Monday, June 08, 2009

बिटिया तो है फूल की डाली... पर पहले कर दो उसे गर्भ से खाली

बात तब की है जब हम दिल्ली में थे। वहीं एक जान पहचान वाले सज्जन भी रहते थे। व्यवसायी हैं। हमारे साथ बिटिया और पुत्री वर (वही शब्द जमाता, जमाई, दामाद, जो न जाने क्यों मुझे जरा भी नहीं सुहाता) हमारे फ्लैट में रह रहे थे। तो फ्लैट के कुछ काम के सिलसिले में उनसे बात हुई। बात-बात में घुघूत की सेवानिवृत्ति की बात निकल आई। चर्चा होने लगी कि उसके बाद हम कहाँ रहेंगे आदि। फिर बात खर्चे पर चली आई- खर्चा कौन उठाएगा। स्वाभाविक था कि बिटिया और पुत्रीवर ही दिल्ली में रहते थे, सो वे भुगतान करेंगे। हम बाद में उन्हें पैसा लौटा दें या नहीं, यह अलग बात थी। हमने कहा कि सेवानिवृत्ति के बाद हम उस शहर में रहना चाहेंगे जहाँ दोनों या कम से कम एक बेटी रहती हो। उन्‍होंने जानना चाहा ऐसा क्यों। हमने कहा कि भाई, कभी कोई दुख तकलीफ हुई तो। हमारी देखभाल करने वाली तो यही दो बेटिया है। वे ध्यान रखेंगी। उनकी नजर में हमारा यह फैसला सही नहीं था।


उन महाशय के अनुसार बेटियों से दुख तकलीफ में सहायता लेना गलत था। उनके मुताबिक, बेटियाँ तो फूलों की डाली हैं उन्हें तो बस देना ही देना होता है, उनसे कुछ भी लेना गलत है। आर्थिक सहायता तो दूर की बात... कष्ट में सहायता लेना भी गलत है।


उनकी ये बातें सुनकर मुझे अपने बचपन और किशोरावस्था में पढ़े स्कूली पुस्तकों के वे लेख याद आए जिनके कारण हिन्दी से मेरी शत्रुता सी हो गई। उनमें से एक बिटिया के विवाह व विदाई के बारे में था। आह, क्या समा बाँधा था- लड़की पराई होने का। बाबुल से विदाई का। बाबुल के घर की रोप का दूसरे घर में रोपे जाने आदि का! विवाह के समय प्रज्‍ज्वलित अग्नि में लड़की का भूतकाल जल जाने का और उसका नया जन्म होने का! विदाई के समय माता पिता, भाई बहन के फूट-फूटकर रोने का! जैसे वह मर ही गई हो। कहने को कितना मधुर परन्तु यथार्थ में कितना जहरबुझा! मेरी समझ में बेटियों के बारे में ऐसे लेख व लोक गीत ही तो कन्या भ्रूणों की हत्या का कारण होते हैं।


बिटिया, एक मधुर किन्तु पराया अहसास! उसे तो किसी और के घर जाना है। तभी तो आपको अपने घर के लिए चिराग की आवश्यकता है। सो उसे पैदा करने की चेष्टा में या तो पुत्रियों की पंक्ति खड़ी कर दीजिए या फिर भ्रूण परीक्षण करवाइए। ऐसे में घुघूती कितनी विषाक्त हो जाती है, केवल वही जानती है।


हमारे उन मित्र के मुताबिक हम बेटियों पर किसी सहायता के लिए कभी भी निर्भर नहीं होना चाहिए। आप सोचेगें कि वाह क्या विचार हैं, बेटियों को अपनी देखरेख, चिन्ता से मुक्त कर देने वाले! किन्तु ये विचार जहाँ बेटियों को माता-पिता की हर चिन्ता से मुक्त करते हैं, वहीं यदि दो से अधिक बेटियाँ होने की सम्भावना हो तो आने वाली बेटियों को संसार से भी मुक्त कर देते हैं। उन साहब की भी ऐसी कहानी थी। वे शायद नहीं जानते थे कि मैं उनकी यह कहानी जानती हूँ और उनका बेटी प्रेम भी।


