यह तीर
तुम्हीं कहो तुमसे क्या कहूँ ओ दोस्त
मेरे पास कहने को शब्द चूक गए हैं,
तुम्हारे पास हों तो उधार दे दो दोस्त
मेरा तो सारा ही खजाना चूक गया है।
तुझसे नाराज हो मैं ही रीत जाती हूँ
कैसे होऊँ तुझसे नाराज ए दोस्त मेरे,
फिर से भरना है संवेदनाओं का घड़ा
तो कैसे रूठूँ तुझसे बता ओ मीत मेरे।
तेरे तरकश में तो भरे हैं कितने ही तीर
मेरे तरकश का तो तू था आखिरी तीर,
अब चलाऊँ या रखूँ सम्भाल कर इसे
न तू बताए, न बता सकता यह तीर।
निशाना कोई भी लगाऊँ या न लगाऊँ
चलाऊँ या हृदय लगाऊँ मीत यह तीर,
कुछ भी कर लूँ चाहे, वक्ष पर मेरे ही
चलना तो हर हाल में ही है यह तीर!
घुघूती बासूती
Wednesday, June 10, 2009
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कुछ भी कर लूँ चाहे, वक्ष पर मेरे ही
ReplyDeleteचलना तो हर हाल में ही है यह तीर!
कितनी बेबस अनुभूति ।
निशाना कोई भी लगाऊँ या न लगाऊँ
ReplyDeleteचलाऊँ या हृदय लगाऊँ मीत यह तीर,
कुछ भी कर लूँ चाहे, वक्ष पर मेरे ही
चलना तो हर हाल में ही है यह तीर!
-bahut gahari abhivyakti.
वाकई कुछ तीर ना ही चलायें जाएँ तो बेहतर है.........सुंदर रचना.....गहरी अभिव्यक्ति लिए हुए.......
ReplyDeleteसाभार
हमसफ़र यादों का.......
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति..
ReplyDeleteबहुत सुंदर अभिव्यक्ति!
ReplyDeleteलेकिन संवेदनाएँ मरती नहीं हैं। वे कही गहराई में ऊब-डूब हो रही होती हैं। बस उन्हें निकाल बाहर लाना है। पर उस के लिए साथी चाहिए।
मेरे तरकश का तो तू था आखिरी तीर,
ReplyDeleteअब चलाऊँ या रखूँ सम्भाल कर इसे
यही दुविधा अंतिम तीर के लिए कर्ण की भी थी।
निशाना कोई भी लगाऊँ या न लगाऊँ
चलाऊँ या हृदय लगाऊँ मीत यह तीर,
कुछ भी कर लूँ चाहे, वक्ष पर मेरे ही
चलना तो हर हाल में ही है यह तीर!
वाह। किसी की पंक्तियाँ हैं-
जो अच्छे हैं उनकी कहानी भी अच्छी।
लड़कपन भी अच्छा जवानी भी अच्छी।
तेरे तीर को क्यों न दिल में जगह दूँ,
निशाना भी अच्छा निशानी भी अच्छी।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
कई बार कोशिश की, कि शब्दशः पढूं लेकिन हर बार 'दोस्त' से 'ईश्वर' प्रकटता रहा !... दूर कहीं घंटियां गूंज रही थी !... लगा , जैसे घुघूती 'ईश्वर' को समर्पित हो गई हों !
ReplyDeleteकुछ भी कर लूँ चाहे, वक्ष पर मेरे ही
ReplyDeleteचलना तो हर हाल में ही है यह तीर!
सुंदर अभिव्यक्ति और बहुत ही सटीक भाव.
रामराम.
निशाना कोई भी लगाऊँ या न लगाऊँ
ReplyDeleteचलाऊँ या हृदय लगाऊँ मीत यह तीर,
कुछ भी कर लूँ चाहे, वक्ष पर मेरे ही
चलना तो हर हाल में ही है यह तीर!
बहुत सुन्दर लिखा।एक टीस का एहसास -सा होता है।बढिया रचना है।बधाई।
आपके सभी तीरों से घायल हैं।
ReplyDeleteहमेशा की तरह बेहतरीन।
sara dard undel diya hai aapne in shbdo me .jhkjhor kar rakh diya hai is na chlne vale teer ne .
ReplyDeleteabhar
कुछ भी कर लूँ चाहे, वक्ष पर मेरे ही
ReplyDeleteचलना तो हर हाल में ही है यह तीर!
अच्छे भावः, सुन्दर अभिव्यक्ति है ............
तेरे तरकश में तो भरे हैं कितने ही तीर
ReplyDeleteमेरे तरकश का तो तू था आखिरी तीर,
अब चलाऊँ या रखूँ सम्भाल कर इसे
न तू बताए, न बता सकता यह तीर।
बहुत सुंदर भाव...!
waah kya teer hai.......bahut badhiya
ReplyDeleteना अली, ईश्वर नामक वस्तु/विचार/परिकल्पना पर कोई विश्वास नहीं। उसका ध्यान कम ही आता है, जब आता है तो उसके अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाने के लिए ही, जैसे आज मेरे स्वास्थ्य को लेकर माँ बोलीं कि मैं तो केवल भगवान से प्रार्थना ही कर सकती हूँ तो मेरा उत्तर था, 'ना बिल्कुल नहीं करना।'
ReplyDeleteदोस्त से तात्पर्य मित्र से ही था, वह मित्र कोई भी हो सकता है, कोई मित्र ही, पति,संतान या स्वयं दर्द।
घुघूती बासूती
ओह, बहुत बार सुना है कि चाकू खरबूजे पर गिरे या खरबूजा चाकू पर, कटना खरबूजे को ही होता है।
ReplyDeleteपर याद हमेशा खरबूजे की मिठास और सुगन्ध ही रहती है।
स्वस्थ हो जाइये ! मैं अपनी बात आगे चल कर कह लूंगा ! यकीन जानिये कहूंगा ज़रूर !
