'ये बाट्ट ही ऊँल' पीढ़ियों के बीच बढ़ती खाइयाँ और बदलते नुस्खे।
'ये बाट्ट ही ऊँल' या ऐसा ही कुछ कुमाऊँनी में बड़े बूढ़े कहते थे। अर्थात सब लोगों ने इसी राह से आना है, गुजरना है। बढ़ती उम्र के साथ उनकी बात का अर्थ व महत्व भी समझ आने लगा है। परन्तु उम्र का जो नुस्खा अपनी बात समझाने को उनके पास था वह हमारे पास नहीं है। अब हमें नुस्खा बदलना होगा।
मेरे पिछले लेख हम कहाँ जा रहे हैं पर कई टिप्पणियाँ आईं। बहुत से मित्र सहमत हैं, कुछ असहमत तो कुछ कई बातों से सहमत कई से असहमत। होना भी ऐसा ही चाहिए। यही तो लोकतन्त्र है। सभी को अपने विचार रखने व उनका आदान प्रदान करने का अधिकार है। परन्तु एक टिप्पणी ऐसी आई जिसने मुझे लिखने को एक ऐसा विषय दिया जिसपर मन ही मन विचार तो मैं कर ही रही थी परन्तु लिखा अभी तक नहीं था। ई स्वामी जी की बात आप भी पढ़िए।
eSwami ने कहा…
"जिन्हें यह चिन्ता हो रही है कि आँकड़े बताते हैं कि स्त्रियों को स्वतन्त्रता मिलने के बाद अमेरिका में विवाह के बाहर बच्चों के जन्म में वृद्धि हुई है वे साऊदी अरब या ऐसे ही किसी देश के आँकड़ों पर भी नजर डालें। वहाँ यह संख्या शून्य है। फिर हम वहाँ के कानून यहाँ लागू क्यों नहीं कर देते?"
आप साऊदी अरब के कानून भारत में लागू इसलिये नहीं कर सकते की आपके नेता ऐसा करने से पहले ही ग्लोबलाईजेशन के नाम पर भारत को उसकी लंगोटी[अस्मिता] समेत अमरीका के हाथों बेच खा चुके हैं. कहां जी रही हैं आप घुघुती जी? सन १९६० में? ठीक वैसे ही जैसे लडकियों के बाल नोचते पुरुष और पुलीसवाले और उनको रोकने के बजाय उसकी रिकॉर्डिंग कर के दिखाने वाले पुरुष अपना डे-जॉब कर रहे हैं - दिमागी रूप से १४ सदी में जीते हुए!!
आप और हम कब तक बहुत अच्छा लिखा बहुत संतुलित लिखा पढ कर खुश होते रहेंगे? कब तक??
सच तो ये है की नई पीढी के हॉर्नी लोग प्रेम की अभिव्यक्ति के लिये थोपे गए दिन गुलाब के साथ कंडोम खरीद रहे हैं. गुजरती पीढी के फ़्रस्टु संस्कृति बचाने के नाम पर लडकियों के बाल नोच रहे हैं. और बडी चतुराई से उनके बीच की वैचारिक खाईयां आर्किटेक्ट की जा रही हैं - ताकी संवाद ही ना बचे. ताकी वे अपने विचार अपने अपने टीवी चैनलों से सीख/चुन लें! देवदास, देव डी हो चुका है. आज भारतीय संस्कृति की बात करने का मतलब पुरुष-प्रधानतावादी, स्त्री-विरोधी होना हो गया है - करोडों डालर लगे हैं ये स्थितियां बनाने में. वाना-बीज़ [नकलची] तो आधुनिक हो चुकने के लिये कुछ भी कर जाएंगे - और जो उन्हें संस्कारित कर सकते थे वे तो कचरे के डब्बे में फ़ेंके जा चुके हैं.