बात ऐसी है कि उनकी और हमारी शादी आसपास ही हुई थी। उनकी भी दो बेटियाँ हुईं और मेरी भी। उनकी दोनों बेटियाँ मेरी बेटियों से कुछ दिन ही छोटी-बड़ी थीं। फिर एक दिन पता चला की उनकी तीसरी संतान होने वाली है। उन साहब ने पता कराया तो मशीन ने बताया कि वह संतान भी बेटी ही होगी। सो पाँचवें या छठे महीने में जब बेटी का होना एकदम पक्‍का हो गया तो उन्‍होंने इस अनचाही बेटी से छुटकारा पाने का फैसला किया। उस अजन्मी बेटी को जबर्दस्ती जन्म दिया गया। हाँ, इतने महीने बीतने पर गर्भपात नहीं होता। इतने माह में गर्भपात गैरकानूनी भी है और खतरनाक जानलेवा भी। सो, जबरन जन्म देकर मारा जाता है। प्रीमैच्योर लेबर पेन के लिए जबरन नसों में दवा चढ़ाई जाती है। बच्ची जबरन समय से पहले पैदा की जाती है और मार दी जाती है। तो उन्‍होंने तीसरी बेटी को यह तरीका अपनाकर दुनिया में आने से रोक दिया। यह थी उनकी तीसरी फूलों की डाली, जो समय से पूर्व ही माँ के गर्भ से निकाल कर मार दी गई। ... जानते हैं, उस अजन्‍मी बेटी की माँ का क्‍या कहना था। माँ का कहना था कि वह बिल्कुल उनकी बड़ी बेटी सी दिखती थी। यानी बच्ची के नैन-नक्श बन चुके थे, कैसी दिखती है, पता चल सकता था। लेकिन उस फूल की डाली को बढ़ने नहीं दिया गया।


और यह सब उस औरत को करना पड़ा, जो दुआ करती थी कि उसे बेटी हो। हुआ यों कि जब उन सज्‍जन की पत्‍नी पहली बार गर्भवती हुई ( मैं भी उस वक्‍त माँ बनने वाली थी), तब कहती थी कि सास, ससुर व पति को मुँडा (लड़का) चाहिए इसलिए मैं प्रार्थना करती हूँ कि कुड़ी( लड़की) ही होए। केवल उनको जलाने को यह कहती और मजे लेती। वह जीवंत स्त्री तीसरी बेटी के समय तक इतनी कमजोर पड़ चुकी थी कि वह उसे निकाल फेंकने को तैयार हो गई! बिना किसी विरोध के। उफ, बेटे की चाह में एक औरत (माँ) को कितना मजबूर बना दिया जाता है।


अब आइए शुरुआत के मुद्दे पर चलते हैं। यानी बेटियों से मदद लेने की बात। मैं पूछती हूँ कि क्या गलत है कि यदि मैं अपनी बेटियों को महज फूलों की डाली न मानकर व्यक्ति मानूँ। ऐसा व्यक्ति जो अपने माता-पिता का उत्तराधिकारी बनें। उनके बुढ़ापे और तकलीफ की घड़ी में उनका ध्यान भी रखे!


अब आप ही बताइए क्या होना बेहतर है,-फूलों की ऐसी डाली जो यदि नापसंद हो तो काटकर फेंक दी जाए या केवल व्यक्ति जिसके अधिकार भी हैं तो कुछ उत्तरदायित्व भी हैं... और हाँ जिसे साथ में जीने का अधिकार भी है।


मुझे तो संतान ही चाहिए थी, जो चाहे पुलिंग हो या स्त्रीलिंग परन्तु जिन्हें मैं प्यार करूँ और अच्छे व्यक्ति के रूप में बड़ा करूँ। मुझे फूलों की वे , आह, कवितामय डालियाँ नहीं चाहिए थीं जिनकी संख्या जितनी मैं चाहूँ उतनी ही हो। जिन्हें मैं 'बाबुल की दुआएँ लेती जा' गीत गाकर अपने संसार से विदा नहीं करूँ,जो 'बाबुल असी चिड़ियाँ दा ....' गाकर मुझसे विदा न हों, सदा मेरा संसार बनी रहें और जो मेरा सहारा हों और जिनका मैं सहारा होऊँ, किसी कर्त्तव्य में बन्ध कर नहीं, केवल स्नेह के बन्धन के कारण!


