिपट कर करे। जैसे महाराष्ट्र में स्त्रियाँ लाँघ वाली साड़ी पहनकर ढेरों काम करती थीं (व हैं),इस बात से बेखबर कि उनकी टाँगों की पिंडलियाँ दिख रही हैं। जैसे मेरी कामवाली काम पर आते से ही साड़ी ऐसे खोंस लेती है कि वह घुटनों के ऊपर ही रह जाती है।
उत्तराखंड में सदियों से मेरे पूर्वज, स्त्री व पुरुष पूर्वज, एक धोती में खाना बनाते भी थे और खाते भी थे। खाना बनाने वाली घर की ही कोई स्त्री, बहू, माँ, भाभी,सास होती थी व जिन्हें वे खाना थाली में डालकर देती थीं वे उस घर के पुरुष भी होते थे जो ससुर, जेठ या देवर भी हो सकते थे। अब वे एक दूसरे को कितना घूर घूर कर देखते थे व एक दूसरे को नजरों में ही कितना नापते थे यह तो मैं नहीं जानती। किसके कितने अंग दिख रहे हैं या बिना अन्तःवस्त्रों(एक नान धोत अर्थात छोटी सी धोती अन्दर से तौलिए की तरह और लपेट ली जाती थी। ) के कितना अनुमान लगाया जा सकता है, इस कार्यक्रम से मैं बिल्कुल अनभिज्ञ हूँ। परन्तु वहाँ अराजकता थी या इतना नैतिक पतन हुआ कि लोग धरातल में चले गए ऐसा मैंने नहीं सुना। हाँ, यह अवश्य देखा है कि उस वातावरण में रही केवल दो कक्षा स्कूली शिक्षा पाई मेरी माँ के लिए हमारे कपड़े कभी भी मुद्दा नहीं बने और आज ८७ वर्ष की उम्र में भी नहीं हैं। उनकी अपेक्षा कुछ युवा मित्र वस्त्रों को लेकर यूँ चिन्तित हैं जैसे वस्त्र के लिए मनुष्य बना हो, वस्त्र मनुष्य के लिए नहीं। याद रहे कि इन्हीं स्त्रियों में इतना साहस था कि इन्होंने चिपको आन्दोलन चलाया था।
मेरी झारखंड में रहने वाली बंगला सहेली मीना की माँ भी गर्मियों भर ब्लाउज नहीं पहनती थी। वैसे वे कोई आदिवासी नहीं बंगला ब्राह्मण थीं। शायद बिगड़ने को वे कॉलेज तो क्या स्कूल भी नहीं गईं थीं। उड़ीसा , बंगाल, मध्य प्रदेश, झारखंड व सारे आदिवासी इलाकों में स्त्रियाँ कम से कम गर्मियों भर तो केवल एक धोती में रहती थीं। ब्लाउज नामक वस्त्र नहीं पहनती थीं। मुझे याद है कि एक युवा इन्जीनियर के माता पिता मध्य प्रदेश से आए। हम बच्चे यह देखकर दंग रह गए कि उच्च वर्ग की उनकी माताजी केवल धोती पहनती थीं पेटीकोट नहीं। तब माँ ने बताया था कि सन १९४३ के आस पास जब वे कटनी क्षेत्र में रही थीं तो अधिकाँश स्त्रियाँ ब्लाउज भी नहीं पहनती थीं। हो सकता है कि पेटीकोट भारतीय मूल का वस्त्र ही न हो। शायद हम अनसिले कपड़े ही पसन्द करते हों।
शायद इसीलिए मेरी जानकारी के अनुसार भारत में दर्जी कोई जाति ही नहीं है। जबकि राम के जमाने से ही रजक याने धोबी रहे हैं। हमारी संस्कृति में बहुत खुलापन था और हमें उस पर गर्व होना चाहिए। आप यदि १७०० या १८०० सन को भारतीय संस्कृति मानते हैं तो क्यों नहीं पीछे जाते? क्यों नहीं उस समय पर जाते जब भारत में विदेशी हमलावर नहीं आए थे? यदि समस्या है कि कितना पीछे जाएँ तो जाने दीजिए। चलिए आगे बढ़िए और जियो और जीने दो।
अब आप चाहें कि किसी सुदूर देश में बने कायदे कानून हम इसलिए मानें कि कुछ सदियों तक उन नियमों को मानने वालों ने हम पर शासन किया और उनके साथ रहने वाले शहरी लोग उनकी नकल कर स्वयं को भी शासक वर्ग से जोड़ने लगे तो मेरे लिए यह सम्भव नहीं है। मैं नकल भी तभी करूँगी और करती हूँ भी जब मुझे वह व्यवहार, वस्त्र आदि या तो सुविधाजनक लगें या भाएँ। यह कैसे सम्भव होगा कि इस कृषिप्रधान देश की, गाय भैंस पालने वाली स्त्रियाँ उनके वस्त्र पहनें जहाँ लीपने को कोई मिट्टी का फर्श तो क्या मिट्टी ही नहीं थी,लीपने को गोबर नहीं था, चढ़ने को पेड़ ही नहीं थे,काटने को घास ही नहीं थी,भरने को पानी भी कितना रहा होगा, कह नहीं सकती। कैसे तो वे जीते होंगे? शायद दूसरों के देशों पर कब्जा जमाकर या पता नहीं कैसे। किन्तु उनका रहनसहन, उनके मूल्य मैं क्यों अपनाऊँ। या फिर मैं उन विक्टोरियन मूल्यों या वस्त्रों को क्यों अपनाऊँ जो कभी यहाँ का नया शासक वर्ग पहनता था या जीता था। तब जब वे मेरी पसन्द भी न हों।
आप पूछेंगे कि फिर पश्चिम के वस्त्र व मूल्य क्यों अपनाने को तैयार हूँ? मेरी इच्छा। वैसे यहाँ एक बात साफ हो जानी चाहिए कि ये वस्त्र व विचार आज के पश्चिम के हैं, आज से एक हजार या पन्द्रह सौ वर्ष पहले के नहीं। शायद मुझे पसन्द हैं, शायद सुविधाजनक लगते हैं, शायद पश्चिम से हमने बहुत कुछ सीखा है, शायद आज पश्चिम व हमारे विचार कुछ मिलते जुलते हैं, शायद पश्चिम मुझे प्रगतिशील लगता है, शायद हमारे पुरुष भी पश्चिमी वस्त्र पहनते हैं। कारण जो भी हों यदि मेरे चुने हुए हैं, मुझ पर थोपे नहीं गए हैं तो किसी को क्या कष्ट? वैसे आप क्या जानें कि मैं क्या पहनती हूँ? और यह आपकी चिन्ता का विषय भी क्यों होए?
