बात तब की है जब हम मध्यप्रदेश में रहते थे। हमारा मकान कॉलोनी में आखिरी था और उसके बाद कारखाने का क्षेत्र खत्म होकर कस्बे का बाज़ार शुरू हो जाता था। हमसे काफी पहले वहाँ किसी सज्जन ने जनहित के लिए हमारे बगीचे से पाइप आगे बढ़वाकर दीवार के बाहर एक नल लगवा दिया था। बात तो बहुत बढ़िया थी, जनहित में भी थी, परन्तु जनहित कभी कभी स्वहित का शत्रु बन जाता है।
नल से पानी भरना, बहुत अच्छा, नल पर लोगों का स्नान करना, कपड़े धोना, कोई बात नहीं, दीवार तो थी ही, सो उस तरफ हमें नजर थोड़े ही आता था कि क्या हो रहा है। परन्तु कपड़े धोने वाले कपड़े दीवार पर सूखने डाल देते थे फिर जब वे उड़कर हमारे बगीचे में आते तो दीवार फाँदकर कपड़े लेने बगीचे के अन्दर आ जाते। नहाने वाले अपनी बारी की प्रतीक्षा में हमारी दीवार पर बैठे रहते, गप्पें मारते। बरतनों,बाल्टियों के शोर में उनकी बातों, या जब कोई संगीतमय अनुभव करे, तो गानों का भी शोर सम्मिलित हो जाता। यहाँ तक भी ठीक था परन्तु यदि कभी पानी चले जाता तो उन्हें लगता कि इसमें कोई ना कोई गड़बड़ हमारे बगीचे की ओर से हुई है, वे नल को हिलाते, पाइप को जोर जोर से हिलाते जैसे पाइप को सोए से जगा रहे हों। जब बात तब भी नहीं बनती तो चिल्ला चिल्लाकर पूछते कि पानी क्यों बंद हो गया। फिर छलांग लगाकर अंदर आकर जाँच पड़ताल करते।
बात यहाँ तक भी रहती तो गनीमत थी। नल पर तो लगभग सदा ही नहाने वाले पुरुषों का तांता लगा रहता। सो बहुत सी स्त्रियाँ सीधे हमारे बगीचे के नल से ही पानी भरने लगतीं। एक बार एक अधेड़ सी स्त्री बगीचे के नल से पानी भरने आई। मैंने कहा कि आप बाहर वाले नल से पानी क्यों नहीं भर लेतीं। उन्होंने मेरे पुरखों तक को जो गालियाँ दीं और मुझे भी पानी पिलाने के पुण्य के बारे में जो ज्ञान दिया वह आज तक याद है। वैसे तो मुझे चेहरे याद नहीं रहते परन्तु उसका चेहरा आज तक याद है। 'खूब पुन्न कमाएगी तू तो! लोग तो प्याऊ लगाते हैं और तू हमें पानी भरने से रोक रही है। सीधे नरक जाएगी तू तो!खूब पुन्न कमाएगी तू तो!'
आज भी जब पाप पुण्य शब्द सुनती हूँ तो उसका चेहरा और 'खूब पुन्न कमाएगी तू तो!'सहज ही याद आ जाते हैं। एक आदमी भी याद आ जाता है जो पेड़ों पर फूल वापिस चिपका सकता था। परन्तु जो मुझे नरक जाने की दुआएँ देता रहा।
मुझे बगीचे का बहुत शौक है,सो सदा जहाँ भी जाती हूँ, ढेरों फूलों के पौधे, फलों के पेड़ अवश्य लगाती, लगवाती हूँ। वहाँ भी गुलाब के पौधे लगाए थे। मित्रों के बगीचों से फूलों के बीज इकट्ठा करना, गुलाब की कलम लेना, मैं सदा ही करती रही हूँ। सो जब मेरे गुलाब के पौधों में कलियाँ लगीं मुझे बहुत खुशी हुई। परन्तु फूल खिले देखने को मैं सदा ही तरसती रह जाती थी। पिछली शाम कुछ कलियाँ दिखतीं और जब तक मैं बच्चों को तैयार कर स्कूल के लिए निकलने लगती फूल तोड़े जा चुके होते थे। एक बार मैंने एक आदमी को फूल तोड़ते हुए देख लिया। मैंने उससे पूछा कि वह फूल क्यों तोड़ रहा है। उसने इसे मेरे सामान्य ज्ञान की कमी मानते हुए उसमें वृद्धि करते हुए कहा कि पूजा के लिए तोड़ रहा है। मैंने कहा कि इस तरह किसी के बगीचे से फूल मत तोड़ा करो। यह गलत है। तो उसने मुझे कहा'अब तो तोड़ चुका, कहो तो वापिस चिपका दूँ?'मन तो बहुत कर रहा था कि कहूँ कि हाँ वापिस चिपका दो। परन्तु स्कूल जाने को देर हो रही थी और मैं उसे यह जादूगरी कर दिखाने का निमन्त्रण न देकर केवल दो चार बातें अपने नास्तिक होने व नरक में जाने की सुनकर स्कूल चली गई।
आज तक मुझे समझ नहीं आया कि क्या दूसरों के बगीचे से तोड़े हुए फूलों से उन आस्तिकों के भगवान खुश होते होंगे? क्या सच में बाहर नल लगा होने पर भी अपने बगीचे से पानी भरने को मना करना, थोड़े से व्यक्तिगत एकान्त की कामना करना बहुत बड़ा अपराध था? क्या निजी नामक शब्द हमारे देश में सामाजिक अपराध है?