घुघूती बासूती


पुनश्चः इन्हें भी पढ़िए।


१ चूरन के साथ बछड़े वाली गाय का दूध पियें बेटा होगा
२ तो जिमाने के लिए कन्या कहाँ से आएँगी
३ जब न गायब बेटियों से पूछा जाएगा
४ अनचहाही मुसलमान बेटियाँ.. जमीनी हकीकत
५.लड़की मरै घड़ी भर का दुख, जिये तो जनम भर का
६.बिटिया का खौफ बना बेहिसाब मुनाफे का धंधा


घुघूती बासूती

14 comments:

  1. Anonymous1:13 am

    लड़कियों को हमेशा से ही पराया माना जाता रहा है. बचपन से ही उन्हें "पराया धन", "तुम्हें तो एक दिन अपने घर जाना है" जैसे जुमले सुना सुनाकर बड़ा किया जाता है. कितनी तकलीफ होती होगी ना उन्हें अपने ही घर में पराया शब्द सुनकर......अरे जब जाना है तब जाना है, अभी से ही ऐसा ज़हर क्यों घोल रहे हो......??

    सशक्त आलेख......

    साभार
    हमसफ़र यादों का.......

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  2. बेटी और बेटे में भेदभाव किये बिना अपेक्षायें रखनें और व्यवहार करने में कुछ भी गलत नहीं है आखिर बेटी हो या बेटा वह अपनी सन्तान,अपना अंश ही तो है !
    मैं बेटी/बेटे को 'व्यक्ति' मानने के बजाये 'संतान' कहना ज्यादा पसंद करूंगा !

    हमारा दुर्भाग्य है कि हम नये संबंधों की शुरुवात ही 'व्यवसाय' से करते हैं ! आपके परिचित , व्यवसायी थे इसलिए फूलों की डाली और फलों के राजा का भेद समझते होंगे ! हर व्यवसायी यही करेगा ! व्यवसायी नफा नुकसान देखता है , रिश्ते नहीं ! मेरे ख्याल से ऐसे माता पिता बिरले ही होंगे जो व्यवसायी नहीं सिर्फ माता पिता होते है !
    अच्छे माता पिता को बेटी के नाम पर अपराधबोध क्यों होना चाहिए ?

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  3. बेटियों के बारे में ऐसी पोस्‍ट कम ही दिखती है। घुघूती बासूती जी आपको इसके लिए बधाई। ... काश हमें ऐसी पोस्‍ट लिखनी ही न पड़ती तो कितना अच्‍छा होता। बेटियों के बारे में हम जितने अधम और हिप्‍पोक्रेट हैं, शायद ही किसी और चीज के बारे में होंगे।
    आपने विदाई गीतों का जो विश्‍लेषण प्रस्‍तुत किया है, वह वाकई में बहुत अच्‍छा है। मैं गर्भपात वाली बात में सिर्फ एक तथ्‍या का इजाफा करना चाहता हूँ।
    लिंग के बारे में आमतौर पर तीसरे महीने के बाद पता चलता है। तब तक गर्भपात कानूनी रूप से अवैध हो जाता है। यानी अगर कोई चौथे महीने के आसपास गर्भपात करा रहा है तो यकीन जानिए 99 फीसदी मामलों वह कन्‍या भ्रूण का गर्भपात है यानी लिंग चयनित गर्भपात। उम्‍मीद है, आगे भी इस विषय पर आपकी पोस्‍ट पढ़ने को मिलेगी।

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  4. नासिर जी, जिस जमाने की मैं बात कर रही हूँ वह तो आज से लगभग 25 वर्ष पहले की है। तब तो शाaय्द यह सब नया नया था और शायद बहुत देर से ही पता लग पाता था।
    घुघूती बासूती

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  5. नासिर जी, जिस जमाने की मैं बात कर रही हूँ वह तो आज से लगभग 25 वर्ष पहले की है। तब तो शायद* यह सब नया नया था और शायद बहुत देर से ही पता लग पाता था।
    घुघूती बासूती

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  6. जनचेतना का विकास ही ऐसी अमानवीय मानसिकता और परम्पराओं को निर्मूल कर सकता है। इस दिशा में आपके प्रयास एक सार्थक पहल कहे जा सकते हैं। साधुवाद।

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  7. बहुत सधा हुआ सशक्त आलेख. साधुवाद!!

