एक परिवार में बंटवारा हुआ। मकान, खेत,बगीचे बंट गए। बंटवारा तो हुआ परन्तु एक भाई अपने परिवार का ध्यान रखने की बजाए हर समय दूसरे भाई से ईर्ष्या द्वेष में ही जलता रहा। जब उसे अपने बच्चों को पढ़ाना लिखाना अच्छा मनु्ष्य बनाना चाहिए था वह उन्हें केवल दूसरे भाई व उसके बच्चों के प्रति आक्रोश दिलाता रहा, अपने पर हुए सच्चे झूठे अन्यायों की कहानी सुनाता रहा। वह अपने किसी बच्चे को बहुत अधिक लाड़ करता और किसी से सौतेला व्यवहार करता। वह अपने दर्जन भर बच्चों में से दो तीन को केवल अपने पड़ोसी भाई व उसके बच्चों को गालियाँ देना, उनपर आते जाते थूकना, पत्थर फेंकना, गुलेल से निशाना लगाना, उनकी खड़ी फसलों को आग लगाना, याने कुल मिलाकर घृणा का पाठ पढ़ाता रहा।
समय बीतता गया। घृणा सीखे बच्चे बड़े होते गए। बड़े होने के साथ साथ उनकी घृणा भी बड़ी होती गई। उनकी गुलेलें भी बड़ी होती गईं। पत्थर चट्टानों में बदलते गए। वे इतने उद्दंड हो गए थे कि अब वे घर में भी गालियाँ देने लगे। घर में भी वातावरण खराब होता जा रहा था। जिन बच्चों के साथ सौतेला व्यवहार हो रहा था उन्होंने विद्रोह कर दिया। वे अपना अलग हिस्सा माँगने लगे। यह देख पिता ने इन बच्चों पर अत्याचार बढ़ा दिया। अत्याचार की जब सब सीमाएँ पार होने लगीं तब पड़ोसी ने भी उन बच्चों की दुर्दशा देख उनकी सहायता की और उन्हें उनका अलग हिस्सा दिलवा दिया। इससे नाराज सौतेला व्यवहार करने वाले ईर्ष्यालु भाई के मन में पहले से ही जो भाई के प्रति घृणा थी वह और भी भयंकर रूप से सुलग गई। अब वह और भी खुले रूप से उद्दंड बच्चों को भड़काने लगा, उन्हें पड़ोसियों पर और भी अधिक हमले करने को कहने लगा। घर में उनकी उद्दंडता को वह यही सोचकर बर्दाश्त करता रहा कि पड़ोसियों का जीना तो वे हराम कर ही रहे हैं।
पड़ोसियों ने तो इन उद्दंडों की बदमाशियों के साथ जीना सीख ही लिया था। यह भी सच था कि उसका बहुत सा पैसा, शक्ति और समय बाढ़ लगाने, बाढ़ के पास अपने कुछ बच्चों को हर समय पहरा देने के काम में लगाने में बर्बाद हो रहा था। कई बार उसने ईर्ष्यालु भाई को समझाने, उससे समझौता करने की कोशिश की परन्तु अब तक उद्दंड बच्चे बड़े होकर इतने शक्तिशाली हो चुके थे कि यदि उनके परिवार के कुछ लोग शान्ति चाहते भी तो वे शान्ति व समझौतों को कभी भी लागू नहीं होने देते। जब जब शान्ति वार्ता होती वे पड़ोस के खेत व घर पर और भी बड़ी चट्टानें फेंकते, आग लगाते। अब तो थूकने, गाली देने व पीटने की आदत इतनी पक्की हो गई थी कि वे किसी को भी पीट देते चाहे वह उनके अपने परिवार का हो या मोहल्ले का कोई भी व्यक्ति हो। अब घर के लोग भी उनसे डरने लगे थे। ईर्ष्यालु भाई उन्हें समझाता कि हमला हम पर नहीं केवल पड़ोसी पर करो परन्तु अब वे उसके वश में नहीं रह गए थे। वे पूरे मोहल्ले पर आतन्क फैलाने लगे थे। जो भी उनकी किसी भी सनक को मानने से मना करता वे उसे पीट पीट कर मार देते।
