आज के स्वार्थी जमाने में यह बात चौंकाने वाली लगती है परन्तु यह है सच। १ जून के टाइम्स औफ इन्डिया में सौराष्ट्र के किसान पक्षियों के लिए ज्वार बोते हैं का समाचार तो है ही परन्तु फल वाली बात तो मेरी देखी हुई है।
सौराष्ट्र के किसानों ने यह महसूस किया कि जबसे उन्होंने कपास, मूँगफली व गन्ने जैसी फसलें लगानी शुरू की हैं पक्षियों की संख्या घटती जा रही है। सो जोडिया तालुके के किसानों ने एक नया समाधान ढूँढ निकाला है। ये हर खेत में ज्वार या बाजरे की दो पंक्तियाँ केवल पक्षियों के लिए लगाते हैं। इसे ये भगवान नो भाग (भगवान का भाग) कहते हैं। राजू बाला और उसके जैसे बहुत से किसानों ने यह करना शुरू किया है।
यह शुरुआत पक्षियों व पर्यावरण के लिए वरदान सिद्ध होगी। फोरेस्टर वी डी बाला का कहना है कि उनका 'नवरंग नेचर क्लब' गाँव गाँव में 'राम जी की चिड़िया, राम जी का खेत' का संदेश दे रहा है। उन्हें आशा है कि इस मानसून में १०,००० किसान ऐसा करेंगे।
समाचार सच होगा इसका अनुमान आप मेरे सौराष्ट्र प्रवास के अनुभवों से लगा सकते हैं। लगभग साढ़े नौ वर्ष पहले जब मैं पोरबन्दर के पास रहने आई तो पहले ही दिन कामवाली से कहा कि ओटे पर बहुत चींटियाँ हैं जरा गीले कपड़े से पोछ दो। तो वह बोली यह तो जीव हत्या होगी। पंखा चला दो चींटियाँ चली जाएँगी।
कुछ समय बाद जब चीकू पकने लगे तो माली तोड़ तोड़कर देता रहा। फिर बंद कर दिया। मैंने पूछा कि भाई क्या बात है चीकू नहीं तोड़ते। वह बोला कि खत्म हो गए। मैंने दिखाया कि दो पेड़ों पर अभी तो ३०-४० चीकू लगे हुए हैं। वह बोला कि वे तो चिड़ियों के लिए छोड़े हैं वे थोड़े ही तोड़ेंगे। मैं अपने स्वार्थीपन पर लज्जित थी और उसके बड़प्पन पर खुश। ध्यान रहे, चीकू मुझे जरा भी पसन्द नहीं और घुघूत जी को मधुमेह के कारण मना हैं, सो लगभग सभी माली, कामवाली, ड्राइवर आदि को ही बाँटे जाते थे।
एक और बात जो मैंने यहाँ देखी वह यह कि सब्जी मंडी आदि में गाय, बकरी आदि घूमते हैं, उन्हें सब्जियों पर मुँह मारने से रोकते तो हैं परन्तु कभी पीटते नहीं। कई बार मेरे सामने ही गाय पूरी की पूरी यहाँ बहुत मंहगी मिलने वाली फूल गोभी लेकर चलती बनी परन्तु डंडा उसे कभी नहीं पड़ा।
बहुत से घरों के सामने सीमेन्ट की छोटी छोटी हौदियाँ सी बनी होती हैं। गृहणियाँ उनमें गाय के लिए खाना डालती हैं।
मुझे गाय भैंस का सड़क पर घूमना तो पसन्द नहीं परन्तु ये सब बातें यहाँ के लोगों का पशु पक्षी प्रेम अवश्य दिखाती हैं। शायद तभी भारत भर में गिर का जंगल ही एक सुरक्षित जंगल है जहाँ सिंहों की संख्या बढ़ रही है घट नहीं रही। जबकि सिंह प्रायः मालधारियों व गाँव वालों के पशु खा जाते हैं। सरकार मुआवजा तो देती है परन्तु कभी कोई उनका शिकार नहीं करता। जितने भी शिकार हुए वह मध्यप्रदेश के कटनी से आए शिकारियों ने ही किए और वे पकड़े भी गए।
शायद यही कारण है कि मैं अपनी बस्ती तक में मोरों को नाचते और नील गायों व कभी कभी हिरणों को भी घूमते देख सकती हूँ। एक बार तो लगभग बीस फुट की दूरी पर बाघ को भी बस्ती में देखा। मैंने यहाँ व पहले जहाँ पोरबन्दर के पास रहती थी वहाँ आज तक साँप निकलने पर उसे मारते हुए नहीं देखा। सच तो यह है कि हमें बताया गया है कि कम्पनी के मालिक लोगों ने साँप मारने को मना कर रखा है।
तो कुछ तो विशेष है सौराष्ट्र के लोगों में!