भारत की गर्मियों में पुरुष का कोट पहनना या सूट पहनना विचित्र लगता है। परन्तु उसे लगता है कि वह उसे पहन कर जँच रहा है सो पहनता है, नित्य नहीं तो विशेष अवसरों में। परन्तु वही पुरुष अवसर मिलते से ही या ए सी से दूर होते से ही कोट को उतार फेंकता है। कारण,यह सर्दियों को छोड़कर हमारे जलवायु के अनुकूल नहीं है। ठीक वही हाल स्त्री को पूरा ढकने वाले धार्मिक आस्थाओं वाले वस्त्रों का है। मजबूरी के अतिरिक्त शायद ही कोई शौक से उसे घर में पहनकर बैठती होगी या आराम करती होगी। इन वस्त्रों की भी समय, स्थान व परिस्थितियों के अनुसार उपयोगिता होगी ही। मुझे याद है मैंने जीवन के तीन वर्ष एक मरुस्थल में बिताए थे। एक दो बार जब रेत की आँधी चली तो मुझे भी अपनी साड़ी के आँचल से अपना चेहरा तक ढकना पड़ा। इससे मेरी आँखों में रेत नहीं गई और मेरे बाल भी रेत से बच गए। यह तब जब हमारे घर में दिन रात पानी आने की व्यवस्था थी क्योंकि समुद्री पानी से खारापन निकालकर पानी चौबीसों घंटे मिलता था। सोचिए कि आज से हजार, पन्द्रह सौ साल पहले पानी की भी कमी होगी और सुविधाओं की भी। शायद तब सिर ढकने से लम्बे समय तक सिर धोने से बचा जा सकता हो। अन्यथा रेत की आँधी झेलने के बाद सिर धोने के लिए अमूल्य पानी खर्च करना पड़ता। तो यह उस स्थान की, उस युग की मजबूरी रही होगी। स्त्री व पुरुष का अपने वस्त्रों के ऊपर एक और लबादा पहनना भी अपने वस्त्रों को बचाने का एक व्यवहारिक उपाय था। किन्तु आज भारत में रहकर, यहाँ की गर्मी में अपने को पकाने को मैं तो कतई तैयार नहीं हूँ,न धर्म के लिए, न संस्कृति के लिए न किसी अन्य कारण से।
जहाँ तक धर्म की या भगवान की ऐसी किसी इच्छा का प्रश्न है तो एक तो मैं धार्मिक नहीं उसपर जिस धर्म में मैं जन्मी उसमें ऐसी किसी बात का जिक्र नहीं है। होता भी तो कोई अन्तर नहीं पड़ता। फिर मैं क्यों किन्हीं अन्य परिस्थितियों, अन्य काल, अन्य स्थान में जन्मे किसी धर्म से यूँ प्रभावित होऊँ कि सबकुछ छोड़ छाड़कर वस्त्रों के पीछे डंडा लेकर चल पड़ूँ? जो भगवान को मानते हैं व उसकी शक्ति में विश्वास करते हैं वे यह भी समझ सकते हैं कि यदि वह वही है जैसा वे मानते हैं तो उसमें इतनी शक्ति तो होती ही कि जिसे वह कपड़ों में ममी की तरह लपेटना चाहता उसे अधिक नहीं तो कम से कम फर से तो ढक ही देता!यह वह कुत्ते, बिल्ली, शेर, चूहे आदि के लिए कर सकता था तो मानवी के लिए क्यों नहीं? वैसे तो वह सर्व शक्तिमान उसे लबादे में भी जन्म दे सकता था। या फिर लबादा उतारते से ही मौत के घाट उतार सकता था।
तो भाई मेरे, यह समस्या ईश्वर की नहीं है। यह समस्या आपकी आँखों की है। अब यदि सूरज की किरणों से आप परेशान होते हैं तो धूप का चश्मा कौन पहनता है? आप ना? सूरज को तो न आप ढक सकते हैं न नष्ट कर पाते हैं, सो अपनी आँखों को चौंधियाने से बचाने को स्वयं ही कुछ उपकरण पहन लेते हैं। आप तो पुरुष हैं,सामर्थ्यवान हैं, क्यों नही ऐसा कुछ खोज लेते जिसको पहन आपको सब नारियाँ कपड़ों में लिपटी नजर आएँ। आपकी समस्या भी हल हो जाएगी और स्त्री की भी।
यहाँ एक युवती की हत्या हो गई।(यदि आत्महत्या भी हुई तो भी वे क्या कारण थे कि एक स्त्री जो विवाह रचाना चाहती थी, जो सन्तान को जन्म देना चाहती थी वह स्वयं मृत्यु को गले लगा ले? ) हत्या भी केवल और केवल सम्मान या कहिए झूठी प्रतिष्ठा के लिए और आप हैं कि कपड़ों के पीछे पड़े हैं, स्त्री कितनी ढकी है इसके लिए चिन्तित हैं। मुझे याद है कि बहुत पहले मैंने कहा था कि यदि स्त्री को जला भी दिया गया हो और वह मर रही हो, पीड़ा से यहाँ वहाँ भाग रही हो, तो भी समाज के ठेकेदार कहेंगे कि जरा यूँ उकड़ू हो बैठ जल कि तेरा शरीर हमें उत्तेजित न करे। अब और क्या कहूँ? यदि अपने पिता और अपने युग के पुरुषों से हताशा थी तो अब अपने बच्चों से भी कम उम्र के पुरुषों से और भी अधिक हताशा है। इन्हें हमसे अधिक महत्वपूर्ण हमारे कपड़े लगते हैं। हम जिएँ या मरें, हमारे कपड़े सही ढंग से हमें ढक रहे हों, बस यह इनकी चिन्ता है। क्या यदि हम जलते मकान से कम वस्त्रों में बाहर निकलेंगी तो ये हमें और वस्त्र पहनकर आने को वापिस जलते मकान में धकेल देंगे? हमें इन्हें यह अधिकार कदापि नहीं देना है। हमें जीना है और अपने मूल्यों पर जीना है, अपने लिए जीना है।
घुघूती बासूती
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Very Good....