पड़ोस तो परेशान था ही अब तो सारा मोहल्ला व उनका घर भी उनसे आतंकित था। प्रतिदिन उद्दंड लोग सारे परिवार को नए नए कानून बनाकर देते थे। यह नहीं खा सकते, वह नहीं कर सकते, यह नहीं पढ़ सकते, वह नहीं पहन सकते। पूरा परिवार आतंकित था परन्तु वे अब भी उद्दंड लोगों की पड़ोसियों को धमकाने, परेशान करने की उपयोगिता से मुँह नहीं मोड़ पा रहा था। परिवार के कुछ शान्तिप्रिय लोग उस पल को कोसते थे जब ईर्ष्यालु भाई ने इद्दंडों को उद्दंड होना सिखाया था व उनकी हर उद्दंडता पर उन्हें पुरुस्कृत किया था। वह मोहल्ले भर को बताया था कि उद्दंड बच्चे तो बिल्कुल निर्दोष हैं सारी गलती पड़ोसी की है। पड़ोसी तो मारे ही जाते थे अब घर के लोग भी उनकी उद्दंडता की भेंट चढ़ने लगे थे।
अब मोहल्ले का एक दूर वाला अमीर घर जो अब तक ईर्ष्यालु भाई का साथ देता रहा था इन उद्दंड लोगों का निशाना बनने लगा। अब अमीर घर के लोग भी उद्दंड लोगों से निपटने में ईर्ष्यालु भाई का साथ देने लगा। परन्तु ईर्ष्यालु भाई को अपने उद्दंड बच्चों से अब भी इतना मोह था कि जब जब वे अधिक पिटने, हारने लगते वह उनकी मरहम पट्टी करने से अपने को रोक नहीं पाता। उसे यह भी भय था कि यदि वे खत्म हो गए तो पड़ोसी को परेशान कौन करेगा। वे स्वयं मोहल्ले भर में कभी कभी गुहार लगाते हैं कि हमारे उद्दंड बच्चों से हमें बचाओ। परन्तु जब कोई बचाने में सहायता करता है तो ईर्ष्यालु भाई को फिर से अपने उद्दंड बच्चों से प्यार उमड़ आता है। वह बचना भी चाहता है परन्तु उन्हें बचाना भी चाहता है।
अब यह हाल हो गया है कि यदि परिवार के कुछ बच्चे गुल्ली डंडा भी खेलने लगते हैं तो उद्दंड लोग उन्हें धमकाने लगते हैं। मोहल्ले के कोई बच्चे उनसे खेलने उनके घर आए तो वे उन्हें भी पीटना चाहते। बहुत बचा बचाकर उन बच्चों के साथ खेल खेला जाता। परन्तु एक दिन उन्होंने उन बच्चों को गालियाँ ही नहीं दीं, उनपर थूका ही नहीं अपनी गुलेलों से उन्हें घायल भी कर दिया। मोहल्ले के सारे बच्चे तो पहले ही उनके घर खेलने आने से डर के मारे बचते थे, अब तो सबने ही तौबा कर ली है।
पता नहीं ईर्ष्यालु भाई अब क्या सोच रहा है? उसके अपने घर के ही इतने लोग इन उद्दंडों के हत्थे चढ़ते जा रहे हैं कि उनका अपना जीना हराम हो गया है। हाल में ही उनकी एक लाडली बिटिया को ही उन्होंने मार दिया था। शायद वह कभी न कभी निर्णय ले ले व उद्दंड बच्चों को सजा के रूप में एक अंधेरे कमरे में बंद करना चाहे। परन्तु लगता है कि जब वह ऐसा करना चाहेगा तो उद्दंड बच्चे उसे ही अंधेरे कमरे में बंद कर देंगे। देखें क्या होता है। स्थिति तो बहुत चिंताजनक होती जा रही है।
वहीं एक और गड़बड़ हो गई । जब सौतेले व्यवहार से तंग आकर कुछ बच्चों ने अपना अलग घर बना लिया था तब कुछ उद्दंड बच्चे भी उनके साथ उनके घर रहने आ गए। अब उन्होंने वहाँ भी अपना जाल फैला लिया है। वहाँ से भी वे पड़ोस पर पत्थर फेंकते हैं, गुलेल चलाते हें व आग लगाते हैं। हाल में ही उनमें से कुछ ने अपने ही घर में आग लगा दी और बहुत से परिवार के सदस्यों को मार डाला। वहाँ के भी हाल खराब हैं।
