tag:blogger.com,1999:blog-38818012.post7915656700826418891..comments2023-10-29T13:18:36.222+05:30Comments on घुघूतीबासूती: क्या किसी के कहने से मैं अपनी कलम का रुख बदल दूँ?.......................घुघूती बासूतीghughutibasutihttp://www.blogger.com/profile/06098260346298529829noreply@blogger.comBlogger63125tag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-46906562022249767392010-09-04T19:43:24.137+05:302010-09-04T19:43:24.137+05:30चिट्ठा-चर्चा से सीधा इधर आ गया।
उत्तराखंड की स्त्...चिट्ठा-चर्चा से सीधा इधर आ गया।<br /><br />उत्तराखंड की स्त्रियों का चित्रण आपने इतना सटीक किया है कि मन भर आया दी।...सचमुच जब पहाड़ों के सारे मर्द नशे में धुत रहते हैं, उत्तराखंड का पूरा जिम्मा सही मायने में इन स्त्रियों ने ही संभाल रखा है।<br /><br />तरुन जी का शुक्रिया इतने बेहतरीन पोस्ट का रास्ता दिखाने के लिये।गौतम राजऋषिhttps://www.blogger.com/profile/04744633270220517040noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-60114886642773237452010-05-13T21:28:00.003+05:302010-05-13T21:28:00.003+05:30आदरणीया आपका ई मेल पता मिले तो स्कैनबिम्ब भिजवान...आदरणीया आपका ई मेल पता मिले तो स्कैनबिम्ब भिजवाना चाहूंगा avinashvachaspati@gmail.comअविनाश वाचस्पतिhttps://www.blogger.com/profile/05081322291051590431noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-23137991964289132852010-05-13T21:24:33.903+05:302010-05-13T21:24:33.903+05:30दैनिक राष्ट्रीय सहारा दिनांक 10 मई 2010 में संपाद...दैनिक राष्ट्रीय सहारा दिनांक 10 मई 2010 में संपादकीय पेज 10 पर बोला ब्लॉग में आपकी यह पोस्ट प्रकाशित हुई है, बधाई।अविनाश वाचस्पतिhttps://www.blogger.com/profile/05081322291051590431noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-27097544217745453792010-05-10T17:09:09.647+05:302010-05-10T17:09:09.647+05:30आपतो बेबाक लिखते र्ताहिये. हम भारतीय मूल्यों से मु...आपतो बेबाक लिखते र्ताहिये. हम भारतीय मूल्यों से मुह मोड़ रहे हैं.P.N. Subramanianhttps://www.blogger.com/profile/01420464521174227821noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-78251440315933559882010-05-10T13:28:02.300+05:302010-05-10T13:28:02.300+05:30अबतक के मिडिया हंगामे को वास्तविकता मान कर माँ बाप...अबतक के मिडिया हंगामे को वास्तविकता मान कर माँ बाप को अपराधी ठहराना मीडिया ने ठान लिया था और उनका सहयोग मीडिया से भगाए गये वो पत्रकार कर रहे थे जो मीडिया की अपनी हड्कतों को यहाँ भी अंजाम दे रहे हैं, तथ्य कई और जा रहे हैं और जबतक वास्तविकता सामने ना आये हम किसी पर दोषारोपण कैसे कर सकते हैं,<br />ये आरोप इस पर विवाद, लेखनी छोड़ना और लेखनी के लिए लोगों का हुजूम कहीं ये भी इस विवाद को भुनाने का हिस्सा तो नहीं है. ह्त्या या आत्म ह्त्या न्याय नीरू को मिलना चाहिए मगर इस कोशिश में सभी अपने हुजूम को इस तरह मोड़ कर कैसे जज बन सकता है.<br />तर्कहीन और बे सर पैर का आलेख.Anonymousnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-51324490240175266862010-05-09T17:05:46.244+05:302010-05-09T17:05:46.244+05:30सभ्यता-संस्कृति देशकाल के अनुसार बदलती है हाँ जैसा...सभ्यता-संस्कृति देशकाल के अनुसार बदलती है हाँ जैसा कहा गया है कि अति सर्वत्र वर्जयेत।<br /><br /><i><b>"वे उस घर के पुरुष भी होते थे जो ससुर, जेठ या देवर भी हो सकते थे। अब वे एक दूसरे को कितना घूर घूर कर देखते थे व एक दूसरे को नजरों में ही कितना नापते थे यह तो मैं नहीं जानती।"