ReplyDeleteनहीं.
ReplyDeleteकुछ मत करिए.
बस लिखते रहिये, जो भी दिल कहना चाहे.
आप जो भी लिखती हैं, तर्क की कसौटी पर कसकर ही लिखती हैं। ऐसे लेख पढ़कर सोचने पर मजबूर होना पढ़ता है। किसी के कहने पर आप अपना लिखने का अंदाज बदलने जा भी नहीं रही हैं और इसकी जरूरत भी नहीं है। सार्थक बहस से हम जैसों के ज्ञान कपाट खुलेंगे ही।
ReplyDeleteअपनी बात को इतनी ताकत, तार्किकता और साफगोई रखने वाली शानदार रचना पढ़ पाने का अवसर पहले कब मिला था यह याद नहीं है।
ReplyDeletebahut khoob aur tarkik baat rakhi ...par is samaaj ka kya...wo to bas yahi chahta hai...ki kisi tarah naari ke kisi khule ang ke darshan ho jaaye...media ne to waise bhi sex ke naam pe arajakta faila di hai...puratan kaal se ab zamaana badal gaya hai...
ReplyDeleteमैं अगर इसी विषय पर लिखती तो शायद आक्रोश में बह जाती ..पर तथ्यों के साथ इतनी गहराई में लिखा है मैं एक सांस में पूरा पढ़ गई,पिछला लेख भी चेतना को हिला गया था ,अगर किसी को आपत्ति है की आप की कलम का झुकाव नारी विषयों पर है तो उन्हें जानना चाहिए ये प्राकृतिक है , उन्हें भी पुरुष विषयों पर लिखना चाहिये किसी ने रोका तो नहीं है .
ReplyDeleteअगर कोई प्रथा या तरीका या पहनावा अतीत में सही था वो ज़रूरी नहीं आज के परिपेक्ष्य पर भी सटीक बैठे.
Bada sukun mila aapka yah aalekh padhke..jab tak hamara wajood garimamayi hai,kisiko ikhtiyar nahi hame nirdesh karne ka..aisa adhikar bhi kisi behad apneka banta hai..
ReplyDeleteमेरी एक मित्र हैं वो कहती हैं --- हम लडकियों को क्या पहनना हैं और क्या नहीं, ये हमें बखूबी मालूम हैं.........किसी को यह ज्ञान देने की जरुरत नहीं
ReplyDeleteघुघूती जी, चलिए बैठ कर इंतजार करते हैं ------- कामसूत्र कब जलाते हैं और खुजराहो के मंदिर कब तोड़ते हैं संस्कृति के ठेकेदार......
ReplyDeleteमित्र फ़कीरा, वे सब ये जला /तोड़ चुके। अब हमें तोड़ना शेष है। इस देश व इसकी परम्पराओं की बात करने वालों को तो कम से कम मध्य एशियाई मूल्यों को अपना नहीं कहना चाहिए।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
क्या बुर्के में रहने वाली और सलवार कुर्ते तथा साड़ी में रहने वाली स्त्रियों को बुरी नजर से नहीं देखा जाता क्या उनके साथ छेड़ छाड़ की घटनाए नहीं होती खराबी कपडे में नहीं लोगों की नजर में है
ReplyDeleteघुघुती जी,
ReplyDeleteमेरे ससुर जी जब मेरी पत्नी के लिए लड़का खोजने एक जगह गये थे तो लड़के की माँ बिना ब्लाउज के केवल साड़ी वगैरह लपेटे हुए बाहर बैठी गपशप कर रही थी। उसे देखते ही मेरे ससुर बिदक गये कि इसके यहां अपनी लड़की कैसे दे दूं जिसे पहने ओढ़ने का सहूर नहीं है....
और अब सिर्फ लड़के की मां द्वारा उस समय एक ब्लाउज न पहनने के कारण वही उनकी लड़की मेरी पत्नी बनी है :(
-------
ये दुखड़ा स्माईली से गलत न समझें....अपन तो इस तरह की स्माईलियाँ ऐसे ही चेंपा करते हैं :)
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteसिर्फ आपकी कलम का रूख ही नहीं इनकी इच्छा तो इतिहास का भी रूख बदलने की है। उस लड़की की बोटी बोटी काट देने के फतवे यहीं जारी किए जा चुके हैं जो अपनी देह को अपना करार देती हो... कुल मिलाकर कपड़े तो केवल एक बात हैं...यहॉं मसला पूरी जिंदगी का रूख उनके हिसाब से किए जाने का है।
ReplyDeletemurkh hai vo log jo aajkal ki ladkiyo ko ang-pradarshan naa karane ki salah dete hai. jitana chaho dikhao.... tumhara shareer hai! chaho to kapde hi na pahano....bhai hamari snaskriti me aryo ke aane se pahale kapade naa pahanane ka bhi rivaz tha! maafi chahta hu lekin aapke tark aapake gyan me kami ko bya kar rahe hai! hindustan ek azad mulk hai jo chaho karo! lekin ise desh ke culture se mat jodo....pahale apana knowlege badhaiye....mordern girls ka ang pradarshan karna aur gareebi ya majburi me kam ya adhik vastr pahanana do alag bate hai! vaise pasand na aaye to meri comment hata sakti hai!
