बिटिया को फोन पर बताया कि आज 'तारे जमीं पर' देखी। उसका पहला प्रश्न था कि माँ क्या तुम रोई नहीं? मैंने कहा कि नहीं, क्रोध, क्षोभ के अतिरेक के चलते रो नहीं सकी। कहा कि मुझे तुम लोगों की याद आई और तुम्हें हॉस्टेल छोड़ने का दृष्य याद आया। तुम दोनों को ईशान की जगह रखकर देखा। जब उसे हॉस्टेल छोड़ा था तो वह अपेक्षाकृत बड़ी भी थी और अपनी इच्छा से गई थी। फिर भी मन का क्या हाल हुआ था। कितने अनजाने भयों ने मुझे घेरा हुआ था। जब तक उससे दोबारा मिल नहीं ली शान्ति नहीं हुई थी। एक माँ के लिए बच्चे को पहले दिन स्कूल में छोड़ना और पहली बार हॉस्टेल में छोड़ना बहुत कठिन होता है।
खैर बात 'तारे जमीं पर' की हो रही थी। देखते समय मन अवसाद से भर गया। अन्त सुखद था किन्तु यदि ईशान को वह कला का अध्यापक नहीं मिलता तो ! सोचकर ही काँप जाती हूँ। यदि संसार के माता पिता देखें और उनके माता पिता कहलाने की योग्यता को देखें तो भगवान नाम की वस्तु पर कभी विश्वास नहीं हो सकता। यदि वह होता तो क्या इतने अयोग्य व अपरिपक्व लोगों को माता पिता बनने का भगवान सा दायित्व कभी सौंपता। वह तो या है ही नहीं या स्वयं इतना अपूर्ण है कि उसने मानव को भी कितना अयोग्य व अपरिपूर्ण बनाकर उसे एक क्या अनेक नन्हे बच्चों का दायित्व बिना कुछ सोचे समझे पकड़ा दिया। न जाने कितने ईशान अपने पिता के झूठे दम्भ व अपनी माँ की असहायता भरे पिता के सामने झुकते स्वभाव का शिकार होते हैं।
पिता के बारे में अधिक नहीं कहूँगी (इस बारे में पुरुष ही बेहतर कह सकते हैं।) किन्तु माँ के असहाय होने पर बहुत क्रोध आया। ऐसी असहाय माँओं को जो अपनी संतान के लिए भी अपने पति का विरोध नहीं कर सकतीं माँ बनने का अधिकार ही नहीं होना चाहिए। जितनी भी आज्ञाकारी सुशील पत्नी बनने का शौक हो अवश्य पूरा करो परन्तु अपने बच्चों की बलि चढ़ाकर नहीं। अरे, किसी पशु या पक्षी माँ को ही देखकर उससे सीखो। उनके पास तो माँ बनने या न बनने का चुनाव भी नहीं होता परन्तु एक बार जब माँ बनती हैं तो अपने बच्चों की रक्षा के लिए जान की बाजी लगा देती हैं। यहाँ एक जगह बताया जाता है कि बच्चों के लिए उसने अपनी आजीविका को छोड़ा। त्याग का कोई महत्व नहीं है, जब तक जिसके लिए त्याग किया हो उसको लाभ न मिले। किसी बच्चे को इसलिए छात्रावास में डालना क्योंकि वह हमसे संभलता नहीं है अपने दायित्व से मुँह फेरना है। बच्चे संसार के सबसे असहाय प्राणी होते हैं। उनपर अन्याय करना सबसे निकृष्ट काम है। ईशान की असहाय अवस्था देखकर मन तड़प उठता है।