सबसे बड़ी समस्या यह है कि अब तक शान्त बैठे पड़ोसी के बच्चे भी पिटते पिटते तंग आ गए हैं। उनमें से कुछ को लगता है कि उन्हें भी उद्दंड बच्चों की तरह उद्दंड बच्चे बन पड़ोसी को उत्तर देना चाहिए। वहाँ के कुछ असंतुष्ट बच्चे भी उद्दंड बच्चों के मित्र बनते जा रहे हैं, कभी नाराजगी में तो कभी पैसे के लिए वे इनका साथ भी देते हैं और अपनी माँ का ही आंचल खींच, फाड़ देते हैं। अपने ही भाई बहनों पर गुलेल चला देते हैं। पिता को गाली देते हैं।
सारे मोहल्ले में स्थिति बिगड़ती जा रही है। किसी को कोई रास्ता नहीं सूझ रहा। सब परेशान हैं। दोनों भाइयों के घरों, भतीजे के घर व सारे मोहल्ले में ही असुरक्षा व्याप्त होती जा रही है। थोड़ी बहुत गल्तियाँ सब घरों ने की हैं। समझ नहीं आता क्या किया जाए क्योंकि हमारे पास मोहल्ला तो एक ही है यहाँ से कहीं और तो जा नहीं सकते। इसे ही सुधारने के सिवाय कोई और रास्ता नहीं है। परन्तु सुधारें कैसे?
घुघूती बासूती
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आज के बिगड़ते हालातों को एक मोहल्ले से बड़ी अच्छी तुलना की है आपने...वाकई इसी तरह से हालात धीरे धीरे बिगड़ जाते हैं. कई बार कुछ लोगो का चुप रहना या कुछ न कहना ज्यादा घातक होता है और कई बार छोटे छोटे फायदों के लिए ऐसे उद्दंड लोगो का साथ देना उनके खुद के लिए मुसीबत का कारण बन जाता है. समस्या गंभीर होती जाती है और आखिर एक ऐसी विस्फोटक परिस्थिति का निर्माण होता है जहाँ कोई भी अछूता नहीं रह पाता...और समस्या ऐसा विकराल रूप ले लेती है की समाधान लगभग असंभव होता है.
ReplyDeleteपका ये आलेख हमारे समाज की रूपरेखा को रेखाकिंत करता है । किसी भी परेशानी से लड़ने के बजाय हम उससे समझौता करते हैं ।और बाद में यह हमारे लिए बड़ी मुसीबत बन जाती है । एक दूसरे के प्रति ईष्या द्वेष इसका सबसे बड़ा कारण है । हम अपने लोगों को आगे नहीं बढ़ने देना चाहते । इसलिए मोहल्ला और हम दूषित हो रहें हैं ।
ReplyDeleteइन बिगड़ते हालातों के जिम्मेदार हम ही हैं।
ReplyDeleteघूघती जी,
ReplyDeleteप्रतीकात्मक विश्लेषण किया है। मौहल्ला बहुआयामी है। अगर हम खडि़या के घेरे के अंदर देखें तो ये हर मोहल्ले की कहानी है लेकिन आपने जिस मौहल्ले की व्यथा कथा लिखी है उसका हल तो फिलहाल हकीम लुकमान के पास भी नहीं है।
सांकेतिकता अर्थगम्य है।
ReplyDeleteसांकेतिकता अर्थगम्य है।
ReplyDeleteसांकेतिकता अर्थगम्य है (कविता जी उवाच )... और वह मुहल्ला हमारा ब्लॉग जगत भी हो सकता है.
ReplyDeleteअच्छी तुलना की आपने ...
ReplyDeleteबहुत सार गर्भित लेख लिखा है आपने और जो सवाल पूछा है उसका जवाब ढूंढ़ना बहुत मुश्किल है...जो स्वयं को और अपने साथ सबको बर्बाद करने की ठान चुका हो उसका क्या किया जा सकता है...
ReplyDeleteनीरज
आज की दशा का सुन्दर प्रतीक लिया है। बधाई।
ReplyDeleteआज के समय को बयान करती पोस्ट। आज के वक्त आदमी अपने दुख से इतना परेशान नही है जितना कि दूसरे के सुख से है। हल क्या हो अभी कुछ नही कह सकता।
ReplyDeleteकहानी अधूरी है....