ReplyDeleteइस पोस्ट में आपकी किसी भी बात से असहमत नहीं हुआ जा सकता. संस्कृति और परम्परा के नाम पर वही सबसे ज़्यादा हल्ला मचा रहे हैं जिन्हें इसका मतलब भी नहीं पता - हालांकि मौके का फायदा उठाने में "परिवार मिटाओ, कम्यून लाओ" वाले मौकापरस्त भी पीछे नहीं है.
ReplyDeleteरुख बदलने की कोई आवश्यकता नही है - आपकी कलम से निकलने वाले एक एक शब्द भारतीय संस्क्रती एवं सामाजिक हित का अनुमोदन कर रहे है. .... आप द्वारा लिखित विचारों में इतनी ताकत है की हमे एवं घर्म कर्म के नाम पर समाज में व्याप्त बुराइयों रुढ़िवादी परम्पराओं ने मुक्ति मिलना अवश्यभावी है, आप लिखित विचार समाज को एक नई दिशा-दर्शन देने में सक्षम है.
ReplyDeleteआभार एवं मंगलकामनाए !
is se pahle ki mai khud kuchh kahta, maine dineshrai dwivedi jee ka kathan padh liya aur unse 100 feesdi sehmat hu.
ReplyDeleteare han, kisi ke kahne se baki sab bhale hi badal lein lekin apne vichar aur apni lekhni na badlein......
ReplyDeleteदेखा जाये तो यह कोई मुद्दा नही है और यह भी कि इस समय इसे मुद्दा बनाया जा रहा है । संस्कृति भी कोई शब्द नही है शब्द कोष मे और इसका जिम्मा कुछ लोगो ने ले लिया है कि वे ही इसका निर्वहन कर रहे हैं । आपने बहुत बेबाकी से विचारों को रखा है । यह विचार अपने उत्कर्ष तक पहुंचे यह कामना ।
ReplyDeleteअरे हम आपके यूं ही फैन नहीं हैं घुघूती जी. आप लिखती हैं तो गजब, कहती हैं तो गजब. आपकी बातें एकदम अकाट्य होती हैं. आगे हम कुछ नहीं कहेंगे, हमारी बधाई बस ले लीजिए.
ReplyDeleteGhaghooti ma'am aapke ek-ek shabd se sahmat hoon .. baki meri baat SHREE sHARAD kOKAS BHAIA NE KAH DI HAI.. :)
ReplyDeleteWaah waah waah aur shat-shat baar waah..
ReplyDeleteबेवाक और तथ्यपरक लेखन के लिये साधुवाद
ReplyDeleteपुरातन काल में न तो कपड़ों पर और ना ही शरीर प्रदर्शन पर चिंतन था। वस्त्र केवल तन ढकने के लिए थे। लेकिन वर्तमान में कुछ स्त्रियां और पुरुष वस्त्रों को अंग प्रदर्शन का जरिया मानते हैं। हम कैसे अपने वस्त्रों द्वारा अपने अंगों का प्रदर्शन कर सकें यही मानसिकता है और इसी मानसिकता के कारण पुरुषों को संत्रास भोगना पड़ता है जिस कारण समाज में स्त्री-पुरूषों में तनातनी उत्पन्न हो रही है। महिलाओं को तो पुरुषों को अर्धनग्न देखने की आदत है इसलिए जब पुरुष अंग प्रदर्शन करता है तो इतना बवेला नहीं मचता लेकिन अभी समाज की मानसिकता स्त्रियों को अर्धनग्न देखने की नहीं बनी है, धीरे-धीरे बन जाएगी तब स्थितियां सामान्य हो जाएंगी।
ReplyDeleteपोस्ट अगर स्त्री के वेश-कार्य-सोच पर है तो मुझे कुछ नहीं कहना।
ReplyDeleteपर कलम का रुख आपके पाठकों से बदलता जरूर है। समय के साथ आप औरों को समझते हैं। शार्प एजेज राउण्डेड होते हैं। अपने साथ मैने यही देखा है।
विचारणीय लेख है...
ReplyDeleteऔरतें क्या पहनें और क्या नहीं... इसका फ़ैसला सिर्फ़ औरतों को ही करना चाहिए...
जब औरतें मर्दों के लिए कोई 'ड्रेस कोड' लागू नहीं करतीं तो फिर मर्द क्यों करते हैं...? मुसलमानों में तो हालत बेहद दयनीय है...
हमें इस बात पर नाज़ है कि हमने भारत जैसे महान देश में जन्म लिया...
बहुत विस्तार और बेबाकी से आपने अपने मन की बात कही। बातें पसन्द आयीं। यूँ ही लिखने का क्रम जारी रहे। खुद की लिखी एक मुक्तक से अपनी बात पूरी करूँ-
ReplyDeleteलिखूँ जनगीत मैं प्रतिदिन ये साँसें चल रहीं जब तक।
कठिन संकल्प है देखूँ निभा पाऊँगा मैं कब तक।
उपाधि और शोहरत की ललक में फँस गयी कविता,
जिया हूँ बेचकर श्रम को कलम बेची नहीं अब तक।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
"भारत की गर्मियों में पुरुष का कोट पहनना या सूट पहनना विचित्र लगता है। परन्तु उसे लगता है कि वह उसे पहन कर जँच रहा है सो पहनता है, नित्य नहीं तो विशेष अवसरों में।"
ReplyDeletemain to aise logon ko samjhdaar nahi maantaa, dhoti, kurte aur paayjaame se behtar kya ho sakta hai bhalaa ??