घुघूती बासूती
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यह सूरत "शहर" की बात है. यहाँ आने के बाद मुझे रोज गाय जैसे प्राणियों के लिए पानी भरने की "बेगार" करनी पड़ती थी. वरना डाँट पड़ती. हर रोज खाने का हिस्सा गाय के लिए अलग किया जाता था.
ReplyDeleteपतगों को उड़ाने के दिन अहमदाबाद में पक्षियों के लिए विशेष चिकित्सा केन्द्र बनाए जाते है.
बाकी तो बहुत कुछ आपने लिखा ही है.
कुछ लोगो के लिए गुजरात कुछ और ही है :)
सजंय, मेरे लिए गुजरात देश का वह प्रान्त है जहाँ मुझे कभी नहीं लगा कि यह मेरा नहीं है और जहाँ के लोगों ने कभी मुझे पराया नहीं कहा।
ReplyDeleteभला बुरा तो सब जगह होता है, विशेषकर किसी उन्माद के समय।
घुघूती बासूती
सौराष्ट्रवासियों को नमस्कार
ReplyDeleteकाश सभी धरतीवासी भी ऐसा ही नजरिया बना लें । हमारे घर में और आस-पडोस में भी तीन रोटियां (कौवे की, कुत्ते की, गाय की)सबसे पहले निकाली जाती हैं।
वाकई बहुत सच लिखा है आपने. गुजरात वासी हमारी पुरानी परंपराओं का निर्वहन करते हुये एक अनुकरणिय उदाहरण सामने रख रहे हैं. और युं भी सम्सकारी लोग हैं. सभी को बहुत शुभकामनाएं. आपको इस आलेख के लिये नमन.
ReplyDeleteरामराम.
प्रकृति से लगाव का सुंदर उदाहरण।
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
सौराष्ट्र को प्रणाम!
ReplyDeleteवे अभी प्रकृति से जुड़े हैं। प्रकृति भी उन के दुख सुख में साथ देगी।
स्वस्थ परम्पराओं की जड़े देश के अन्य हिस्सों में भी किसी ना किसी रूप में मौजूद हैं ! प्रकृति से तादात्म्य एवं सहअस्तित्व का सुन्दर उदाहरण !
ReplyDelete'सोचता हूं इस गौरवशाली देश की शानदार परम्पराओं के , उत्तराधिकारी जिन्हें समस्त जीवधारियों से प्रेम की घुट्टी पिलाई गई है ! कभी कभी अपनी ही नस्ल के लिए इतने असहिष्णु / हिंसक / घृणाजीवी कैसे हो उठते हैं ?'
काश ऎसा सारे भारत मै होता, वेसे हमारे यहां भी पक्षियो के इलाके मै शोर मचना, उन्हे तंग करना मना है, लोगो ने घरो मै एक कोने पर इन पक्षियो के लिये खाना बगेरा रखा होता है जहां पक्षी खुब आते है,
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा यह सब पढ कर, धन्यवाद
विश्व पर्यावरण दिवस पर आप का यह आलेख पढ़कर एक सुखद अनुभूति हुई. आभार.
ReplyDeleteसोराष्ट्र के लोगो का पशु प्रेम अनुकरणीय है इसके साथ ही गुजरात के लोगो की कर्मठता मुझे हमेशा प्रेरित करती है खासकर वहा की महिलाओ का कर्मशील जीवन |इसका उदाहरन मैंने भुज में भूकंप के बाद देखा |मेरी बहन करीब २८ साल से भुज में रहती है इसलिए दो चार साल के अन्तराल में भुज जाना हो ही जाता है |इन्दोर से भुज का सफर सहज नही है किंतु गुजरात की सीमा में प्रवेश करते ही वहा की सफाई देखकर साडी थकावट उतर जाती है |भूकम्प की त्रासदी के बाद जिस तरह से वहा के लोगो ने फ़िर से अपने आप को खड़ा किया है उसका उदाहरन शायद ही और कोई प्रदेश में मिले |मैंने वहा की ओरतो को स्वयम अपने हाथ से अपने घरो को बनाने के लिए ईटे रेत उठाते प्लास्टर करते देखा है |
ReplyDeleteबहुत बढिया व प्रेरक आलेख।धन्यवाद।
ReplyDeleteइसे पढ़कर सौराष्ट्र से प्रेम और श्रद्धा के भाव अनायास ही उमड़ पड़ते हैं ! आभार इस पोस्ट के लिए. धन्य हैं वो लोग.