हमारा समाज सही अर्थों में समाज नहीं है जंगल राज्य है। जो इस व्यवस्था में फिट बैठ जाए वह सामान्य जीवन जी सकता है, जो उसपर विजय पा ले वह विजयी हो जाता है। जो जरा सा भी सामान्य से इधर उधर हुआ समाज उसे लील जाता है। ईशान भी हमारी इस व्यवस्था की वेदी पर बलि चढ़ ही जाने वाला था। इससे तो पहले का जमाना या गाँव ही बेहतर हैं जहाँ बच्चा यदि विद्यालय में असफल रहता है तो कोई अन्य काम कर अपनी आजीविका चला लेता है। किन्तु शहरों में तो हम हर बच्चे से विद्यालय में सफल होने की अपेक्षा रखते हैं और उसके सिवाय भी जीवन में कुछ है न तो सोच पाते हैं न ही बच्चे को कोई विकल्प ही दे पाते हैं।
हम स्कूलों में भेड़ बकरियों की तरह बच्चे भर देते हैं और उनसे आशा करते हैं कि वे चाहे जिस भी नाप या आकार के हों हमारे बनाए खानों में फिट बैठ जाएँ। यदि आपने कभी आलू भी उगाएँ हों तो जानेंगे कि सब आलू एक ही नाप व आकार के नहीं होते। फिर क्या आप बच्चे को काट छाँट कर अपने बनाए खानों में फिट करेंगे? कुछ बड़े स्कूलों ने इस बात को ध्यान में रखकर बच्चों की ग्राह्य क्षमता के अनुसार उन्हें विभिन्न वर्गों में रखने का प्रयास किया। यह सफल भी हो सकता है। यदि इसमें भी स्कूल व माता पिता का दम्भ आड़े न आए। यदि धीरे सीखने वाले बच्चों को हेय दृष्टि से न देखा जाए, यदि धीमे बच्चों का पाठ्यक्रम कम कर दिया जाए और उन्हें पढ़ने को अधिक समय दिया जाए तो वे भी काफी कुछ सीख सकते हैं। सभी बच्चों से समान समय में समान पाठ्यक्रम घोटने की अपेक्षा न केवल धीमे बच्चों के साथ अन्याय है अपितु तेज बच्चों की पढ़ाई के प्रति अरुचि पैदा करने की भी उत्तरदायी है। कितने ही कुशाग्र बुद्धि बच्चे इस धीमी गति की पढ़ाई से उकता जाते हैं व नई नई शैतानियाँ कर अपना मन बहलाते हैं।
सभी बच्चों को एक ही स्कूल में पढ़ने का समान अवसर देना नैतिक तो हो सकता है परन्तु व्यवहारिक नहीं। जब कक्षा में पचास से अधिक छात्र हों और एक अध्यापक के पास उन्हें देने को कुल ४५ मिनट हों तो क्या अलग अलग योग्यता या कमी वाले हर छात्र को देने को अध्यापक के पास समय हो सकता है ? वह भी तब जब अध्यापक सबसे अधिक योग्यता के आधार पर बनाए या चुने नहीं जाते अपितु मजबूरी या बहुत से अन्य कारणों के कारण बनते व चुने जाते हैं।
सोचिए कैसा होता यदि आपका बच्चा बस में लदकर स्कूल जाने की बजाए अपने ही क्षेत्र के एक स्कूल में पैदल या साइकिल चलाकर जाता। जहाँ दो चार अध्यापक केवल कमजोर या विशेष छात्रों की सहायता के लिए ही होते। जहाँ उसे दाखिले के लिए कोई साक्षात्कार न देना होता। बच्चा है तो स्कूल में उसके लिए जगह भी होती। यदि माता पिता दोनों कामकाजी हैं तो एक विशेष शुल्क देने पर जहाँ वह उनके आने तक आराम से खेलता, आराम करता, खाना खाता, पढ़ाई करता या पुस्तकालय में पुस्तकें पढ़ता या टी वी देखता।