"आप तो पुरुष हैं,सामर्थ्यवान हैं, क्यों नही ऐसा कुछ खोज लेते जिसको पहन आपको सब नारियाँ कपड़ों में लिपटी नजर आएँ। आपकी समस्या भी हल हो जाएगी और स्त्री की भी।"
solution to striyaan bhee bata sakti hai jaise ye
http://feminist-poems-articles.blogspot.com/
ek naari ne hi likha hai , behtar lekh hai
"यदि स्त्री को जला भी दिया गया हो और वह मर रही हो, पीड़ा से यहाँ वहाँ भाग रही हो, तो भी समाज के ठेकेदार कहेंगे ......."
aapki nafrat itnee jyada badh gayee hai ki aapne aise kroor samaj ki kalpana shuru kar dee hai.
main hamesha se yehi kehta raha hoon ki Bhaarat me koi samasya nahi hai, sirf banayee jaa rahi hai. dosh hai to sirf videshi sabhyta ke andhaanukaran kaa(naa to bhartiya purush ka naa bhartiya nari ka). ye vibhajan ki prakriya band kar deejiye ....Nivedan Hai
aap har baat ko stri purush me kyon Vibhajit kar dete hai insaan ke nazariye se dekhen to samasya solve ho jayegi
बहुत अच्छी पोस्ट.
ReplyDeleteएक तथ्य-सुधार--- दर्जी एक जाति है. उत्तर प्रदेश में ओ बी सी में शामिल है. हिंदू - मुसलमान दोनों संप्रदायों में पायी जाती है.
pahali baar aapke blog par aaya. achchha laga. aata rahunga. SABLOG ka agla ank nari visheshank hi aane wala hai....
ReplyDeletevery very impressive writing,well u should write what u wish and feel.
ReplyDeleteसार्थक लेख
ReplyDeleteपहनावा वातावरण उपयुक्तता और व्यक्तिगत अनुकूलता के हिसाब से होना चाहिये।
ReplyDeleteदूर-दराज के परिवेश, वातावरण, जलवायु के उपयुक्त वस्त्रों को पहनने के लिये बाध्य करना भी तो जंजीरे पहनाना है।
और अब तो कलम का रूख बदलने के लिये भी कहा जाने लगा।
आपके लेख के एक-एक शब्द को दो-दो बार पढा है।
आपका लेख हमेशा की तरह बहुत अच्छा लगा। आपके लेखों को पढकर बहुत विचार उथल-पुथल होने लगते हैं।
बस आपको बारम्बार प्रणाम
बिल्कुल सत्य तथ्य हैं । शब्दश: सहमत । u r absolutely right !
ReplyDeleteसभ्यता संस्कृति बकवास है, वास्तव में इस बहाने पुरूष अपनी दमीत इच्छाओं को निकालते है. वस्त्र मौसम से शरीर को बचाने के लिए है बस. भारत की भरी गर्मी में कोई कोट टाई पहनता है तो मेरी नजर में वह मूर्ख है.
ReplyDeleteकपड़े वैसे पहने जो सुविधा वाले और मौसम अनुकुल हो.
लेख बहुत सार्थक है और बहुत तार्किक ढंग से लिखा गया है...
ReplyDeleteबात बस इतनी सी है की लड़कियां क्या पहने? कम से कम ये बात तो स्त्रियों को ही तय करने दीजिए....
शायद वही लोग ज्त्यदा इस मुद्दे को उठाते हैं जो स्वयं पर विश्वास नहीं करते...
खैर एक जगह टिप्पणी में आया है की खजुराहो के मंदिरों के तोडने की बात...तो क्या आप जानते हैं कि इनका निर्माण किन परिस्थितिओं में किया गया था? ?????
?????????
मैंने कहीं पढ़ा तो नहीं है...पर मेरी एक बहुत पुरानी परिचित जो संस्कृत और इतिहास की अच्छी ज्ञाता थीं ( अब वो इस संसार में नहीं हैं ) उनसे ही जाना था..कि..
गौतम बुद्ध की शिक्षाओं से और उनके अनुयायी बनने से लोग सृष्टि रचना से विमुख हो गए थे....धर्म के नाम पर सबकुछ करने को तैयार रहने वाले लोगों को संतति रचना की ओर आकृष्ट करने के लिए ही भगवान की मूर्तियों को इस रूप में गढा गया था...और इस मंदिर की स्थापना की गयी थी ...ये एक सामाजिक चेतना के लिए किया गया था...केवल स्वांत: सुखाय के लिए नहीं...
इतिहास में इसका वर्णन है या नहीं ये मैं नहीं जानती...
आपने आपनी बात इतनी बेवाकी से कह दी मुझे बहुत अच्छा लगा। शायद मै होती तो सौ बार सोचती, चाहती पर लिख नही पाती।
ReplyDeleteकिसे प्रिय नही होती स्वतंत्रता... कोई एक बतादे... स्त्री से ज्यादा महत्व वस्त्र का क्यों...? यह बात मेरे भी समझ में नही आती, इन ज्ञानी पुरुषों की नजर भी महान कहलायेगी। क्योंकि पुरुष जो है।
वर्तमान की किसी भी असहज प्रणाली को पुरातन काल की सहजता के चलते निभाते जाना मुर्खता होगी.. मरुस्थलीय इलाको वाली सम्भावना बिलकुल उचित जताई है आपने.. हम क्या पहनते है और क्या नहीं इसका अधिकार सिर्फ हमें है.. वही समाज का एक हिस्सा होने के नाते ये हमारी भी जिम्मेदारी बनती है कि हम स्थान, माहौल अथवा मौसम के अनुकूल कपडे पहने.. किसे क्या पहनना चाहिए से बेहतर है कब क्या पहनना चाहिए.. और ये निर्णय भी हमें खुद लेना है.. यदि इस मामले में कोई गैर जिम्मेदाराना हरकत होती है तो आपत्ति तो बनती ही है.. यदि कोई पुरुष या स्त्री ऐसे वस्त्र पहने जो उस स्थान के अनुकूल अमर्यादित हो तो किसी को भी आपत्ति हो सकती है.. और ये सही भी है |
ReplyDeleteअंत में यही कहूँगा कि हम जो पहन रहे है वो गलत है या सही इसकी समझ हमें खुद विकसित करने की आवश्यकता है.. कोई और इसे तय नहीं करेगा..!
