Tuesday, November 24, 2009

श्लील और अश्लील

श्लील और अश्लील
श्लील और अश्लील का रोना रोते ये लोग
जिनके देश में तन ढकने को बहुतों के पास कपड़ा नहीं है
जहाँ बहुतों का पेट कहाँ खत्म होता है और पीठ कहाँ शुरू
यह देखने के लिए कोई विशेष पासबीन (?)सा यन्त्र चाहिए,
जहाँ आज भी नंगी की जातीं हैं गर्भवती युवतियाँ
जहाँ कहीं भी, कभी भी, किसी बुढ़िया को डायन कहकर
नग्न कर दिया जाता है,मुँह काला कर दिया जाता है
या फिर मारमार कर कचूमर कर दिया जाता है,
जहाँ जीवित जला दी जाती हैं, बहुत सी ढकी
और अनढकी भी बहू, बेटी और पत्नियाँ।
जहाँ के पुरुष आज भी खोज रहे हैं,
सिर पर आँचल, पाँव में पायल
वे श्लील व अश्लील का भेद खूब समझते हैं
शायद अपनी कल्पनाओं, भ्रम, तृष्णा,
अपनी असलियत को, वे ही बेहतर जानते हैं
इसीलिए हर जगह,हर वस्त्र में
अश्लील खोज ही लेते हैं।
घुघूती बासूती

23 comments:

  1. जीवन संघर्ष को पूरे बोल्डनेस से खोलती रचना के जरिये जीवन की देखी-सुनी विडंबनाओं को पूरे पैनैपन से बेनकाब किया गया है।

    ReplyDelete
  2. सटीक बात कहती रचना

    ReplyDelete
  3. मुद्दे बहुत हैं, समस्याएं भी। इनके बीच अपनी रोटी-टोपी बचाकर निकलता शख्स भी है।

    श्लील-अश्लील का विवाद तो लगता है सनातन हो गया है। आपने अपनी बात रख दी खरी-खरी।

    ReplyDelete
  4. सही कहा, ऐसे ये भूखे नंगे क्या श्लील और अश्लील में फर्क कर पायेंगे !

    ReplyDelete
  5. Anonymous5:35 pm

    excellent poem mam

    ReplyDelete
  6. बहुत सुन्दर रचना!

    श्लीलता या अश्लीलता तो वस्त्रों में नहीं हमारे अपने भीतर होती है।

    ReplyDelete
  7. मर्मस्पर्शी रचना!!


    पासबीन (?) का एक अनुपम प्रयोग!!

    ReplyDelete
  8. इससे क्या फर्क पड़ता है की अश्लीलता देह के किस हिस्से पर और किस आब्जेक्ट के प्रति अभिव्यक्त होती है ! यह बात भी मायने नहीं रखती की आब्जेक्ट नें किस प्रकार का वस्त्रविन्यास अपनाया हुआ है ! अश्लीलता तो हमारे मनोंसंसार का अंश है , इसलिए हो सके तो मनोजागतिक वस्त्रों की चिंता की जाये !

    ReplyDelete
  9. बहुत अच्छी,शील,और अशलील का भेद बताती रचना ।

    ReplyDelete
  10. आपकी रचना सुन्दर लगी |
    श्लीलता या अश्लीलता प्राथमिक रूप से
    दृष्टि - सापेक्ष है , बाद में दृश्य का नंबर आता है |
    कविता में सही बहस उठाई आपने ...
    आभार ... ...

    ReplyDelete
  11. कविता नहीं एक दम अनावृत सत्य है यह!

    ReplyDelete
  12. कविता के माध्यम आपने सच्चाई बताई है .

    ReplyDelete
  13. दिल को छु गई ये सच्ची रचना।

    ReplyDelete
  14. सभ्यता के साथ शुरू होती है श्लील और अश्लील की बहस...जिनके पेट भरे होते हैं वे इसमे शामिल होते हैं..नारी-पुरुष के विविध सौन्दर्य वर्णन के बीच श्लील व अश्लील की गुंजायश वे ही खोजते हैं...इसमे वे बाहरी हैं जिनकी आँखें पेट की हड्डियों के उभारों के इतर नहीं जा पाती...!!!.....!!!

    ReplyDelete
  15. क्या है ये? हमारी समझ मैं तो कुछ नही आया,यार तुकबंदी करनी है तो ज़रा ढंग से करो,क्यों अपने आप को कवि समझ रहे हो क्या? मज़ा खराब कर दिया,दोबारा मत लिखना ऐसा, नही तो टमाटर का दाम ज़रा ज़्यादा है, मगर ऐक दो किलो तो खराब कर ही सकता हूँ.

    ReplyDelete
  16. अवधिया जी की टिप्पणी ही मेरे विचार हैं

    प्रणाम

    ReplyDelete
  17. विद्रूप !

    ReplyDelete
  18. Exillent... अल्फ़ाज़ नहीं हैं.. उन लोगों के लिए करारा जवाब.. जो समाज के ठेकेदार बनते हैं...

    ReplyDelete
  19. बहुत स्वाभाविक आक्रोश है यह

    ReplyDelete
  20. बहुत ही सुन्दर रचना है और पूरा सत्य | बहुत ही सधी हुई भासा और बहुत ही बढ़िया प्रस्तुतीकरण | आभार |

    ReplyDelete