</b></i><br />उत्तराखण्ड में रिश्तों में पवित्रता की एक परम्परा रही है। उदाहरण के लिये सम्पूर्ण उत्तराखण्ड में तो मैं नहीं जानता लेकिन हमारे क्षेत्र में जेठ छोटे भाई की पत्नी तो स्पर्श नहीं करता। इसी तरह रिश्तों की मर्यादा बनाये रखने के लिये कम्सल-हसल की व्यवस्था कायम की गई थी। गलत कृत्य अथवा गलत रिश्ते करने वाला कम्सल (नीची) श्रेणी में चला जाता था।ePandithttps://www.blogger.com/profile/15264688244278112743noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-25935551932328154782010-05-09T16:47:33.325+05:302010-05-09T16:47:33.325+05:30आपकी लेखनी को नमन।
मेरी दादी तो बीडी भी पीती थी...आपकी लेखनी को नमन। <br /><br />मेरी दादी तो बीडी भी पीती थी :) अच्छा था तब ये सो काल्ड युवा लोग नही थे.. <br /><br />आज ही नयी बात पर <a href="http://nayibaat.blogspot.com/2010/05/blog-post_84.html" rel="nofollow">एक कविता</a> पढी थी... <br /><br />"हम एक गुस्सैल पीढी चाहते हैं<br />हम चाहते हैं ऐसी पीढी जो क्षितिज का निर्माण करेगी<br />जो इतिहास को उसकी जड़ो से खोद निकाले<br />गहराई में दबे विचारों को बाहर निकाले<br />हम चाहते हैं ऐसी भावी पीढी<br />जो विविधताओं से भरपूर हो<br />जो गलतियों को क्षमा ना करे<br />जो झुके नहीं<br />पाखंड से जिसका पाला तक ना पड़ा हो<br />हम चाहते हैं एक ऐसी पीढी<br />जिसमें हों नेतृत्व करने वाले<br />असाधारण लोग"<br /><br />डरता हू उस पीढी मे भी ऐसे युवा लोग आ गये तो..Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय)https://www.blogger.com/profile/01559824889850765136noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-5898667360971292882010-05-09T09:24:16.906+05:302010-05-09T09:24:16.906+05:30बहुत सुन्दर लेख है।
सौ बात की एक बात - औरत के लिय...बहुत सुन्दर लेख है।<br /><br />सौ बात की एक बात - औरत के लिये कपड़े हैं न कि कपड़े के लिये औरत। यह बात सिर्फ़ औरत के लिये नहीं सभी के लिये लागू होती है।अनूप शुक्लhttps://www.blogger.com/profile/07001026538357885879noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-38388205586434466802010-05-09T01:45:54.220+05:302010-05-09T01:45:54.220+05:30ओह यहां फिर से ड्रेस कोड पर बहस ...जब से अम्मा नें...ओह यहां फिर से ड्रेस कोड पर बहस ...जब से अम्मा नें पहनाना छोड़ा हम अपनी सुविधा और मर्जी का पहनते ओढ़ते आये हैं बस यही ख्याल आपके आलेख से सहमति का कारण भी है !उम्मतेंhttps://www.blogger.com/profile/11664798385096309812noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-90381240757549797492010-05-08T22:37:29.477+05:302010-05-08T22:37:29.477+05:30जिनकी नैतिकता दूसरों पर थोपी गई अपनी आचार संहिता क...जिनकी नैतिकता दूसरों पर थोपी गई अपनी आचार संहिता का उनके द्वारा अनुपालन किए जाने से परिभाषित होती हो, उन्हें शायद ऐसे तर्कों से भी समझाया नहीं जा सकता। <br /><br />इस बहस में आपका निम्न तर्क तो लाजवाब करने लायक है:<br /> <br />"अब यदि सूरज की किरणों से आप परेशान होते हैं तो धूप का चश्मा कौन पहनता है? आप ना? सूरज को तो न आप ढक सकते हैं न नष्ट कर पाते हैं, सो अपनी आँखों को चौंधियाने से बचाने को स्वयं ही कुछ उपकरण पहन लेते हैं।"Srijan Shilpihttps://www.blogger.com/profile/09572653139404767167noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-85473824756133715662010-05-08T19:04:59.359+05:302010-05-08T19:04:59.359+05:30.