ReplyDeleteवास्तविक अर्थों में यही तो है प्रकृति से जुड़े रहने की बेहतरीन कला । कल पर्यावरण दिवस के नाम पर शहर के संभ्रांत लोगों की चोंचलेबाज़ी को देखकर मन बेहद खिन्न था कि समाचार पत्रों और चैनलों में बने रहने के लिये कार से आए लोगों ने पर्यावरण बचाने के लिये कुछ दूर साइकल चलाई । बैनर - पोस्टर लेकर नारेबाज़ी करते हुए रैली निकाली और हो गया पर्यावरण संतुलन ...? पर्यारण सुधारने के लिये प्रक्रुति से जुड़ने के तरीकों को जीवन शैली में शामिल करना ही होगा । जो स्थिति पोरबंद की है । कमोबेश वैसी ही संस्कृति औद्योगिक नगरी इंदौर की भी है । वहाँ भी गाय , कुत्ता और पक्षी संरक्षण लोगों की ज़िम्मेदारी है और वे इसे बखूबी अंजाम भी देते हैं ।
ReplyDeleteवाह ! सकल राम मय सब जग जानी .......
ReplyDeleteपशु-पक्षियों के प्रति इतना प्रेम भाव सराहनीय एवं अनुकरणीय है. वैसे इस मामले में राजस्थान का विश्नोई समुदाय भी उल्लेखनीय है. वहां भी जीव मात्र से प्रेम एवं उसके संरक्षण के दायित्व का बखूबी निर्वहन किया जाता है. वहां पर तो आलम यह है कि घर-आँगन में मोर, हिरन आदि पशु-पक्षी स्वच्छंद विचरण करते हुए देखे जा सकते हैं. जीव हत्या पाप के समान है वहां पर, शिकार पर भी पूर्ण प्रतिबन्ध है. न तो कोई शिकार करता है और ना ही शिकारियों को करने देता है.
ReplyDeleteसाभार
हमसफ़र यादों का.......
भाई अली, सहने की क्षमता कहीं न कहीं चूक जाती है.
ReplyDeleteनिश्चित जगह पर उचित बात कहने कि आदत हम ब्लोग्गरों में कह्तं होती ज रही है ठीक वैसे ही जैसे नेताओं को कुछ भी सवाल करें जबाव वही होगा जो उन्हें कहना है . भाई अली ! घुघूती जी का यह आलेख भारतियों के प्रकृति प्रेम को लेकर सदियों से चली आरही परंपरा कि कहानी बयान करती है . किस तरह भारतीय मनीषियों ने प्रकृति को माँ मानते हुए मानव और प्रकृति के दुसरे घटकों में आत्मीय भाव का संचार किया साथ ही उसमे धर्म -कर्म का मसाला लगा कर जनता को जोड़े रखना का काम किया वो हमारे लिए प्रेरणा है . भारत एक मात्र ऐसा राष्ट्र है जो अपनी इसी सांस्कृतिक शक्ति के बल पर चलता है . ................ तो भाई यहाँ भी आप लोग अपने घटिया नजरिये को थोपने से बाज नही आये ..................... इसमें आपकी टिप्पणी में छुपते -छुपाते एक खास समुदाय पर आक्षेप लगाने का भाव है जिसका जवाब संजय जी ने दिया ................................ अब हर जगह हिन्दू -मुस्लिम का राग अलापते हो फिर खुद को सेकुलर कहते हो शर्म करो ..................... चलो एक बात तो स्वीकार किया कि हम एक ही नस्ल के हैं . -"कभी कभी अपनी ही नस्ल के लिए इतने असहिष्णु / हिंसक / घृणाजीवी कैसे हो उठते हैं ?'"
ReplyDeleteप्रिय भाई संजय बेगाणी और प्रिय जयराम विप्लव जी ,कृपया मेरी टिप्पणी के पहले पैरे पर ध्यान दें मैंने पूरे देश में व्याप्त इस स्वस्थ परंपरा के लिए अपनी भावनायें व्यक्त की हैं और मेरी टिप्पणी का दूसरा पैरा इसके विरोधाभाषी स्वरुप पर दुःख व्यक्त करना मात्र है इसमें कोई भी समुदाय विशेष कहाँ से घुस गया , राजनीति कहाँ से घुस गई मैं समझ नहीं पाया ! और भाई जयराम आप भी कमाल हो जो मैंने लिखा नहीं वो पढ़ रहे हो जो मैंने सोचा भी नहीं वो समझ रहे हो ! कृपया अपने शब्द मेरी कलम में ठूंसने का यत्न न करें ! मैं आभारी होऊंगा ! निवेदन है कि आप दोनों मुझसे और मेरी पृष्ठभूमि से अपरिचित हैं , शायद इसीलिए आहत लग रहे हैं ! आपकी प्रतिक्रिया पर इतना ही कहूँगा ! जो आप समझ रहे हैं वो मेरी मंशा नहीं थी फिर भी बात आपको पसंद नहीं ! इसलिए घुघूती जी से अनुरोध करता हूँ कि कृपया मेरी टिप्पणी डिलीट कर दें !