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  8. यह दृष्टिकोण विकसित हो रहा है। समाज को इसे अपनाने में समय लगेगा। लेकिन नई परिस्थितियों में समाज के पास इस के सिवा कोई चारा भी नहीं।

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  9. लड़का और लड़की ! लड़का तो एवरीथिंग ओके, लेकिन लड़की तो बहुत सारे मगर, किन्तु, पर आदि इत्यादि... यह मानसिकता हमारे समाज में न जाने कब से फैली हुई है। लड़का और लड़कियों के भेद ने संतान का वर्गीकरण कर दिया है जो न सिर्फ मानसिकता में है, बल्कि रीति-रिवाज, काज-रोजगार से लेकर दैनिक गतिविधियों तक में शामिल है। इसमें कोई दोमत नहीं कि यह गलत और अनुचित है। और इस पाताल-जड़ मानसिकता का नाश होना ही चाहिए।
    लेकिन यह दुर्भाग्य है कि लोग इस समस्या की गंभीरता को नहीं समझते है और इसे खत्म करने के लिए बहुत ही सतही बहस करते हैं। मसलन तरह-तरह के तर्कों से यह साबित करना कि लड़की किसी भी तरह लड़के से कम नहीं। "कंधा से कंधा मिलाकर ' जैसे मुहावरे तक गढ़ डाले गये हैं। मुझे लगता है कि लैंगिक भेद-भाव के इस अभिशाप को दूर करने का यह तरीका बेहद घटिया है। यह वास्तविकता से मुंह मोड़ने जैसा है। अरे भाई, लैंगिकता प्रकृति की रचना है। दोनों की अपनी-अपनी खासियतें हैं। इसमें कम-बेसी का सवाल आप क्यों घुसेड़ रहे हैं? दशकों से तो आप ऐसा कहकर थक गये, लेकिन समस्या यथावत रही या फिर बढ़ ही गयी और बढ़ती ही जा रही है।
    यह भावनात्मक मुद्दा भी नहीं है, जैसा कि सैकड़ों महिलावादी लेखक कहते आ रहे हैं। आपका आलेख भी इसी दर्जे में हैं। यह विशुद्ध व्यवहारिक मुद्दा है और व्यवहारिकता से मुंह मोड़कर आप इस मुद्दे का हल नहीं खोज सकते। लड़के अपने लैंगिक-शारीरिक विशेषताओं के कारण खास हैं, तो लड़कियां भी अपनी लैंगिक विशेषताओं के कारण खास हैं। दोनों की सीमा है, जो प्रकृति ने निर्धारित की है। लोगों को यह समझाने की आवश्यकता है कि लड़के-लड़कियां होना आपके वश में नहीं है। और हर इंसान की हर तमन्ना पूरी नहीं होती। इस मामले में संतोष ही आपको राहत दे सकता है। संतान को संतान समझो, लड़का या लड़की नहीं। मेरे विचार समाधान सच को सामने रखकर ही निकलेगा न कि झूठा महिमामंडन करके।

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  10. ये सब घिनोने काम करने वाले लोग आज भी हैं ...जो स्त्री को बोझ, और पाँव की जूती समझते हैं ...सोचते ही नहीं कि उनके भी दिल है ...वो भी इंसान हैं ...बातें बड़ी बड़ी करवा लो बस उनसे ..पर जब खुद पर बात आती है तो उन्ही घिनोनी हरकतों पर आ जाते हैं ....

    मुझे सख्त नफरत है इन इंसानों से .....बेहतरीन लेख है

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  11. उफ़्फ़ ! कैसे कैसे घृणित लोग हैं इस संसार में !

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  12. sahi baat kahi hai aapane .....bahut khub

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  13. हमारे पुरुष प्रधान समाज की रूग्ण मानसिकता, मगर अफसोश कि कई बार इस घृणित कृत्य में महिलाये भी भागीदार रहती है !

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  14. बेटा हो या बेटी, वे हमारे ही खून हैं. उन में से किसी से भी मदद लेने में कोई बुराई नहीं है, कोई अंतर नहीं है.

    "मेरी समझ में बेटियों के बारे में ऐसे लेख व लोक गीत ही तो कन्या भ्रूणों की हत्या का कारण होते हैं।"

    कारण कुछ और है. कारण है एक बेटी होने पर एके औसत परिवार को उसके लिये आर्थिक दीवालिया कर देने वाली दहेज और उसके बाद के दान. लेख और लोगगीत समाज के इस "भय" के प्रतिबिंब मात्र हैं.

    जब तक देश में दहेज का शाप रहेगा, तब तक बेटियों को बेटों के समान नहीं देखा जायगा.

    सस्नेह -- शास्त्री

    हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
    http://www.Sarathi.info

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