क्या यह असंभव लगता है ? यदि सोचा जाए तो इतना असंभव भी नहीं है। ये सरकारी स्कूल किसलिए बनाए गए हैं ? अन्य देशों में कैसे बच्चे इन्हीं में पढ़कर सफल हो रहे हैं ? इन्हें सुधारकर ऐसा क्यों नहीं बनाया जाता ? क्यों नहीं इनकी नए सिरे से रचना की जा सकती ? एक नई अध्यापन सेवा की घोषणा क्यों नहीं की जाती ? प्रशासनिक सेवा की सी तर्ज पर। जहाँ अच्छा वेतन व सम्मान मिलेगा किन्तु आठ घंटे के कड़े श्रम व दायित्व के बाद। शायद इस सेवा को निजी कम्पनियों के हाथ में भी थमाया जा सकता है। यदि स्कूल ढंग से न चलें तो किसी अन्य को दिया जा सकता है। इस तरह इनमें स्पर्धा भी होगी। संसार में अपनी सफल निजी कम्पनियाँ स्थापित कर नाम कमा चुके लोग अवकाशप्राप्ति के बाद जीवन को अर्थ व दिशा देने के रास्ते खोज रहे हैं। ऐसे व बहुत से अन्य सफल व अवकाशप्राप्त लोग शायद यह चुनौती स्वीकार कर सकते हैं। ये व कुछ जाने माने शिक्षाविद यह प्रयोग कर सकते हैं व सफल होने पर इसी मॉडेल पर स्कूल चलाए जा सकते हैं।
जो भी हो हमारे अज्ञान व आलस के कारण हमारे बच्चों को कष्ट हो और वे अन्याय सहें यह गलत है। सारा संसार रुक सकता है, सही नीतियाँ बनने की प्रतीक्षा कर सकता है किन्तु बच्चे प्रतीक्षा नहीं कर सकते। उनके लिए जो करना है आज ही होना चाहिए। कल बहुत देर हो चुकी होगी।
घुघूती बासूती
Monday, May 18, 2009
माँ क्या तुम रोई नहीं?
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बेहतरीन विश्लेषण और सही राय...
ReplyDeleteरोये तो हम भी नहीं थे तारे जमीं पर देख के.
अच्छा आलेख.
असहमत हुआ ही नहीं जा सकता।
ReplyDeleteसरकारी स्कूलों की स्थिति तो सुधरनी ही चाहिये, प्रयास चाहे जिस स्तर पर हों अथवा जिस प्रकार के हों ।
ReplyDeleteआँख मूँद कर आपके इस कथन की स्वीकृति है - "सारा संसार रुक सकता है, सही नीतियाँ बनने की प्रतीक्षा कर सकता है किन्तु बच्चे प्रतीक्षा नहीं कर सकते। उनके लिए जो करना है आज ही होना चाहिए। कल बहुत देर हो चुकी होगी।"
मैं भी आपकी बात से सहमत हूँ...सभी बच्चों को एक ही सांचे में फिट नहीं किया जा सकता...!हर बच्चे का अपना अलग वय्कितव होता है,अलग ढंग होता है काम करने और सीखने का...!लेकिन हमारे यहाँ तो सभी को एक ही तरह से हांका जाता है..!ईशान की बात छोडिये..गृहकार्य न करने वाले बच्चों को सजा देना परम्परा हो गयी है..कारण पूछना तो...दूर की बात है....
ReplyDeleteबहुत पसंद आया आपका यह आलेख .. बच्च्े देश का भविष्य हैं .. सबमें अलग अलग प्रकार की प्रतिभा हाती है .. और सबकी देश को जरूरत भी .. आज सामर्थ्यवान के बच्चे हर स्थान पर फिट हो जा रहे हैं .. प्रतिभाहीनों की मदद करना तो दूर की बात है .. असमर्थ प्रतिभा भी सडकों पर भटकने को बाध्य है .. सरकारी स्कूलों में सकारात्मक परिवर्तन बहुत आवश्यक है।
ReplyDeletebilkul sahi baat kahi hai aapne
ReplyDeleteकमजोर बच्चों की स्तिथि के सटीक विश्लेषण के साथ-साथ आपने जो सुझाव प्रस्तुत किये हैं, वे काबिल-ए-तारीफ़ हैं. सरकारी स्कूलों की शोचनीय दशा देखकर बहुत दुःख होता है.
ReplyDeleteसाभार
हमसफ़र यादों का.......