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"अपनी बात को इतनी ताकत, तार्किकता और सा....<br />.<br />.<br />"अपनी बात को इतनी ताकत, तार्किकता और साफगोई रखने वाली शानदार रचना पढ़ पाने का अवसर पहले कब मिला था यह याद नहीं है।"<br /><br />आदरणीय द्विवेदी जी से पूरी तरह सहमत...<br /><br /><b>"जो भगवान को मानते हैं व उसकी शक्ति में विश्वास करते हैं वे यह भी समझ सकते हैं कि यदि वह वही है जैसा वे मानते हैं तो उसमें इतनी शक्ति तो होती ही कि जिसे वह कपड़ों में ममी की तरह लपेटना चाहता उसे अधिक नहीं तो कम से कम फर से तो ढक ही देता!यह वह कुत्ते, बिल्ली, शेर, चूहे आदि के लिए कर सकता था तो मानवी के लिए क्यों नहीं? वैसे तो वह सर्व शक्तिमान उसे लबादे में भी जन्म दे सकता था। या फिर लबादा उतारते से ही मौत के घाट उतार सकता था।<br />तो भाई मेरे, यह समस्या ईश्वर की नहीं है। यह समस्या आपकी आँखों की है। अब यदि सूरज की किरणों से आप परेशान होते हैं तो धूप का चश्मा कौन पहनता है? आप ना? सूरज को तो न आप ढक सकते हैं न नष्ट कर पाते हैं, सो अपनी आँखों को चौंधियाने से बचाने को स्वयं ही कूछ उपकरण पहन लेते हैं। आप तो पुरुष हैं,सामर्थ्यवान हैं, क्यों नही ऐसा कुछ खोज लेते जिसको पहन आपको सब नारियाँ कपड़ों में लिपटी नजर आएँ। आपकी समस्या भी हल हो जाएगी और स्त्री की भी।"</b><br /><br />यह सब पढ़ने के बाद भी संस्कृति-नारी-परिवार-परंपरा-सृष्टि-ईशसत्ता चिंतक लगे हुऐ हैं फलसफा झाड़ने में... जाओ सामर्थ्यवान नरश्रेष्ठों, नारी को लबादा लपेटने के बजाय खुद के लिये ऐसा मर्दाना लबादा इजाद क्यों नहीं कर लेते... जिसमें यह व्यवस्था हो कि तुम्हारी बर्दाश्त से कम कपड़े पहनी नारी देखते ही काला पर्दा पड़ जाये तुम्हारी आंखों पर...और एक मिनट तक पड़ा रहे... तब तक वह अपने रास्ते निकल जायेगी!प्रवीण https://www.blogger.com/profile/14904134587958367033noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-23639066345200459122010-05-08T18:41:47.918+05:302010-05-08T18:41:47.918+05:30"हमें जीना है और अपने मूल्यों पर जीना है, अपन..."हमें जीना है और अपने मूल्यों पर जीना है, अपने लिए जीना है।"<br />सार भी यही है और सच भी - धारा प्रवाह आलेखAnonymousnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-15861860487674108172010-05-08T18:25:29.137+05:302010-05-08T18:25:29.137+05:30यदि नारी-चरित्र सुरक्षित नहीं रहा तो सृष्टि की सत्...यदि नारी-चरित्र सुरक्षित नहीं रहा तो सृष्टि की सत्ता भी सुरक्षित नहीं रह पायेगी क्योंकि नारी में ही सृष्टि के बीज निहित हैं<br />in shabdo kaa arth aur gaharai koi aam aadami samajh hi nahi sakta. isliye jaane bhee do yaaro..... sabako saaaaaaaaab pata hai aur sabhi apne apane svartho aur dabi hui ichchao kee purti me lage hai. fir vo naari ho ya purushjald hi vo din bhi ayega jab polygamy yani striyo ke bahu vivah ko panchali ke udaharan se sahi sabit kiya jayega. aur kaha jayega jab purush bahu vivah ka sakate hai to striya kyo nahi? kyon sonal ji? sahi hai na?<br />ha...ha...ha!योगेश गुलाटीhttps://www.blogger.com/profile/13535999793144019062noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-50413198506905321432010-05-08T17:30:28.122+05:302010-05-08T17:30:28.122+05:30बहुत बढ़िया लेख के लिए बधाई ! दिनेश राय द्विवेदी स...