उन्होंने खाई की बात बहुत सही कही है। पीढ़ियों के बीच में ये खाइयाँ यदि पट जातीं तो सब पीढ़ियाँ एक दूसरे से कितना कुछ सीख सकती थीं। कोई भी अकेला सबकुछ नहीं जान सकता। सबसे बढ़िया पाठशाला अनुभव की पाठशाला होती है। यह भी आवश्यक नहीं कि जो अनुभव एक को हों वह दूसरे को भी हों। उससे भी आवश्यक यह है कि हरेक को गोबर में पैर रखकर ही या हाथ जलाकर ही ना सीखना पड़े। बहुत सी बार अन्य के उदाहरण से भी सीखा जा सकता है। इतिहास तो पढ़ाया ही इसलिए जाता है कि उससे हम गलतियों से सीखें व उन्हें न दोहराएँ। परन्तु शायद मनुष्य हर गलती को दोहराने को अभिशप्त है।
क्या कारण है कि मनुष्य इतनी प्रगति कर गया जितनी कोई भी अन्य प्राणी नहीं कर पाया? कारण कई हैं,
१. दो पैरों पर चलने से हाथों का अन्य कामों, औजार आदि बनाने के लिए स्वतन्त्र होना।
२. बोलने की क्षमता होने से भाषा का विकास कर पाना। जिससे वह अपने अनुभव व सीखा हुआ ज्ञान अपने बच्चों को दे सका। लिखित भाषा का विकास होने से यह मौखिक परम्परा को और भी आगे लिखित शिलालेखों फिर पुस्तकों तक ला पाया।
३. परिवार का गठन होने से बच्चों को विकास के लिए अधिक समय का मिल पाना।
कृषि के विकास के कारण प्रतिदिन के भोजन की चिन्ता से मुक्त होकर कुछ अलग सोच पाने व विकास कर पाने का अवसर मिल पाना।
४. समाज व राज्य का गठन कर पाने से न्याय व्यवस्था होने से धन, सुख सम्पदा को निश्चिन्त हो इकट्ठा कर पाना।
५. मनुष्य का विभिन्न कामों में विशेषज्ञता पा जाने से प्रत्येक को प्रत्येक काम करने की आवश्यकता का ना रह जाने से अपने क्षेत्र में विशेष रूप से माहिर हो पाने का अवसर मिल पाना।
ऐसे ही बहुत से अन्य कारण भी रहे हैं जो उसके विकास में सहायक रहे हैं। यहाँ से विकास करते करते उसका निजता को महत्व देना एक स्वाभाविक विकास था। परन्तु अपने समाज के अधिक अनुभवी लोगों से सीखना विकास का एक बहुत बड़ा कारण रहा। यही कारण था कि समाज में वृद्धों का स्थान बहुत ऊँचा माना जाता था।
परन्तु जबसे लिखित ज्ञान की सुविधा हुई तबसे हमें वही ज्ञान अपने क्षेत्र के सबसे बेहतर ज्ञनियों द्वारा लिखित रूप में मिलने लगा। फिर विज्ञान, टैक्नॉलॉजी, सूचना क्रान्ति, कम्प्यूटर के युग आदि ने तो पूरी रूपरेखा ही बदल दी। प्रायः बहुत से क्षेत्रों में नई पीढ़ी का ज्ञान पुरानी पीढ़ी से अधिक होने लगा। प्रत्येक नई पीढ़ी के पाठ्यक्रम में वह सब है जिसे हम जानते भी नहीं। और जब विशिष्टता का युग है तो कोई भी अपने क्षेत्र में अन्य क्षेत्र वालों से अधिक ही बड़ा विशेषज्ञ होता जा रहा है। यदि हम आशा करें कि किसी विषय में पी एच डी या उससे भी आगे का अनुसंधान करने वाला व्यक्ति यह माने कि उस विषय में उसके माता पिता अधिक जानते हैं तो यह सरासर मूर्खता होगी। प्रायः जब हमारा कम्प्यूटर या नेट हमें कष्ट देता है तो उसके निवारण के लिए हम अपने बच्चों या अपने युवा नेट मित्रों की ही गुहार लगाते हैं।