बहुत संवेदन शील लेख है आपका...दरअसल माँ-बाप अपने मान सम्मान के लिए बच्चों पर अत्याचार करते हैं...दो ढाई साल के बच्चों से जब जबरदस्ती "जेक एंड जिल...सुनवाया जाता है तो मन में खीज और अवसाद दोनों पैदा होते हैं...अपनी झूठी प्रतिष्टा के लिए माँ बाप बच्चों के बचपन की बलि चढा देते हैं...दुखद स्तिथि है...
ReplyDeleteनीरज
"ऐसी असहाय माँओं को जो अपनी संतान के लिए भी अपने पति का विरोध नहीं कर सकतीं माँ बनने का अधिकार ही नहीं होना चाहिए। जितनी भी आज्ञाकारी सुशील पत्नी बनने का शौक हो अवश्य पूरा करो परन्तु अपने बच्चों की बलि चढ़ाकर नहीं।"
ReplyDeleteबहुत सही कहा आप ने. इसके लिये जरूरी है कि स्त्री को जागृत किया जाये एवं उसे सशक्त बनाया जाये. कलम इसके कई जरियों में से एक है. लिखती रहें!!
सस्नेह -- शास्त्री
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
http://www.Sarathi.info
मैं तो आपकी बात से सहमत हूँ...बच्चों का अपना अपना मिजाज़ होता है अपना अपना रंग होता है..........सब को एक तरह से देखना गलत है ...............
ReplyDeleteati anukrneey lekh avm sujhav ab jrurat hai ak sarthak pahl ki .koun kre ?
ReplyDeleteसरकारी स्कूल तो आलम तो ऐसा है इमारत है, लेकिन शिक्षक और बच्चे नहीं, बच्चे हैं तो शिक्षक नहीं. ऐसे कैसे सुधारेगी देश की सूरत... बोर्डिंग स्कूलों में बच्चों को डालने की परंपरा बड़े घरों में है.
ReplyDeleteसार्थक आलेख ! सहमत हूँ आपसे.
ReplyDeleteबिल्कुल सही कहा आपने। बच्चे की पैदाइश के लिए ज़िम्मेवार होने और उसकी परवरिश के लिए ज़िम्मेदार होने में बहुत फर्क है। गैर ज़िम्मेदार और असंवेदनील मां-बाप के हाथों पले बच्चे बहुत हद कल को खुद भी वैसे ही मां-बाप बनते है और उनकी संतानें भी उसी रूप में हर्ज़ाना भुगतती हैं जैसे ये खुद भुगतते आए हैं।
ReplyDeleteप्रभावशाली लेख.....!
ReplyDeleteअगर सरकारी स्कूलों को भी प्राइवेट हाथों में दे दिया गया तो वही हाल होगा जो तमाम बी एड कोलेजों या तकनीकी संस्थानों का हो गया है ....बी एड जैसी डिग्री के लिए एक से दो लाख की बोली लगती है ....सरकारी स्कूल सिर्फ अंगरेजी माध्यम न होने के कारण पीछे चले गए हैं ... प्राइवेट.पढाई के स्तर पर ना उनके पास प्रशिक्षित स्टाफ है ..न पड़े लिखे टीचर ...सिर्फ अंगरेजी बोलने वाले इंटर पास बच्चे वहां अध्यापक हैं ...और हम हर महीने सिर्फ थोड़ी सी अंग्रेजी अपने बच्चे को बोलना आ जाए इसलिए हजारों रुपया खर्च करते हैं ...
ReplyDeleteजहाँ तक बच्चों के होस्टल डालने का प्रश्न है में आपसे सहमत हूँ ...हर बच्चा दूसरे से अलग होता है उसको होस्टल में डालकर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर लेना बच्चे के साथ अन्याय है
एक भारतीय माँ अगर मात्र घरेलू औरत है तो यह सोचना भी बेकार है की उसकी आवाज़ का उसके प्रतिकार का कोई मूल्य होगा ..उसके पास पैसे का दम नहीं तो उसकी आवाज़ में भी कोई दम नहीं ..
एक अच्छी विश्लेश्ण .............कई बार मुझे भी लगता है बच्चो के मामले मे हमारा समाज जंगलराज है .
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