ReplyDeleteउद्दण्ड बच्चों को देख पढ़े लिखे भाई के कुछ बच्चे भी अपना ही घर बर्बाद करने में उनका साथ देने लगे.
इधर उद्दण्ड बालकों के घर में हुई तोड़ फोड़ के लिए सभ्य पड़ोसी को ही जिम्मेदार बता कर गाली गलौच करते रहे. (यू ट्युब पर श्रीलंका के खिलाड़ियों पर हुए हमले के विडीयो पर पाकी टिप्पणियाँ लाजवाब है)
परन्तु सुधारें कैसे?
ReplyDeleteकान के नीचे बजा कर.
आप ने वैश्विक समस्या को सरलतम तरीके से सामने रख दिया है। प्रतिगामी शक्तियों को परास्त कर के ही मोहल्ले को सुधारा जा सकता है।
ReplyDeleteअब समय आ गया है जब शांत पड़ोसियों की सज्जनता को कायरता आँका जा रहा है. उद्दंडो को सबक सिखाने का समय आ चुका है. शांत भाईयों को अब उद्दंड गृह में बुलडोजर चला कर अपनी खेती की जमीन घोषित कर देना चाहिये. न रहेगा बांस, न बजेगी बांसूरी...
ReplyDeleteप्रतीकों में बात सही कही है.
आइना सब देखते है पर सब अपने अक्स को नकार देते है ...
ReplyDeleteअरे ये तो बडा गंभीर मसला निकला . हम तो यहा ब्लोगजगत के मोहल्ले की हालत पर तपसरा करने पधार गये थे :)
ReplyDeleteप्रश्न गंभीर है, उत्तर की तलाश सबको है। पर शुरुआत करे कौन ? आपका प्रतीकात्मक लहजा अच्छा लगा।
ReplyDeleteपहल तो खुद ही करनी होगी ..बढ़िया लिखा है आपने ..आज कल के हालत ही कुछ ऐसे हैं
ReplyDeleteबहुत सटीक लेख लिखा है ...आपने तो आज के हालातों का चित्रण कर दिया
ReplyDeleteजितना ही हिंसा देख रहा हूँ और जितना ही इस ओर जागरूक हो रहा हूँ उतना ही लग रहा है कि गांधी की "Eye for eye would make everybody blind" सोच सही ही है. मगर इसका उपाय क्या हो?
ReplyDeleteएक नयी पहल की आवश्यकता है बदलाव ज़रूर आयेगा। अच्छा लिखा है आपने।
ReplyDeleteवाह्! एक सामयिक कथा, उपदेश, एवं चिंतन-सामग्री.
ReplyDeleteजब तक सज्जन चुप रहते हैं तब तक दुर्जन राज करेंगे!!
सस्नेह -- शास्त्री
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
http://www.Sarathi.info
एक गंभीर मसले को बड़ी संजीदगी से प्रस्तुत किया आपने. आत्म चिंतन की आवश्यकता है.
ReplyDeleteआज के हालात को बहुत ही अच्छे उदाहरण से समझाया है...लेकिन अब बदलाव आये तो कैसे? उद्दंडता बेकाबू होती जा रही है!
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर बात कही आप ने इस कहानी के माध्यम से, तभी तो कहते है कि किसी का बुरा सोचो तो अपना बुरा पहले होता है,ईर्ष्यालु भाई ओर उस का परिवार तो अब सारी सिमा लांघ चुका है, अब उसे सिर्फ़ खुदा ही सुधार सकता है, ओर वो
ReplyDeleteउद्दंड अमीर घर भी अगर नही सुधरा तो एक दिन वो भी अपनी करनी भुगते गा.