यह भी सोचना कि हमें व्यवहारिकता अधिक आती है भी सदा सही नहीं होगा। बहुत बार अगली पीढ़ी का कई क्षेत्रों में अनुभव व जानकारी हमसे अधिक होती है। ऐसे में प्रायः वे ही हमें राह सुझाते हैं। हममें से बहुतों को मोबाइल, कम्प्यूटर, ए टी एम, नेट द्वारा बुकिंग हमारे बच्चों ने ही सिखाई है। पहले जैसे हम प्रतीक्षा करते थे कि माँ या पिताजी घर आएँगे तो हमें जो प्रश्न समझ नहीं आ रहे वे हमें उनका उत्तर या कैसे हल करने हैं सिखाएँगे, वैसे ही हम अपने बच्चों का काम से, कॉलेज से, औफिस से, हॉस्टल या अन्य नगर से आने की प्रतीक्षा करते हैं। बहुत से नाना नानी, दादा दादी भी अपने नाती पोतियों से कहते सुने जा सकते हैं, कि रूको, जब तुम्हारी माँ घर आएगी तब वह तुम्हें इसको कैसे हल करना है बताएगी। कई बार तो माँ या पिता जिनके आने की प्रतीक्षा हो रही होती थी उन्हें भी कहना पड़ता है, कि अपनी कक्षा के काम की पुस्तिका दिखाओ देखें कैसे करवाया है या फिर भी न समझ आने पर कहते हैं कि कल अपनी अध्यापिका (बहुधा अध्यापिका ही)से पूछ लेना। कई बार एक दो साल बड़े भाई बहन को समस्या का हल आता है और माता पिता, दादा नानी को नहीं।
अब जब बच्चा बचपन से यह देखता है तो जो स्टीरिओटाइप हमारी पीढ़ी या हमारे माता पिता की पीढ़ी के मन में होती थी कि पिता, दादाजी को सब पता है (बहुधा किसी पुरुष)टूट जाता है। यह स्वाभाविक भी है। उसकी माँ उसे पढ़ाती है सो पिता,या नाना नानी,दादा दादी से अधिक जानती है। अध्यापिका माता पिता से अधिक जानती है। सो यह भ्रम कि पुरुष स्त्री से अधिक, बड़ी उम्र के कम उम्र से अधिक जानते हैं भी टूट जाता है। अब जब वह ऐसे वातावरण में बड़ा होता है और स्वयं यह देखता है कि प्रत्येक नई वस्तु का उपयोग चाहे वह नया कैमरा हो,टी वी हो या कुछ भी वह अधिक सरलता से करता है और बड़े विशेषकर वृद्ध नहीं कर पाते तो स्वाभाविक है कि वह यह मानता है कि उसकी सोच उम्र के कारण किसी से कम नहीं है। पुरुष व उम्र का वर्चस्व यहीं से कम होने लगता है।
सदा से पीढ़ियों के बीच में खाई होती थी। परन्तु माता पिता का अधिक ज्ञान बच्चों में एक स्वाभाविक आदर पैदा करता था। फिर माता पिता के पास जमीन जायदाद,मकान होता था,बहुधा अधिक आमदनी भी। परन्तु आज का युवा यदि माता पिता जितना भी पढ़े लिखे हों तो भी वह प्रायः उनसे अधिक कमाता है़ उनसे जल्दी अपना मकान बनाता है,बैंक में पैसा जमा करता है,अधिक देशों,विदेशों में रह चुका होता है। ऐसे में जब वह प्रत्यक्ष में यह देखता है कि वह पिछली पीढ़ी से किसी भी बात में कम नहीं है तो वह सहज ही पिछली पीढ़ी की हर बात भी नहीं मानेगा। केवल एक दो बातों में ही हम उनसे अधिक हैं और वे हो सकती हैं, हमारा उनके लिए निश्छल प्रेम,हमारा उनकी हर हाल में सुख समृद्धि की कामना करना,हमारा अधिक धैर्यवान होना, अधिक समझदार व व्यवहारकुशल होना, उन्हें भावनात्मक सुरक्षा दे पाना आदि।
अब यदि उनपर हमला बोलकर,उनकी प्रत्येक गतिविधि को बुरा व निकृष्ट बताकर हम उन्हें छोटा सिद्ध करना चाहें तो वे हमसे और भी अधिक दूर छिटक जाते हैं। यदि हम उनकी अधिकतर बातों को समझें और कुछेक मामलों में ही यह दर्शाएँ कि ये तो हमारे ऐसे मूल्य हैं जिनपर हम समझौता सरलता से नहीं करेंगे तो वे भी हमारे इन मूल्यों को हमारे लिए अमूल्य समझ उनका आदर करेंगे। या यदि उनका मत अलग होगा तो हमसे बातकर अपना दृष्टिकोण हमें समझाएँगे व हमारा समझने का यत्न करेंगे। यदि हम प्रायः अपने आपको उनके स्थान पर रखकर सोचें तो वे भी ऐसा ही करेंगे।
यदि हम औफिस से पाँच बजे घर आ जाते थे और छह से नौ का सिनेमा देखते थे और अपनी संतान से जो नौ दस बजे काम से घर लौटें आशा करें कि वे भी नौ बजे घर लौट आएँ तो क्या यह ज्यादती नहीं होगी? हमारा विवाह बीस बाइस या पच्चीस में हो गया और हम अपने इससे भी अधिक उम्र के युवा बच्चों से आशा करें कि उनके विपरीत लिंग के मित्र न हों,कि वे अपना साथी स्वयं न चुनें तो क्या यह सही होगा?