बहुत बढ़िया लेख के लिए बधाई ! दिनेश राय द्विवेदी से सहमत हूँ ! मुझे याद है दिल्ली आने से पहले घर में घुटन्ना ( हलके कपडे का निक्कर ) पहन कर घर में रहते थे नहाते थे ! हमें अपनी बहनों के आगे कभी शर्म नहीं लगी ! मगर दिल्ली के परिवेश में आकर अब संकोच होता है ! शायद पत्नी ने ऐसा कभी नहीं देखा सो उनके टोकने के कारण अब अधोवस्त्र पहन कर कमरे से बाहर नहीं निकल सकते !<br />अच्छे लेख के लिए बधाई आपको !Satish Saxena https://www.blogger.com/profile/03993727586056700899noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-29236541788796667462010-05-08T15:44:10.944+05:302010-05-08T15:44:10.944+05:30आपकी पोस्ट पढ़कर उत्तराखंड के सुदूरवर्ती गाँव की औ...आपकी पोस्ट पढ़कर उत्तराखंड के सुदूरवर्ती गाँव की औरतें घूमने लगती हैं, बिलकुल सटीक चित्रण किया है आपने ....आपका लिखने का अंदाजा आपकी पहचान है इसे हरगिज़ नहीं बदलना चाहिए | ...शेफाली पाण्डेhttps://www.blogger.com/profile/14124428213096352833noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-64630646357846230722010-05-08T15:39:58.680+05:302010-05-08T15:39:58.680+05:30सोनल जी
कौन क्या देखता है या क्या चाहता है यर मायन...सोनल जी<br />कौन क्या देखता है या क्या चाहता है यर मायनें नहीं रखता , अब कोई पुरुष हर बाहरी महिला को या कोई महिला ही हर बाहरी पुरुष को हम विस्तर बनाना चाहे तो क्या ये मुमकिन है नहीं ना । हमारा व्यवहार कैसा है ये ज्यादा मायने रखते है । हमारे देश में पहले परिवार वाद चलता था परन्तु पश्चिम के अन्धांनुकरण के चलते अब ये बाजारवाद में तब्दिल हो गया है , जिसका बड़ा स्पष्ट फंडा है कि जो दिखता वहीं बिकता है , इसके नाम नारी का आये दिंन शोषण हो रहा है जिन्हे ये प्रगतिवादी महिलाएं विकास समझ रही हैं ।Mithilesh dubeyhttps://www.blogger.com/profile/14946039933092627903noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-54323992302204663062010-05-08T15:39:56.149+05:302010-05-08T15:39:56.149+05:30सोनल जी
कौन क्या देखता है या क्या चाहता है यर मायन...सोनल जी<br />कौन क्या देखता है या क्या चाहता है यर मायनें नहीं रखता , अब कोई पुरुष हर बाहरी महिला को या कोई महिला ही हर बाहरी पुरुष को हम विस्तर बनाना चाहे तो क्या ये मुमकिन है नहीं ना । हमारा व्यवहार कैसा है ये ज्यादा मायने रखते है । हमारे देश में पहले परिवार वाद चलता था परन्तु पश्चिम के अन्धांनुकरण के चलते अब ये बाजारवाद में तब्दिल हो गया है , जिसका बड़ा स्पष्ट फंडा है कि जो दिखता वहीं बिकता है , इसके नाम नारी का आये दिंन शोषण हो रहा है जिन्हे ये प्रगतिवादी महिलाएं विकास समझ रही हैं ।Mithilesh dubeyhttps://www.blogger.com/profile/14946039933092627903noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-35446646950393439492010-05-08T15:31:54.943+05:302010-05-08T15:31:54.943+05:30आपने ये लेख तर्क की कसौटी पर कस कर लिखा है तो किसी...आपने ये लेख तर्क की कसौटी पर कस कर लिखा है तो किसी का भी असहमत होने का सवाल ही नही उठता……………एक गम्भीर और चिन्तनीय विषय पर बहुत ही सार्थक लेख्…………………आभार्।vandana guptahttps://www.blogger.com/profile/00019337362157598975noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-20394407734040562582010-05-08T15:11:25.047+05:302010-05-08T15:11:25.047+05:30@मिथिलेश जी
