Monday, April 12, 2010

सहज पके सो मीठा होय ?

समय के साथ बहुत सारी लोकोक्तियाँ व मुहावरे अपनी सार्थकता खो बैठे हैं या उन्हें पलट ही दिया गया है। बचपन से सुनते आए थे कि धीरे धीरे पका हुआ फल ही स्वाद होता है। पेड़ पर पका हुआ तो सबसे स्वाद होता है। किन्तु आज फलों को पेड़ पर पकाना तो दूर की बात है उन्हें पुआल में या पत्तों में पकाने का धैर्य भी नहीं रह गया है। अब फल को पकाने की ऐसी जल्दी रहती है कि फलों के ऊपर केल्शियम कार्बाइड पावडर डाल देते हैं। यह एसीटीलीन गैस बनाने में भी प्रयुक्त होता है। इससे आम व केले जैसे फल फटाफट पक जाते हैं। ग्राहक के स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ता है यह अलग बात है। इससे सिरदर्द, चक्कर, मूड बिगड़ना, अतिनिद्रा, भ्रम, याददाश्त खोना आदि समस्याएँ हो सकती हैं।

अभी पिछले साल तक ही मैं अपने बगीचे के आम पुआल में या पत्तों में पका रही थी। केले के लिए तो कुछ भी नहीं करना होता बस जब पेड़ में एक दो केले पीले पड़ने लगें तो पूरे गुच्छे को तोड़कर घर में किसी रस्सी या तार पर टाँग दिया जाता है और फिर केले ऊपर की तरफ से पकने शुरू हो जाते हैं। एक या दो लगभग दर्जन केलों वाले छोटे गुच्छे रोज तैयार हो जाते हैं। सीताफल को भी यदि जल्दी हो तो पत्तों व कागज में किसी गत्ते के डिब्बे में डाला जा सकता है अन्यथा वे यूँ ही पड़े पड़े पक जाते हैं। बस ध्यान यह रहना चाहिए कि लगभग तैयार फल तोड़ा गया है।

जब बहुत कच्चा फल तोड़कर जबर्दस्ती पकाया जाता है तो उसमें मिठास कम होता है। दुकानदारों ने इसका भी इलाज ढूँढ लिया है। सुना है कि फलों को भी सुई लगाई जाती है, मिठास बढ़ाने के लिए सेकाहैरिन की, रंग के लिए नकली रंगों की ! यदि फल कुछ अधिक ही मीठा हो तो खुश होने की बजाए शंका हो जाती है। खरबूजे व तरबूज को प्रायः सुई द्वारा मीठा बनाया जाता है। जब मुझे कोई दुकानदार कहता है कि यह फल शक्कर सा मीठा है तो मैं कहती हूँ कि नहीं भाई, मुझे बस स्वाभाविक हल्का सा मीठा ही चाहिए।

जब बाज़ार में हम चमकते हुए सेब, नाशपाती आदि देखते हैं तो समझ लेते हें कि उनपर मोम लगा हुआ है। विदेशों से आए फलों पर प्रायः खाने योग्य मोम होता है किन्तु अपने यहाँ कैसा भी मोम लगा दिया जाता है। इसे हटाने के लिए फल को ५ मिनट के लिए गरम पानी में डुबाना पड़ेगा। या फिर छिलका उतारना होगा। और हम सदा से पढ़ते आए हैं कि खाने वाले छिलकों को खाना चाहिए, सबसे अधिक विटामिन एन्टी औक्सीडेन्ट उनमें ही होते हैं। अभी २५ साल पहले तक एक एक सेब कागज में लिपटा हुआ और दस किलो की पेटी में आता था व महीने भर भी बाहर रखने पर खराब नहीं होता था। शायद तब वह साल भर नहीं मिलता था। परन्तु जब मिलता था बिना चोट का, बिना मोम का मिलता था।

गाजर प्रायः लाल रंग के पानी में डुबाए जाते हैं। मैंने तो छिले हुए मटरों, बीन्स व लौकी पर भी हरा रंग लगा हुआ देखा है। प्रायः आमरस में आम कम और पपीते, केले का गूदा व स्टार्च होता है। खैर पपीता तो एक लाभदायक फल है। हमारे यहाँ दूध के नाम पर हम ना जाने क्या क्या पी जाते हैं तो आमरस की जगह पपीता रस तो ठीक ही है।

शायद हमें थोड़े कम सुन्दर फलों को खरीदना चाहिए, अधिक ही चमकीले या चटकीले फलों को छोड़ देना चाहिए। इस साल तो मुझे भी बाज़ार के ही आम व अन्य फल खाने हैं सो मैं तो थोड़े ठीकठाक शक्ल के फल ही खरीदूँगी, सुन्दर फल नहीं।

घुघूती बासूती

बस यूँ ही .....