हमारी यह आशा करना कि वे हमारा वर्चस्व मानें जब वे हमें धोखाधड़ी करते,रिश्वतलेते,लोकसभा,राज्य सभा आदि में नेताओं को जूते चलाते,झूठ बोलते,दल बदलते देखें तो क्या हम अति आशावादी नहीं हो रहे? यदि हमें यह बढ़ती खाई पाटनी है तो हमें उम्र धन,शक्ति व ज्ञान की बजाए अपने संयम,आचरण व स्नेह से ही उनके मन में अपना स्थान बनाना है। यह नहीं कि उम्र के कारण उनसे आदर की माँग करें। जिस उदारता, सहनशीलता व आदर का पाठ युगों से युवाओं व विशेषकर युवा स्त्री को पढ़ाया जा रहा है उस पाठ की जितनी आवश्यकता पाठ पढ़ाने वालों को है किसी अन्य को नहीं। यदि हम प्रयत्न करेंगे तो शायद भयंकर रूप से बढ़ती इस खाई को पाट सकेंगे। यदि उम्र में बड़े हम हैं तो यह आरम्भ भी हमें ही करके अपना बड़प्पन दिखाना होगा।
घुघूती बासूती
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घुघूती बासूती
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समाज जब विकास करता और आगे बढ़ता है तो प्रतिगामी लोग उस विकास को रोकने की कोशिश करते हैं। साथ ही जनता से विभिन्न तरह के अनुचित लाभ उठाने के आकांक्षी विकास में विकृतियाँ उत्पन्न करते हैं। दोनों का प्रतिफल समाज के विकास का अवरुद्ध होना है। विकास के आकांक्षियों को उन दोनों के विरुद्ध संघर्ष जारी रखना होगा।
ReplyDeleteएकल परिवार ,कम समय में तरक्की की भूख ....इश्तेहारी समय ...प्रेक्टिकल होने की नई परिभाषा ...कई कारण है ..आज ही सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक निर्णय में ये प्रावधान किया है की कोई भी बच्चा अपने माँ बाप की जिम्मेदारी को नकार नही सकता ..निर्णय का स्वागत किया जाना चाहिए पर ये भी दुःख की बात है की ऐसे निर्णय देने की आवश्यकता भी क्यों पड़ी कोर्ट को ?
ReplyDeleteआगे भी आप अपने सुलझे विचार रखियेगा - दोनोँ पाडी क्या करे कि ये खाई कम हो ?