१. 'सादा जीवन, उच्च विचार' की...@मिथिलेश जी <br />१. 'सादा जीवन, उच्च विचार' की उदात्त संस्कृति में पली यह नारी अपने को मात्र सौन्दर्य और प्रदर्शन की वस्तु समझने लगी है<br />नारी का प्रदर्शन नारी के लिए तो नहीं होता ना ..उसे प्रदर्शन की वस्तु बनाता कौन है,और उसका दर्शक वर्ग कौन है ?<br />२. दीवारों पर लगे पोस्टरों और पत्रिकाओं के मुखपृष्ठ पर मुद्रित नारी-शरीर के कामुक चित्र नारीत्व की गरिमा को जिस प्रकार नष्ट कर रहे हैं<br />इन पुस्तकों को छापने वाले से लेकर खरीदने वाले तक निगाह घुमाइए आपके आस -पास ही है <br />३. नारी-चरित्र सुरक्षित नहीं रहा तो सृष्टि की सत्ता भी सुरक्षित नहीं रह पायेगी<br />चरित्र की परिभाषा स्पष्ट करे, सृष्टि का सारा भार नारी पर ही क्यों क्या पुरुष वर्ग का कोई स्थान नहीं ?<br /><br />अगर ये आन्दोलन आप अश्लीलता का बहिष्कार कर चलाये तो बेहतर होगा ..आप खरीदते है इसलिए बिकता है अर्थशास्त्र का सीधा सिद्धांत है ..अगर हिम्मत है तो हर गली नुक्कड़ पर बिकने वाले अश्लील साहित्य ,सीडी की होली जलाइए..अश्लील लगने वाले विज्ञापन का बहिष्कार कीजिये, जनहित याचिका भी डाल सकते है . <br />समाज के पतन की सारी ज़िम्मेदारी नारी पर डाल कर आप हाँथ नहीं झाड सकते.sonalhttps://www.blogger.com/profile/03825288197884855464noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-82947336764921657152010-05-08T14:47:42.330+05:302010-05-08T14:47:42.330+05:30अपनी अपनी ढपली अपना अपना राग is the best policy.अपनी अपनी ढपली अपना अपना राग is the best policy.Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टूनhttps://www.blogger.com/profile/12838561353574058176noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-61136062932887234602010-05-08T14:07:15.301+05:302010-05-08T14:07:15.301+05:30आदरणीय घघूति जी ..नहीं लगता आपको......सब पढ़ के ......आदरणीय घघूति जी ..नहीं लगता आपको......सब पढ़ के .... <br /><br />इस" मेंटल कंडिशनिंग " को फ्लश होते अगले कई साल लग जायेगे ......डॉ .अनुरागhttps://www.blogger.com/profile/02191025429540788272noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-57004336986526366702010-05-08T13:26:01.863+05:302010-05-08T13:26:01.863+05:30आधुनिकीकरण के दुष्प्रभावों से भारतीय नारी भी बच नह...आधुनिकीकरण के दुष्प्रभावों से भारतीय नारी भी बच नहीं पाई है। 'सादा जीवन, उच्च विचार' की उदात्त संस्कृति में पली यह नारी अपने को मात्र सौन्दर्य और प्रदर्शन की वस्तु समझने लगी है। दीवारों पर लगे पोस्टरों और पत्रिकाओं के मुखपृष्ठ पर मुद्रित नारी-शरीर के कामुक चित्र नारीत्व की गरिमा को जिस प्रकार नष्ट कर रहे हैं वह नारी वर्ग के लिये अपमान की बात है,यहाँ जिम्मेदार यह वर्ग खूद ही है । कोमलता, शील, ममता, दया और करूणा संजोने वाली यह नारी अपनी प्रकृति और अपने उज्जवल इतिहास को भूल कर भ्रूण-हत्या, व्यसनग्रस्तता, अपराध और चरित्रहीनता के भोंडे प्रदर्शन द्वारा अपनी जननी और धारिणी की