धन्यवाद इस सुंदर कथन के लिये
प्रथम दृष्ट्या हम भी यही सुझाव देते -
ReplyDeleteविनय न मानत जलधि जड़, गये तीन दिन बीत।
बोले राम सकोप तब, भय बिन होय न प्रीत॥
परंतु अब यह लगता है कि, इस प्रकार से उस समझदार भाई को चाहिये था कि बालपन में ही उद्द्ण्ड बच्चों के कान खीँच कर, दो चार बार तमाचे, डण्डे के ज़ोर पर समझा देना चाहिये था। तब मामूली सी कड़ाई से बाल-मन पर से ही उद्द्ण्डता का भूत भगाया जा सकता था, सहजता से। पर क्या करें यदि मुहल्ले व शहर के अन्य निकटवर्ती व दूरस्थ परिवार उन्हें अपने स्वार्थों के लिये बिगाड़ते रहे। अब वे बालक नहीं रहे, वयस्क हो गये हैं - मात्र डण्डे की नीति से कुछ हो सकता है, मनोवैज्ञानिक उपाय, सूफी-संत आदि कुछ उपाय बतायें, झाड़-फ़ूंक से निदान हो, शायद परिवार के समझदार व ज्ञानी जन कुछ बतायें। समझदार परिवार की बागडोर कौन देखता है भविष्य में - शायद उस पर भी निर्भर हो उत्तर !
गूढ बात, सरल शब्दों मे।
ReplyDeleteबहुत सरलता से आज की विषमताओँ पर लिखा हुआ पसँद आया परँतु
ReplyDeleteसमस्या का समाधान भी सोचिये और अवस्य लिखिये आगामी कडी मेँ
स स्नेह,
- लावण्या
सुधार तो अपने घर से करना होगा..मुझे सही चलना है....मेरे घर परिवार में सँस्कार अच्छे हों और जड़े मज़बूत हों, बस यही सोच सुधार ला सकती है....
ReplyDeleteअच्छा लिखा है!
ReplyDeleteमोहल्ले की कहानी कह के आपने आज के हालात बयाँ कर दिये, अब देखना है कि ये मोहल्ले के हालात कितने जल्दी सुधरते हैं या ज्यादा बिगड़ते हैं।
ReplyDeleteआप को बलोगिंग के दो साल पूरे करने पर बधाई
Bahut hi satik aur tulanatmak lekh likha hai apne...par in sub halato ke zimmedaar bhi shayad hum hi hai...
ReplyDeleteबहुत गहन और सटीक बात. पर सवाल फ़िर वही कि इसका कुछ छोर तो मिले . कहां से इस ऊन के उल्झे गोले को सुलझाया जाये?
ReplyDeleteरामराम.
YAHI VASTAVIK STHITI HAI SAMAAJ KI BADHIYA CHITAN KIYA HAI BADHAI .
ReplyDeleteबहुत बढ़िया प्रतीकों का इस्तेमाल किया है, बढ़िया लेख, आप के सवाल का जवाब ही तो नहीं है किसी के पास।
ReplyDeleteमोहल्ला न एक था न होगा, गल्ती पर हैं आप.
ReplyDeleteभारतीय नागरिक से:
ReplyDeleteमैं मोहल्ले की एकता के बारे में नहीं कह रही। एकता जो होती तो यह स्थिति ही क्यों आती? हमारी पृथ्वी की बात है, जो हमारे पास केवल एक ही है और यहीं हमें रहना है। इसे छोड़कर कहीं नहीं जा सकते। चाहे इससे प्रेम न भी करें, यहाँ रहना मजबूरी भी हो तो भी हमें इसे सुधारना ही होगा।
घुघूती बासूती
सही लिखा है आपने मोहल्ले का इससे बढ़िया चित्रण नहीं हो सकता। अगर मोहल्ले वाले इसे समझ जाएं तो कितनी शांति हो और कितना प्यार।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर लेख है.
ReplyDeleteलातों के भूत बातों से नहीं मानते. कहीं पर तो शठे शाठ्यम समाचरेत का पालन करना ही होगा वरना बामियान में पहले सारे बौद्ध मारे जायेंगे और फिर सैकडों साल बाद विशाल बुद्ध की मूर्ती भी ध्वंस कर दी जायेगी.
आपने सब-कांटिनेंटल सिचुअशन का बहुत अच्छी तरह वर्णन किया है.
ReplyDeleteबर्लिन की दीवार गिर गयी क्योंकि वह दिलों में नहीं बनी थी. यहाँ उल्टी है. जब तक मोहल्ले के सारे घर सिर्फ और सिर्फ तरक्की और अमन के बारे में नहीं सोचेंगे तब तक हालत बुरे ही रहेंगे.