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखा है आपने
स्नेह सहित
- लावण्या
घुघुतीजी,
ReplyDeleteइस लेख को प्रिंट लेकर फ़्रेम में लगाकर रखने का मन है।
स्कूल, कालेज में कई बार बहसों में किसी का डंके की चोट पर ये कहना कि उसके पिताजी ने ये बात कही है तो सत्य ही होगी अक्सर बहस को खत्म कर देता था क्योंकि उसके बाद कुछ भी कहने से "पर्सनल" ईगो पर बात आ जाती थी।
बडे होने पर बचपन के रोल माडल मातापिता के व्यवहार, सोच पर प्रश्न भी उठते हैं और उठने भी चाहिये। मेरा हिन्दी ब्लागर्स से एक प्रश्न है।
कितने मानते हैं कि उनके बेटे/बेटी/भाई/बहन अपनी संस्कृति भूलकर भ्रष्ट हो गये हैं? अगर उनके बच्चे भ्रष्ट नहीं हुये तो कैसे मान लें बाकी पीढी भ्रष्ट हो गयी है। हिन्दी ब्लागरों में कोई सुर्खाब के पर तो लगे नहीं हैं कि उनके घर बच जायेगें। और अगर उनके बेटे/बेटी पढ लिखकर घर से दूर रहकर भी अपने माता/पिता का सम्मान करते हैं तो यकीन मानिये बाकी बच्चों का भी यही हाल होगा। अपवाद हर जगह होते हैं लेकिन आत्ममुग्धता का चश्मा लगाकर हर चीज को देखना सही नहीं है।
बायफ़्रेंड/गर्लफ़्रेंड की बात भी कर लीजिये। ऐसे बीसियो उदाहरण दे सकता हूं कि जहां बच्चों का कोई अफ़ेयर नहीं हुया वो अपने मां बाप के सहारे हैं शादी के लिये लेकिन मां बाप अपने बच्चों के लिये उचित वर नहीं देख पा रहे हैं क्योंकि अब मां बाप और समबन्धियों के आपसी सम्बन्ध वैसे नहीं रहे कि किसी की बेटी/बेटा शादी लायक हो तो चाचा/ताऊ/मामा/मौसा आदि सब हर जगह देखना शुरू कर दें। अब इसमें भी हमारी पीढी का ही दोष है क्या? कुछ तो हंसी मजाक में कह भी देते हैं कि बेटा तुम खुद ही देख लेते कोई लडकी तो हमारी चिन्ता कम होती। आखिर क्यों अब माता पिता अखबार और शादी.काम पर विग्यापन के नाम से नहीं बिदकते? याद है आज से १५ साल पहले की " अखबार में निकला है तो कोई दोष होगा" वाली बात ।
लिखने को बहुत कुछ है, बाकी फ़िर कभी :-)
घुघुती जी,बहुत ही सामयिक व सटीक पोस्ट लिखी है।आज बहुत से मामलों में हम सही में बच्चों से पीछे है।उस का कारण शायद यही हो सकता है कि हमारे समय में इतनी सुविधाएं नही थी।
ReplyDeleteबात तो विवेकपूर्ण है जी... पर पता नहीं क्यों हमें लग रहा है कि एक गणितीय गड़बड़ हो गई। इस और उस मूल्य संरचना के संक्रमण में एक पूरी पीढ़ी जाया होती है। बीच वाली यानि मंझली पीढ़ी इसे भी गिना जाना चाहिए। एक मुल्य संरचना में पले पगे लोग एकदम भिन्न मूल्य संरचना के लिए आदर रखें कई बार तो विपरीत मूल्य संरचना के लिए... ये अपेक्षा ज्यादती है।
ReplyDeleteमुझे अक्सर अपने माता पिता के लिए महसूस होता है कि शिक्षा सं वंचित, जाति पातिं में रच बसे...आदि आदि...उन्हें एक ही जीवन में हम जैसी 'नालायक' औलादों को भुगतना पड़ा अंतरजातीय विवाह, अधार्मिक विश्वास, खानपान की भ्रष्टता, चोखेरबाली बहु, ... और अभी तो न जाने क्या क्या देखना है। हमें ये कितना ही स्वाभाविक लगे पर ये समायोजन किसी पीढ़ी के लिए सहज नहीं।