ReplyDeleteआपकी प्रत्येक बात से सहमत हूँ. सभ्यता और संस्कृति के नाम पर औरतों को क्या पहनना चाहिये, क्या करना चाहिये, कहाँ जाना चाहिये, कैसे उठना-बैठना चाहिये... ये सब बातें बन्द हो जानी चाहिये. बहुत तार्किक और सटीक लिखा है आपने.
ReplyDelete@ बेनामी, घुघूती बासूती मैम कितनी ज्ञानी हैं, ये आपको बताने की ज़रूरत नहीं है. रही बात हमारी संस्कृति की तो शास्त्रों से कहीं अधिक समाज के विषय में साहित्य से पता चलता है क्योंकि शास्त्र "क्या करना चाहिये" ये बताते हैं और साहित्य "समाज का दर्पण" होता है. भारतीय संस्कृति के बारे में संस्कृत साहित्य से पता चलता है... पहले आप उसका अवगाहन कर लीजिये, फिर आकर तर्क कीजिये... और हाँ "अमरुक शतक" ज़रूर पढ़ लीजियेगा... पर उस तर्क की बात तो तब आयेगी, जब हम ये मानें कि सदियों पहले जो किताबों में लिखा था, हम उसके अनुसार आचरण करें या सातवीं सदी में जैसे कपड़े पहने जाते थे, वैसे कपड़े पहनें, जबकि यहाँ ये कहा जा रहा है कि कौन क्या पहने ये उसी पर छोड़ दीजिये... वो खुद तय करे... चाहे स्त्री हो या पुरुष... पर वेश-भूषा की बातें औरतों के लिये ही ज्यादा होती हैं. इसलिये यहाँ औरतों की बात की गयी है.
@ गौरव अग्रवाल, अभी आप घुघूती बासूती जी को और पढ़िये, फिर कोई राय कायम कीजियेगा.
आधुनिकीकरण के दुष्प्रभावों से भारतीय नारी भी बच नहीं पाई है। 'सादा जीवन, उच्च विचार' की उदात्त संस्कृति में पली यह नारी अपने को मात्र सौन्दर्य और प्रदर्शन की वस्तु समझने लगी है। दीवारों पर लगे पोस्टरों और पत्रिकाओं के मुखपृष्ठ पर मुद्रित नारी-शरीर के कामुक चित्र नारीत्व की गरिमा को जिस प्रकार नष्ट कर रहे हैं वह नारी वर्ग के लिये अपमान की बात है,यहाँ जिम्मेदार यह वर्ग खूद ही है । कोमलता, शील, ममता, दया और करूणा संजोने वाली यह नारी अपनी प्रकृति और अपने उज्जवल इतिहास को भूल कर भ्रूण-हत्या, व्यसनग्रस्तता, अपराध और चरित्रहीनता के भोंडे प्रदर्शन द्वारा अपनी जननी और धारिणी की छवि को धूमिल कर रही है। यह समझ लेने की बात है कि यदि नारी-चरित्र सुरक्षित नहीं रहा तो सृष्टि की सत्ता भी सुरक्षित नहीं रह पायेगी क्योंकि नारी में ही सृष्टि के बीज निहित हैं
ReplyDeleteआदरणीय घघूति जी ..नहीं लगता आपको......सब पढ़ के ....
ReplyDeleteइस" मेंटल कंडिशनिंग " को फ्लश होते अगले कई साल लग जायेगे ......
अपनी अपनी ढपली अपना अपना राग is the best policy.
ReplyDelete@मिथिलेश जी
ReplyDelete१. 'सादा जीवन, उच्च विचार' की उदात्त संस्कृति में पली यह नारी अपने को मात्र सौन्दर्य और प्रदर्शन की वस्तु समझने लगी है
नारी का प्रदर्शन नारी के लिए तो नहीं होता ना ..उसे प्रदर्शन की वस्तु बनाता कौन है,और उसका दर्शक वर्ग कौन है ?
२. दीवारों पर लगे पोस्टरों और पत्रिकाओं के मुखपृष्ठ पर मुद्रित नारी-शरीर के कामुक चित्र नारीत्व की गरिमा को जिस प्रकार नष्ट कर रहे हैं
इन पुस्तकों को छापने वाले से लेकर खरीदने वाले तक निगाह घुमाइए आपके आस -पास ही है
३. नारी-चरित्र सुरक्षित नहीं रहा तो सृष्टि की सत्ता भी सुरक्षित नहीं रह पायेगी
चरित्र की परिभाषा स्पष्ट करे, सृष्टि का सारा भार नारी पर ही क्यों क्या पुरुष वर्ग का कोई स्थान नहीं ?
अगर ये आन्दोलन आप अश्लीलता का बहिष्कार कर चलाये तो बेहतर होगा ..आप खरीदते है इसलिए बिकता है अर्थशास्त्र का सीधा सिद्धांत है ..अगर हिम्मत है तो हर गली नुक्कड़ पर बिकने वाले अश्लील साहित्य ,सीडी की होली जलाइए..अश्लील लगने वाले विज्ञापन का बहिष्कार कीजिये, जनहित याचिका भी डाल सकते है .
समाज के पतन की सारी ज़िम्मेदारी नारी पर डाल कर आप हाँथ नहीं झाड सकते.