ReplyDeleteघुघूती जी मुझे लगता है भाई संजय बेंगानी की प्रतिक्रिया सहज और स्वाभाविक थी पता नहीं क्यों श्री विप्लव नें उन्हें भी लपेट लिया और झटके झटके में , मैं अपनी प्रतिक्रिया में श्री विप्लव के साथ संजय का नाम जोड़ बैठा ! ये ठीक नहीं था ! एक गलती और हुई ,मुझे प्रतिक्रिया देने से पहले श्री विप्लव का प्रोफाइल देख लेना चाहिए था पर मैंने बाद में देखा , वो कम उम्र नौजवान हैं हो सकता है मेरी फीलिंग्स समझने में उन्होंने जल्दबाजी की होगी ! चूंकि टिप्पणी देते समय मेरे मन में कोई दुराव या अनर्गल विचार नहीं था ! इसलिए टिप्पणी हटाने की मेरी मांग गलत है ! कृपया मेरी टिप्पणी यथावत रहनें दें !
ReplyDeleteघुघूती जी, आपने वाकई एक अच्छी पोस्ट की है। खासकर ऐसे वक्त में जब पर्यावरण और पर्यावरण के बाशिंदों को बचाने की वकालत का सालाना दिवस मनाया जा रहा है। यह पोस्ट इस मायने में अहम है।
ReplyDeleteदूसरो कामों में लगे होने की वजह से मैं ब्लॉग की दुनिया में कम ही विचरता हूँ। लेकिन आपकी पोस्ट पर आई टिप्पिणी देखकर लगा कि हिन्दी ब्लॉगिंग में अब भी बहुत कुछ नहीं बदला है। कुछ लोग लगातार उकसाने में पहले की ही तरह लगे हैं। हालाँकि पहले वे जबरदस्त मुँह की खा चुके हैं।
अब कुछ लोग चूँकि उकसाने पर आ ही गए हैं तो मेरे भी चंद सवाल हैं
।
-ये कैसे मुमकिन हैं कि गाय को तो आप पानी और रोटी दें और जन्म देने वाली मां को सड़क पर या बेसहारा छोड़ दें
। सैकड़ों उदाहरण आसपास बिखरे मिल जाएँगे।
-ये कैसे मुमकिन हैं कि पशु-पक्षियों के लिए तो अगाध प्रेम उमड़े और इनसानों को गाजर मूली की तरह कतर दिया जाए
। और उस कतरने को जायज ठहराने में हाथ जरा भी न काँपे।
देखिए एक भाई क्या लिखते हैं,(लिखते हैं या धमकाते हैं या डराते हैं) भाई अली, सहने की क्षमता कहीं न कहीं चूक जाती है। यह कहने के लिए कहां से कलेजा आया। यह वही कलेजा है जो पशु-पक्षियों के लिए रोता है। हाय, चींटी के मारने पर तकलीफ और इनसानों के मारने पर जश्न।
... और जहाँ तक उन्माद की बात है तो उन्माद क्षण भर का होता है। ये उन्माद तो सात साल से बरकरार है। और उसको सही ठहराया जा रहा है। आँख में जरा भी पानी नहीं।
अरे कुछ नहीं तो जरा पशु-पक्षियों से ही सीख ले लें हुजूर। जो बिना नफरत के बोल बोले, किसी की हत्या किए, किसी माँ का पेट फाड़े- कभी इस मुंडेर पर कभी उस मुंडेर पर डेरा जमा लेते हैं। कभी किसी मंदिर पर तो कभी किसी मस्जिद पर बेफिक्र जा बैठते हैं।
क्या गुजरात के इंसानों को यह आजादी है... जिन लोगों को गुजराती अस्मिता की इतनी फिक्र है, उन्होंने अहमदाबाद में 'बॉर्डर' क्यों बना रखा है।
पशु-पक्षियों से प्रेम करो लेकिन पर्यावरण का बड़ा हिस्सा इनसान हैं, उनसे प्रेम करना नहीं सीखेंगे तो सब बेकार। फिर इस तरह स्माइली देकर मजे लेंगे।
बहुत अच्छी जानकारी। पशु प्रेम की ये विधा जानकर अच्छा लगा।
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