फलों की बात करते हुए याद आ रही है कुछ शब्दों की जिनके बहुत से बन्धु मेरी माँ के युग के साथ खो जाएँगे और बहुत सारे मेरी पीढ़ी के साथ। एक शब्द है टपका, याने जो फल पेड़ पर पककर भूमि पर गिरे। सबसे स्वादिष्ट टपका ही होता है। और भी शब्द हैं। अब तो एक स्टैन्डर्ड भाषा, स्टैन्डर्ड फलों, फसलों की जातियों व प्रजातियों का समय है। बहुत से फल व उनकी प्रजातियाँ गायब होती जा रही हैं। विचित्र विचित्र फल खाने को मिलते थे हमारे बचपन में अलग अलग क्षेत्रों में। मुरैना जिले में एक फल खाया था भद्दा। पीले रंग का अदरक के आकार का फल या कन्द। उसके बाद कभी नहीं देखा। बचपन में शिवालिक की पहाड़ियों के जंगलों में भी जो जंगली फल खाए थे उनमें से बहुत सारे वापिस वहीं जाने पर मेरी बच्चियों को खाने को नहीं मिले। लगभग ४९ साल पहले साढ़े पाँच साल की उम्र में पिंजौर में बैसाखी के मेले में जो विशालकाय कन्द के टुकड़े खाए थे उनका स्वाद भी याद है किन्तु नाम भूल गई हूँ। पहाड़ में जंगलों में घास काटते हुए स्त्रियों को एक बेल मिल जाती थी, जिसके नीचे तरुड़ नाम का कन्द होता था जो भूनकर या उबालकर खाया जाता था। लगता नहीं कि अब पहाड़ों में जंगलों में तरुड़ मिलता होगा। शब्द खो रहे हैं, भाषा खो रही हैं, स्वाद खो रहे हैं, फल, फूल, पेड़, पौधे खो रहे हैं। शायद यही समय का चक्र है।

घुघूती बासूती

26 comments:

  1. सबसे दुखद पक्ष यही है, अब फलों,सब्जियों और अनाज में सुन्दरता है मगर वह पुरानी स्वाद विलुप्त हो चली है,आपनें बहुत समसामयिक विषय पर लेखनी चलाई है,धन्यवाद.

    ReplyDelete
  2. बहुत ही सुन्दर बात कही है. अपने १० दिन के प्रवास से कल ही केरल से लौटा हूँ. वहां हमने "कमल कटहल" देखी परन्तु खरीदने के लिए नहीं मिली. यह २ किलो से ज्यादा नहीं होती. एकदम गोल. बहुत ही मीठा होता है. तरुड तो मालवा में खूब मिलता है. यहाँ का नाम याद नहीं आ रहा

    ReplyDelete
  3. अब तो हर चीज मे मिलावट और नकलीपन आ गया है....आज से४०-५० वर्ष पहले जो फल सब्जीया व दूध दही घी आदि मे जो स्वाद होता था....आज वह स्वाद नदरद हो चुका है।

    बहुत सामयिक पोस्ट लिखी है। धन्यवाद।

    ReplyDelete
  4. एक जरूरी पोस्ट.

    ReplyDelete
  5. अब चीज या जीव उत्‍पन्‍न नहीं होते, उत्‍पादि‍त होते हैं। आपने जि‍स समय चक्र का जि‍क्र कि‍या है, अपने रोटेशन में बीता हुआ कल भी जल्‍दी आएगा, पर तब जब ऐसा-वैसा खाकर सबकुछ नष्‍ट हो जाएगा।

    ReplyDelete
  6. हमेशा की तरह विचारपरक पोस्ट !