छवि को धूमिल कर रही है। यह समझ लेने की बात है कि यदि नारी-चरित्र सुरक्षित नहीं रहा तो सृष्टि की सत्ता भी सुरक्षित नहीं रह पायेगी क्योंकि नारी में ही सृष्टि के बीज निहित हैंMithilesh dubeyhttps://www.blogger.com/profile/14946039933092627903noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-17739553227270462812010-05-08T13:06:34.933+05:302010-05-08T13:06:34.933+05:30आपकी प्रत्येक बात से सहमत हूँ. सभ्यता और संस्कृति ...आपकी प्रत्येक बात से सहमत हूँ. सभ्यता और संस्कृति के नाम पर औरतों को क्या पहनना चाहिये, क्या करना चाहिये, कहाँ जाना चाहिये, कैसे उठना-बैठना चाहिये... ये सब बातें बन्द हो जानी चाहिये. बहुत तार्किक और सटीक लिखा है आपने.<br />@ बेनामी, घुघूती बासूती मैम कितनी ज्ञानी हैं, ये आपको बताने की ज़रूरत नहीं है. रही बात हमारी संस्कृति की तो शास्त्रों से कहीं अधिक समाज के विषय में साहित्य से पता चलता है क्योंकि शास्त्र "क्या करना चाहिये" ये बताते हैं और साहित्य "समाज का दर्पण" होता है. भारतीय संस्कृति के बारे में संस्कृत साहित्य से पता चलता है... पहले आप उसका अवगाहन कर लीजिये, फिर आकर तर्क कीजिये... और हाँ "अमरुक शतक" ज़रूर पढ़ लीजियेगा... पर उस तर्क की बात तो तब आयेगी, जब हम ये मानें कि सदियों पहले जो किताबों में लिखा था, हम उसके अनुसार आचरण करें या सातवीं सदी में जैसे कपड़े पहने जाते थे, वैसे कपड़े पहनें, जबकि यहाँ ये कहा जा रहा है कि कौन क्या पहने ये उसी पर छोड़ दीजिये... वो खुद तय करे... चाहे स्त्री हो या पुरुष... पर वेश-भूषा की बातें औरतों के लिये ही ज्यादा होती हैं. इसलिये यहाँ औरतों की बात की गयी है.<br />@ गौरव अग्रवाल, अभी आप घुघूती बासूती जी को और पढ़िये, फिर कोई राय कायम कीजियेगा.muktihttps://www.blogger.com/profile/17129445463729732724noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-57858967982120753332010-05-08T12:48:01.900+05:302010-05-08T12:48:01.900+05:30अंत में यही कहूँगा कि हम जो पहन रहे है वो गलत है य...अंत में यही कहूँगा कि हम जो पहन रहे है वो गलत है या सही इसकी समझ हमें खुद विकसित करने की आवश्यकता है.. कोई और इसे तय नहीं करेगा..!कुशhttps://www.blogger.com/profile/04654390193678034280noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-88439591673160487492010-05-08T12:44:00.315+05:302010-05-08T12:44:00.315+05:30वर्तमान की किसी भी असहज प्रणाली को पुरातन काल की स...वर्तमान की किसी भी असहज प्रणाली को पुरातन काल की सहजता के चलते निभाते जाना मुर्खता होगी.. मरुस्थलीय इलाको वाली सम्भावना बिलकुल उचित जताई है आपने.. हम क्या पहनते है और क्या नहीं इसका अधिकार सिर्फ हमें है.. वही समाज का एक हिस्सा होने के नाते ये हमारी भी जिम्मेदारी बनती है कि हम स्थान, माहौल अथवा मौसम के अनुकूल कपडे पहने.. किसे क्या पहनना चाहिए से बेहतर है कब क्या पहनना चाहिए.. और ये निर्णय भी हमें खुद लेना है.. यदि इस मामले में कोई गैर जिम्मेदाराना हरकत होती है तो आपत्ति तो बनती ही है.. यदि कोई पुरुष या स्त्री ऐसे वस्त्र पहने जो उस स्थान के अनुकूल अमर्यादित हो तो किसी को भी आपत्ति हो सकती है.. और ये सही भी है |कुशhttps://www.blogger.com/profile/04654390193678034280noreply@blogger.com