आपने ये लेख तर्क की कसौटी पर कस कर लिखा है तो किसी का भी असहमत होने का सवाल ही नही उठता……………एक गम्भीर और चिन्तनीय विषय पर बहुत ही सार्थक लेख्…………………आभार्।
ReplyDeleteसोनल जी
ReplyDeleteकौन क्या देखता है या क्या चाहता है यर मायनें नहीं रखता , अब कोई पुरुष हर बाहरी महिला को या कोई महिला ही हर बाहरी पुरुष को हम विस्तर बनाना चाहे तो क्या ये मुमकिन है नहीं ना । हमारा व्यवहार कैसा है ये ज्यादा मायने रखते है । हमारे देश में पहले परिवार वाद चलता था परन्तु पश्चिम के अन्धांनुकरण के चलते अब ये बाजारवाद में तब्दिल हो गया है , जिसका बड़ा स्पष्ट फंडा है कि जो दिखता वहीं बिकता है , इसके नाम नारी का आये दिंन शोषण हो रहा है जिन्हे ये प्रगतिवादी महिलाएं विकास समझ रही हैं ।
सोनल जी
ReplyDeleteकौन क्या देखता है या क्या चाहता है यर मायनें नहीं रखता , अब कोई पुरुष हर बाहरी महिला को या कोई महिला ही हर बाहरी पुरुष को हम विस्तर बनाना चाहे तो क्या ये मुमकिन है नहीं ना । हमारा व्यवहार कैसा है ये ज्यादा मायने रखते है । हमारे देश में पहले परिवार वाद चलता था परन्तु पश्चिम के अन्धांनुकरण के चलते अब ये बाजारवाद में तब्दिल हो गया है , जिसका बड़ा स्पष्ट फंडा है कि जो दिखता वहीं बिकता है , इसके नाम नारी का आये दिंन शोषण हो रहा है जिन्हे ये प्रगतिवादी महिलाएं विकास समझ रही हैं ।
आपकी पोस्ट पढ़कर उत्तराखंड के सुदूरवर्ती गाँव की औरतें घूमने लगती हैं, बिलकुल सटीक चित्रण किया है आपने ....आपका लिखने का अंदाजा आपकी पहचान है इसे हरगिज़ नहीं बदलना चाहिए | ...
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लेख के लिए बधाई ! दिनेश राय द्विवेदी से सहमत हूँ ! मुझे याद है दिल्ली आने से पहले घर में घुटन्ना ( हलके कपडे का निक्कर ) पहन कर घर में रहते थे नहाते थे ! हमें अपनी बहनों के आगे कभी शर्म नहीं लगी ! मगर दिल्ली के परिवेश में आकर अब संकोच होता है ! शायद पत्नी ने ऐसा कभी नहीं देखा सो उनके टोकने के कारण अब अधोवस्त्र पहन कर कमरे से बाहर नहीं निकल सकते !
ReplyDeleteअच्छे लेख के लिए बधाई आपको !
यदि नारी-चरित्र सुरक्षित नहीं रहा तो सृष्टि की सत्ता भी सुरक्षित नहीं रह पायेगी क्योंकि नारी में ही सृष्टि के बीज निहित हैं
ReplyDeletein shabdo kaa arth aur gaharai koi aam aadami samajh hi nahi sakta. isliye jaane bhee do yaaro..... sabako saaaaaaaaab pata hai aur sabhi apne apane svartho aur dabi hui ichchao kee purti me lage hai. fir vo naari ho ya purushjald hi vo din bhi ayega jab polygamy yani striyo ke bahu vivah ko panchali ke udaharan se sahi sabit kiya jayega. aur kaha jayega jab purush bahu vivah ka sakate hai to striya kyo nahi? kyon sonal ji? sahi hai na?
ha...ha...ha!
"हमें जीना है और अपने मूल्यों पर जीना है, अपने लिए जीना है।"
ReplyDeleteसार भी यही है और सच भी - धारा प्रवाह आलेख
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ReplyDelete.
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"अपनी बात को इतनी ताकत, तार्किकता और साफगोई रखने वाली शानदार रचना पढ़ पाने का अवसर पहले कब मिला था यह याद नहीं है।"
आदरणीय द्विवेदी जी से पूरी तरह सहमत...
"जो भगवान को मानते हैं व उसकी शक्ति में विश्वास करते हैं वे यह भी समझ सकते हैं कि यदि वह वही है जैसा वे मानते हैं तो उसमें इतनी शक्ति तो होती ही कि जिसे वह कपड़ों में ममी की तरह लपेटना चाहता उसे अधिक नहीं तो कम से कम फर से तो ढक ही देता!यह वह कुत्ते, बिल्ली, शेर, चूहे आदि के लिए कर सकता था तो मानवी के लिए क्यों नहीं? वैसे तो वह सर्व शक्तिमान उसे लबादे में भी जन्म दे सकता था। या फिर लबादा उतारते से ही मौत के घाट उतार सकता था।
तो भाई मेरे, यह समस्या ईश्वर की नहीं है। यह समस्या आपकी आँखों की है। अब यदि सूरज की किरणों से आप परेशान होते हैं तो धूप का चश्मा कौन पहनता है? आप ना? सूरज को तो न आप ढक सकते हैं न नष्ट कर पाते हैं, सो अपनी आँखों को चौंधियाने से बचाने को स्वयं ही कूछ उपकरण पहन लेते हैं। आप तो पुरुष हैं,सामर्थ्यवान हैं, क्यों नही ऐसा कुछ खोज लेते जिसको पहन आपको सब नारियाँ कपड़ों में लिपटी नजर आएँ। आपकी समस्या भी हल हो जाएगी और स्त्री की भी।"
यह सब पढ़ने के बाद भी संस्कृति-नारी-परिवार-परंपरा-सृष्टि-ईशसत्ता चिंतक लगे हुऐ हैं फलसफा झाड़ने में... जाओ सामर्थ्यवान नरश्रेष्ठों, नारी को लबादा लपेटने के बजाय खुद के लिये ऐसा मर्दाना लबादा इजाद क्यों नहीं कर लेते... जिसमें यह व्यवस्था हो कि तुम्हारी बर्दाश्त से कम कपड़े पहनी नारी देखते ही काला पर्दा पड़ जाये तुम्हारी आंखों पर...और एक मिनट तक पड़ा रहे... तब तक वह अपने रास्ते निकल जायेगी!