    ReplyDelete
  7. लगता है खानपान सब समय के साथ बदलता है। पुराने स्वाद अब कहीं नहीं हैं।

    ReplyDelete
  8. Haan...aur jo kisaan nahi karte unka mazaaq udaya jata hai..
    Waise yah sheershak jeevan ke liye bhi kitna saarthak hai...sahajtaa se aage badhtee zindagee ko sweekaar karne waala wyaktee hamesha achha lagtaa hai..

    ReplyDelete
  9. बहुत पुरानी याद दिलाई जब हमारे घर पर केले और सीताफल के पेड़ होते थे और उन्हें ऐसे ही पकाया जाता था.

    अब तो हाईब्रीड का जमाना है हर तरफ.

    ReplyDelete
  10. बहुत बढ़िया लेख...जागरूक करने वाला....लेकिन कहाँ तक सोचेंगें ...हर चीज़ में मिलावट है....अब तो यदि शुद्ध खाने को मिल जाये तो कोई पचा भी नहीं पायेगा....आज ही ZEE News में दिखाया जा रहा था की बाज़ार में फलों का रस और मैंगो शेक में क्या मिलावट होती है ...आइसक्रीम में भी सब मिलावट....फिर क्या खाए इंसान?

    ReplyDelete
  11. सुंदर लेख ...बहुत सी खोती हुई चीजों का जिक्र किया है आपने ...क्या हम कुछ बचा सकते हैं...इन विलुप्त होते फलों, वृक्षों , फूलों को ??? आपका लेखन इन्हें बचाने की एक कोशिश ही तो है ...ऐसे लेखों की हमें बेहद जरूरत है जो लोगों को जागरूक बनाए ।

    ReplyDelete
  12. Bazarwad ke is daur me sahaj pakne ki ummeed??

    vaise mai to aaya tha aapke blog pe ki hal hi me mumbai mehui kuchh bloggers ki meet par kuchh padhne ko milega but????????
    aisa kya hua jo ek line bhi nahi bloggers ke milne par, jabki ek bar nahi 2-3 bar mile log?

    ReplyDelete
  13. सहज पके तो मीठा होए ...
    मेरे घर में लगे पपीता के पेड भी यही बताते हैं ...
    इतना मीठा स्वाद कि क्या कहूँ ...
    यही स्वाद सहज बने इंसानी रिश्तों में होता है ...!!

    ReplyDelete
  14. अच्छी बातें और सामयिक !

    ReplyDelete
  15. मौसम आने से पहले ही बाजार में फलों की आमद शुरू हो जाती है जिससे अधिक भाव मिल जाता है इसी कारण कच्‍चे फलों को तोड़ना प्रारम्‍भ हुआ। लेकिन यह स्‍वास्‍थ्‍य के साथ कितना खिलवाड कर रहा है इसे कोई नहीं देख रहा है। बस हम सब भी जल्‍दी ही टपक जाएंगे।

    ReplyDelete
  16. आपने सही मुद्दा उठाया है. मैंने एक बार न्यूज़ में देखा था कि दिल्ली और आस-पास की हरी सब्ज़ियाँ कीटनाशकों से प्रदूषित हो गई हैं. तब से मैं उन्हें पाँच मिनट तक नमक गर्म पानी में भिगोने के बाद ही बनाती हूँ. फिर अभी कुछ दिन पहले सुना कि फलों में तरह-तरह के रंग और उनको ताज़ा रखने के लिये इन्जेक्शन वगैरह की बात. तबसे दिल्ली में फल खरीदने में डर लगता है. आपकी बातें उपयोगी हैं, हमें फल की शक्ल-सूरत नहीं देखनी चाहिये, बल्कि जो फल स्वाभाविक दिख रहा हो वही लेना चाहिये.
    और जहाँ तक जंगली फलों का सवाल है. मैंने भी बचपन में जंगल-जलेबी नाम का एक फल खाया था. पता नहीं अब उसके पेड़ बचे हैं कि नहीं.

    ReplyDelete
  17. मुक्ति जी, जंगलजलेबी अभी पिछले साल तक बहुत आराम से मिल रही थी।
    घुघूती बासूती

    ReplyDelete
  18. इस भारत नाम के देश में हर आदमी दूसरे को धोखा दे रहा है.

    ReplyDelete
  19. अप्राकृतिक तरीकों से पकाये फलों में वह बात कहाँ ।

    ReplyDelete
  20. आज नकली चीजो का बोलबाला बढ़ गया है तो सहज कैसे पके

    ReplyDelete
  21. यंहा भी एक कंद मिलता है जिसे रामकांदा कहते हैं,मान्यता है कि स्वंय भगवान राम वनवास के दौरान उस कंद को खाते थे.अच्छी और ज़रुरी पोस्ट.