मसीजीवी जी, मँझली पीढ़ी को पुल बनना होगा, ताकि दोनों ओर के लोग एक दूसरे को समझ सकें। वैसे अपने अपने समय में हम सभी किसी ना किसी सीमा तक क्रान्तिकारी ही होते हैं। पहली स्कूल जाने वाली स्त्री, उसे स्कूल भेजने वाले माता व पिता, पहला वैवाहिक विज्ञापन देने वाला परिवार, पहला बिना दहेज के विवाह करने वाला, पहला इंजेक्शन देने वाला डॉक्टर, पहला इंजेक्शन लगवाने वाला मरीज, पहला हृदय का औपरेशन, पहला रक्तदान करने वाला लेने वाला, ये सब क्रान्तिकारी ही तो लगे होंगे। परन्तु वे सोचते होंगे कि वे कितने अलग व अनोखे हैं।
ReplyDeleteजो आज हमें सरल स्वाभाविक लगता है वह कभी कितना क्रान्तिकारी रहा होगा? जब पहले पहल रेलगाड़ी बनी थी तो उसका विरोध यह कहते हुए किया गया था कि वह १८ या २० मील प्रति घंटा की गति अस्वाभाविक थी और लोग मर जाएँगे। आज तो पटरी के किनारे खड़ी गाय भी आश्चर्य नहीं करती।
बस आवश्यकता है तो सहज पुल बनने की, अपनी बात कहने की और दूसरे की परस्पर आदर करते हुए समझने की। शुरू में कठिन अवश्य लगता है परन्तु एक बार आदत पड़ जाए तो इतना कठिन भी नहीं लगेगा।
घुघूती बासूती
आप की बात सौलह आने सही है। आज की पीढ़ी पिछली पीढ़ी से कहीं ज्यादा तेज है और अपने निर्णय खुद लेने में सक्षम है। हमें अपने निर्णय उन पर नही थोपने चाहिए।
ReplyDeleteआप के आलेख और नीरज की बात से पूर्ण सहमति . हर पीढी नयी से पुरानी होती हैं . आज के माँ बाप कल के बच्चे ही थे . कल उन्होने जो सुना नहीं पसंद था उनको भी , उनमे से जो समजदार थे उन्होने अपने बच्चो के लिये नये रास्तो का निर्माण होने दिया लेकिन कुछ ना समझ आज भी रुदिवादी सोच से ग्रसित हो कर अपने बच्चो को यानी नयी पीढी को हर ग़लत बात का जिम्मेदार मानते हैं
ReplyDeleteइस लेख और इस पर आई टिप्पणियो से बहुत कुछ अर्थ निकलता है.. फिलहाल तो जो मुझे ठीक लगा वो ले जा रहा हू..
ReplyDeleteBahut hi achhe tarike se apne yaha baat kahi hai...
ReplyDeleteachha laga ise par ke...
आपका इस तरह लिखना न सिर्फ़ आपका बड़प्पन है बल्कि आपकी सुलझी हुयी सोच को बड़े अच्छे तरीके से रखता है. ऐसे तार्किक लेख बहुत कम पढने को मिले हैं, चाहे ब्लॉग हो या प्रिंट मीडियम. और आपने पीढियों के बीच के इस गैप को जिस तरह से परिभाषित किया है आपको नमन करती हूँ.
ReplyDeleteमनुष्य की विडम्बना यह है कि वह विज्ञानं, तकनीक, समाजशास्त्र आदि आदि का ज्ञान आने वाली पीढियों को आसानी से दे सकता है मगर अनुभव कैसे साझा किया जाता है इस मामले में प्रकृति ने हमें काफ़ी ठस बनाकर भेजा है. उसपर तुर्रा ये कि हर पीढी हर बात अपने अनुभव से सीखना चाहती है. इस तेज़ युग में दो पीढियों में पाँच-पाँच साल का अन्तर रह गया है इसलिए माँ-बाप की पीढी बिल्कुल ही obslete लगने लगती है.
ReplyDeletecan you please tell me the meaning of your name "Ghughuti Basuti"
ReplyDeleteघुघुतीजी, इस लेख से जुड़े दूसरे लेख भी पढ़ डाले..आपकी बाते सोलह आने सही हैं... स्कूल से निकले बेटे को दुबई मे अकेले छोड़कर गए थे...चार महीने बाद लौटे तो बहुत कुछ नया अनुभव हुआ..समय मिलते ही ज़रूर बाँटेगे..