जिनकी नैतिकता दूसरों पर थोपी गई अपनी आचार संहिता का उनके द्वारा अनुपालन किए जाने से परिभाषित होती हो, उन्हें शायद ऐसे तर्कों से भी समझाया नहीं जा सकता।
ReplyDeleteइस बहस में आपका निम्न तर्क तो लाजवाब करने लायक है:
"अब यदि सूरज की किरणों से आप परेशान होते हैं तो धूप का चश्मा कौन पहनता है? आप ना? सूरज को तो न आप ढक सकते हैं न नष्ट कर पाते हैं, सो अपनी आँखों को चौंधियाने से बचाने को स्वयं ही कुछ उपकरण पहन लेते हैं।"
ओह यहां फिर से ड्रेस कोड पर बहस ...जब से अम्मा नें पहनाना छोड़ा हम अपनी सुविधा और मर्जी का पहनते ओढ़ते आये हैं बस यही ख्याल आपके आलेख से सहमति का कारण भी है !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर लेख है।
ReplyDeleteसौ बात की एक बात - औरत के लिये कपड़े हैं न कि कपड़े के लिये औरत। यह बात सिर्फ़ औरत के लिये नहीं सभी के लिये लागू होती है।
आपकी लेखनी को नमन।
ReplyDeleteमेरी दादी तो बीडी भी पीती थी :) अच्छा था तब ये सो काल्ड युवा लोग नही थे..
आज ही नयी बात पर एक कविता पढी थी...
"हम एक गुस्सैल पीढी चाहते हैं
हम चाहते हैं ऐसी पीढी जो क्षितिज का निर्माण करेगी
जो इतिहास को उसकी जड़ो से खोद निकाले
गहराई में दबे विचारों को बाहर निकाले
हम चाहते हैं ऐसी भावी पीढी
जो विविधताओं से भरपूर हो
जो गलतियों को क्षमा ना करे
जो झुके नहीं
पाखंड से जिसका पाला तक ना पड़ा हो
हम चाहते हैं एक ऐसी पीढी
जिसमें हों नेतृत्व करने वाले
असाधारण लोग"
डरता हू उस पीढी मे भी ऐसे युवा लोग आ गये तो..
सभ्यता-संस्कृति देशकाल के अनुसार बदलती है हाँ जैसा कहा गया है कि अति सर्वत्र वर्जयेत।
ReplyDelete"वे उस घर के पुरुष भी होते थे जो ससुर, जेठ या देवर भी हो सकते थे। अब वे एक दूसरे को कितना घूर घूर कर देखते थे व एक दूसरे को नजरों में ही कितना नापते थे यह तो मैं नहीं जानती।"
उत्तराखण्ड में रिश्तों में पवित्रता की एक परम्परा रही है। उदाहरण के लिये सम्पूर्ण उत्तराखण्ड में तो मैं नहीं जानता लेकिन हमारे क्षेत्र में जेठ छोटे भाई की पत्नी तो स्पर्श नहीं करता। इसी तरह रिश्तों की मर्यादा बनाये रखने के लिये कम्सल-हसल की व्यवस्था कायम की गई थी। गलत कृत्य अथवा गलत रिश्ते करने वाला कम्सल (नीची) श्रेणी में चला जाता था।
अबतक के मिडिया हंगामे को वास्तविकता मान कर माँ बाप को अपराधी ठहराना मीडिया ने ठान लिया था और उनका सहयोग मीडिया से भगाए गये वो पत्रकार कर रहे थे जो मीडिया की अपनी हड्कतों को यहाँ भी अंजाम दे रहे हैं, तथ्य कई और जा रहे हैं और जबतक वास्तविकता सामने ना आये हम किसी पर दोषारोपण कैसे कर सकते हैं,
ReplyDeleteये आरोप इस पर विवाद, लेखनी छोड़ना और लेखनी के लिए लोगों का हुजूम कहीं ये भी इस विवाद को भुनाने का हिस्सा तो नहीं है. ह्त्या या आत्म ह्त्या न्याय नीरू को मिलना चाहिए मगर इस कोशिश में सभी अपने हुजूम को इस तरह मोड़ कर कैसे जज बन सकता है.
तर्कहीन और बे सर पैर का आलेख.
आपतो बेबाक लिखते र्ताहिये. हम भारतीय मूल्यों से मुह मोड़ रहे हैं.
ReplyDeleteदैनिक राष्ट्रीय सहारा दिनांक 10 मई 2010 में संपादकीय पेज 10 पर बोला ब्लॉग में आपकी यह पोस्ट प्रकाशित हुई है, बधाई।
ReplyDeleteआदरणीया आपका ई मेल पता मिले तो स्कैनबिम्ब भिजवाना चाहूंगा avinashvachaspati@gmail.com
ReplyDeleteचिट्ठा-चर्चा से सीधा इधर आ गया।
ReplyDeleteउत्तराखंड की स्त्रियों का चित्रण आपने इतना सटीक किया है कि मन भर आया दी।...सचमुच जब पहाड़ों के सारे मर्द नशे में धुत रहते हैं, उत्तराखंड का पूरा जिम्मा सही मायने में इन स्त्रियों ने ही संभाल रखा है।
तरुन जी का शुक्रिया इतने बेहतरीन पोस्ट का रास्ता दिखाने के लिये।