    ReplyDelete
  22. हमारा खेत अधबंटाई पर है। उसमें रासायनिक खाद या कीट नाशक न होने का प्रश्न नहीं उठता। हां उसके स्टोरेज में कीटनाशक का प्रयोग होता है। वह ठीक नहीं है।

    ReplyDelete
  23. आप सारे लोग बहुत बड़े खवाइए लग रहे हैं ! :)
    खैर मैं तो अभी यह सब पढ़कर यही कहूँगा कि मैं तो अभी बच्चा हूँ, अभी बहुत संसार जानना शेष है.
    ये कई सारे फलों के नाम तो मैंने पहली बार सुने हैं हैं.
    कल्पना कीजिए कि दस साल के बाद की पीढ़ी क्या कहेगी, सोचेगी और खाएगी.
    शायद यहाँ लिए गए नामों में से कई फल तो मैं कभी नहीं खा सकूंगा क्योंकि वे क्षेत्रीय होते हैं और सम्पूर्ण भारतवर्ष में नहीं उगाये जाते.

    ReplyDelete
  24. आज तो आदमी तो आदमी जानवरों को भी अच्छी चीज का स्वाद भूल गया है। पिछले दिनों सफर में बचे पराठों, वह भी घर के घी के बने हुए, में से एक दिल्ली पहुंच कुत्ते को डाला तो वह भी उसे तीन-चार बार सूंघ कर छोड़ गया। हालांकि वह नरम और खाने लायक था। अपनी तरफ से हमने उदारता दिखाते हुए अच्छे घी का न्योता दिया था उस श्वान पुत्र को।
    घर जा कर जरूर बोला होगा, भागवान पता नहीं लोग क्या-क्या खिलाने की कोशिश करते हैं। आज तो मैं बच ही गया। :)

    ReplyDelete
  25. तरुड़ पढ़ कर तरुड़ की याद ताजा हो गई। बचपन में खूब तरुड़ खाए थे। हमारे यहां के घनघोर जंगलों में खूब तरुड़ होते थे- कोमल भी और कांठी भी। आसपास के पेड़ों और झाड़ियों पर उनकी पान जैसी पत्तियों से ढकी बेलें फैली रहती थीं। और हां, हमारे जंगल जिम कार्बेट की कर्मभूमि रहे हैं। तरुड़ के स्वाद ने ही मेरे गांव के लोगों को इसे पालतू बनाने के लिए उकसाया होगा। हमारे घरों के आसपास पालतू तरुड़ की बेलें झूलती रहती थीं और उनके बड़े-बड़े कंद बाहर से गुलाबी होते थे। जब मैं पंतनगर विश्वविद्यालय में था तो मेरे बाज्यू ने वहां मेरे आंगन की बगिया में तरुड़ के बीज बोए थे। वहां वे खूब फले-फूले।
    बहरहाल, तरुड़ है क्या? इसका वानस्पतिक नाम डायोस्कोरिया प्रजाति है। इसकी पचासों जातियां पाई जाती है। डायोस्कोरिया देश के विभिन्न भागों में होता है।
    जहां तक शब्दों और चीजों के खो जाने का सवाल है, वे तेजी से गायब हो रही हैं हाल ही में गांव में पाटी-दवात के लिए पूछा तो स्कूली बच्चे इन्हें जानते भी नहीं थे। बैलों के मुंह पर प्लास्टिक के ‘म्ह्वांळ’ बंधे थे। गोरु-भैंसें खूंटें पर प्लास्टिक की रस्सियों से बंधी थीं और बाराती मालू की पत्तियों के दोने-पत्तलों के बजाय प्लास्टिक के दोने-पत्तलों में खाना खा रहे थे।
    ....घुघुतीऽ, कां उसा मानुख रैगीं, कां उसो बखत!!

    ReplyDelete
  26. आज फल बारहों महीने उपलब्ध होने का तर्क दिया जाता है, पर दरअसल, यह विकल्पहीनता की स्थिति है, जिसमें केमिकल से पकाया फल न खाने वाला व्यक्ति बेहद मजबूर हो गया है !

    ReplyDelete