ReplyDeleteअत्यन्त सूक्ष्म विश्लेषण करती यह पोस्ट संग्रहणीय है। आपको साधुवाद।
ReplyDeleteहम माता-पिता का आदर इसलिए नहीं करते कि वे हमसे अधिक ज्ञानी, अधिक जागरूक या अधिक योग्य हैं। बल्कि इसलिए करते हैं कि उन्होंने हमें जीवन दिया, अपने व्यक्तिगत सुख-चैन में कटौती करके, कष्ट उठाकर, हमें पाल-पोस कर बड़ा किया, हमें इस लायक बनाया कि हम इस दुनिया में एक श्रेष्ठ जीवन जीने का अवसर पा सके।
यह सब उन्होंने बिना किसी स्वार्थ के वशीभूत हुए ही किया होता है। इस दुनिया में केवल माँ-बाप ही ऐसे होते हैं जो हमें उनसे भी आगे निकलता देखकर हृदय से आह्लादित होते हैं, खुशियाँ मनाते हैं और निश्छल भाव से आशीर्वाद देते हैं। यह पवित्र आशीर्वाद हमें निरन्तर आगे बढ़ने और जीवन की चुनौतियों का सामना करने का सम्बल प्रदान करता है।
किसी माँ बाप में अपनी सन्तान से बड़ा होने का दम्भ कम से कम मैने तो नहीं देखा है।
मेरे लिए तो इसीलिए वे पूजनीय हैं...। इसका उनके भौतिक सामर्थ्य और तकनीकी जानकारी से कोई सम्बन्ध नहीं है।
आपके सुझाव के अनुसार मैंने उर्दू शब्दों के अर्थ हिन्दी में अपनी आख़िरी प्रविष्टि में दे दिए हैं. सुझाव के लिए धन्यवाद. आपका लेख विचारणीय है.
ReplyDeleteहम चूक गए थे. तीन दिन नेट बंद रही. अब ढूँढ ढूँढ कर पहुँच रहे हैं. आज हमारी आत्मा संतुष्ट हो गई. आपको नमन.
ReplyDeleteआपके विचारों से मैं सौ फीसदी सहमत हूं। आपने सही लिखा है कि दो पीढि़यों के बीच मतैक्य कभी नहीं रहा। हम ये सोचा करते थे कि हम ज्यादा होशियार हैं और अब हमारे बच्चे (जो हैं भी) अपने को हमसे अधिक समझदार मानते हैं। ऐसे में आपकी बात से मैं सहमत हूं कि बच्चों के साथ सामंजस्य बनाना चाहिए; अगर वह आपको कहीं गलत भी लगते हैं तो आप उन्हें सौहार्दपूर्ण एवं तार्किक ढंग से समझाया जाना चाहिए। डांट-पीट कर समस्या घटेगी नहीं बल्कि बढ़ेगी ही।
ReplyDeleteजहां तक डा0 अनुराग की बात है वह एकदम अलग मुद्दा है। बच्चों की परिवरिश और संस्कार आधुनिक होने पर नहीं बदलते बल्कि वह अपने बड़ों को देखकर, उनके आचार-व्यवहार को देखकर संवेदनाएं ग्रहण करते हैं। अगर आप अपने बड़ों का आदर करते हैं तो ये संस्कार स्वत: ही अगली पीढ़ी में स्थानांतरित हो जाते हैं। मैने कई परिवारों में देखा है कि बच्चे युवा होते-होते बगावती हो जाते हैं; इसलिए कि उन्होंने अपने बड़ों के कर्मों को नजदीक से देखा है। हो सकता है कि ये शत-प्रतिशत ठीक न हो लेकिन ये सच मैने कई जगह देखा और महसूस किया है।
kafi bhas ho gayi aapki post pr ye ek acchi bat hai...filhal aapko bdhai ek acchi post likhne k liye ...!!
ReplyDeleteघुघूती जी...लेख को पढ़कर मेरा मन कर रहा है की किसी दिन जब आप ऑनलाइन आयें तो आप से बहुत सारी बातें करू. टिपण्णी में सिर्फ अपनी बात रख पाउंगी...चर्चा नहीं कर पाउंगी!
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