ReplyDelete"वक्ष पर मेरे ही
ReplyDeleteचलना तो हर हाल में ही है यह तीर"
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति." अली ने आपकी अस्वस्थता की बात कही. क्या तबीयत ख़राब है. आप जल्द ही ठीक हो जाएँ यहीं कामना है.
ghughti ji , aapki is rachna ne bahut hi gahre bhaav pradarshit kiya hai .... man me jaise uthal puthal muchi hui hai ....
ReplyDeletemeri badhai sweekar kare..
kya aapki health acchi nahi hai , meri praarthana hai eeshwar se ki ,wo aapko jaldi hi swasth banaye..
haan.. meri nayi kavita ko aapka aashirwad mil jaaye to khushi hongi...
घुघूती बासूतीजी, सेना की कुर्बानियों को मेरा भी सलाम, लेकिन किसी भी चीज के एक पक्ष की तर
ReplyDeleteफ से बिल्कुल आंखें मूंद लेना मेरे हिसाब से समझदारी नहीं हैं। क्या सेना की ज्यादतियों को गिनाने की जरूरत है? पूर्वोत्तर से लेकर कश्मीर तक लंबी फेरहिस्त है। मणिपुर की शर्मिला इरोम पिछले आठ सालों से बिना कुछ खायेपिये सेना हटाने की मांग के लिए भूखहड़ताल पर बैठी है। पहली बात तो यही है कि हमने जिन संस्थाओं, व्यक्तियों, पदों को देवतुल्य और अनक्वेश्चनेवल बना दिया है उनके हर पक्ष को सच्चाई की कसौटी पर कसना शुरू करें। आप जानती ही होंगी कि यह भक्तिभाव यूरोप के पुनर्जागरण और हमारे देश के नवजागरण काल में सबसे ज्यादा निशाने पर था। यह भक्तिभाव तर्क का दुश्मन है। या तो भक्तिभाव रहता है या तर्क। दूसरे आपकी कश्मीर समस्या को गंभीरता से समझने के नजरिए के लिए आभार। कश्मीर समस्या वाकई जटिल है। इसके इतिहास को जाने बिना हम इसपर सिर्फ सरकार द्वारा प्रचारित नजरिए को ही ढोते रहेंगे। एक लिंक दे रहा हूं। उम्मीद है इससे आपको मदद मिलेगी। जहां तक बात कश्मीरी हिन्दुओं की है मैं उनके विस्थापन और उनपर हुए जुल्म के खिलाफ हूं। वे कश्मीर के कट्टरपंथी निहित स्र्वाथों की बलि चढ़े हैं। मैं आपकी बात से सहमत हूं कि कश्मीर समस्या पर लिखते समय कश्मीर पंडितों का पक्ष भी रखना चाहिए लेकिन इस मसले को इस देश में हिन्दुओं के ''तथाकथित अन्याय'' से जोड़कर राजनीति करने वालों के नजरिए से नहीं बल्कि कश्मीर के सारे लोगों की समस्या को समावेशी नजरिए से देखने के लिए। आशा करता हूं कि आपकी राय और संवाद कायम रहेगा।
http://www.scribd.com/doc/6497348/Understanding-KashmirA-Chronology-of-the-Conflict
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति..
ReplyDeleteतुम्हीं कहो तुमसे क्या कहूँ ओ दोस्त
ReplyDeleteकैसे होऊँ तुझसे नाराज ए दोस्त मेरे,
मेरे तरकश का तो तू था आखिरी तीर,
कुछ भी कर लूँ चाहे, वक्ष पर मेरे ही
चलना तो हर हाल में ही है यह तीर!
"निशाना कोई भी लगाऊँ या न लगाऊँ
ReplyDeleteचलाऊँ या हृदय लगाऊँ मीत यह तीर,
कुछ भी कर लूँ चाहे, वक्ष पर मेरे ही
चलना तो हर हाल में ही है यह तीर!"
रचना बहुत अच्छी लगी....
बहुत बहुत बधाई....
तेरे तरकश में तो भरे हैं कितने ही तीर
ReplyDeleteमेरे तरकश का तो तू था आखिरी तीर,
अब चलाऊँ या रखूँ सम्भाल कर इसे
न तू बताए, न बता सकता यह तीर।
....बहुत सुंदर अभिव्यक्ति ! बधाई !!
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अपने प्रिय "समोसा" के 1000 साल पूरे होने पर मेरी पोस्ट का भी आनंद "शब्द सृजन की ओर " पर उठायें.
भावनाओं को शब्दजाल में अच्छा बाँधा।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर लिखा।एक टीस का एहसास -सा होता है।बढिया रचना है।बधाई।
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