आज ये सब बातें श्री सुरेश चिपलूनकर जी के लेख को पढ़कर याद आ गईं। शायद कुएँ वाले महाशय को भी कभी शान्ति नहीं मिलती होगी। दिन रात कुँए पर उत्सव सा माहौल बना रहता हो या फिर वहाँ पानी को लेकर युद्ध होते हों। जो भी हो मुझे पता है मरकर मुझे कहाँ जाना है। तभी तो जब एक अन्य स्थान पर भी मेरे बगीचे से ठीक मेरे सोने के कमरे के पीछे जब सुबह छह बजे 'पानी भरो' कार्यक्रम तेलुगु में लड़ाई झगड़ों व जोर जोर की बातचीत के साथ सम्पन्न होता तो मैं चुपचाप उस नरक, जहाँ का भय मुझे पहले भी दिखाया गया था, की कल्पना करती रहती, कहती कुछ नहीं थी।
घुघूती बासूती
Thursday, February 12, 2009
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आपका लिखा पढ़कर बहुत अच्छा लगा, सुरेश जी को भी पढ़ेगे...
ReplyDelete---------
चाँद, बादल और शाम
रोचक पोस्ट। एक फिल्म थी चित्रलेखा जिसका गीत था
ReplyDeleteये पाप है क्या और पुण्य है क्या .....रीतों पर धर्म की मुहरें हैं।
हर युग मे बदलते धर्मों का कैसे आदर्श बनाओगे..... ।
इस पाप और पुण्य के इस विश्लेषण को मैं महत्व जरूर देता हूँ । लेकिन उतना ही जितना कि इंसानियत को जिंदा रखे। आज के इंसानियत को कायम रखना ही पुण्य है, बाकी पाप तो एक बच्चे का नाहक दिल दुखाना भी होता है।
अच्छी पोस्ट।
दी गई सुभिधा को लोग अधिकार मान लेते है . एक कहावत इन्ही लोगो के कारण बनी नेकी कर गाली खा . और कोई कष्ट हम को न हो सयाने कह गए है नेकी कर दरिया मे डाल
ReplyDeleteएक बार यह कार्य हम भी कर चुके हैं. और आप समझ सकती हैं कि क्या हुआ होगा?
ReplyDeleteअसल मे ये पानी का वितरण पुन्य से ज्यादा बाद मे उपयोगकर्ताओं का अधिकार बन जाता है. बहुत सुंदर लिखा आपने.
रामराम.
तमाम अनुष्ठानों को लोग कोल्हू के बैल के तरह संपन्न करते हुए पूरा जीवन काट देते हैं !
ReplyDeleterochak anubhav,vaise sehmat hai aapke likhe se,pani dena buri baat nahi,magar log jaisa vyavahaar karte hai,bura lagta hai.
ReplyDeleteसही लिखा आपने।
ReplyDeleteसही लिखा आपने।
ReplyDeleteहमेशा की तरह सहज् भाव से लिखे गए आपके अनुभव पढ़ना हमेशा अच्छा लगता है..
ReplyDeleteआपका पोस्ट इतना सहज लगता है की बरबस मन खिचा आता है उसे पढने को.
ReplyDeleteआपकी रोजमर्रा की भाषा में एक रोचकता होती है जो आपके लेख से नाता जोड़ देती है.
सच कहा आपने और बहुत खूब लिखा भी। सौजन्य का लाभ लोग यूं उठाते हैं जैसे ये उनका जन्मसिद्ध अधिकार है....
ReplyDeleteदूसरों के घर से फूल तोड़ कर भगवान को चढाने वाली बात तो हमें भी समझ नही आती है ।
ReplyDeleteबड़े दिनों बाद आपको पढ़कर अच्छा लगा ।
apne seedhe aur saral andaaz mai aapne bilkul sahi baat likhi hai...
ReplyDeleteजिसको जो आसानी से सुविधा मिल जाए वह उसको अपना समझ के उपयोग करता है ..फ़िर कहाँ दूसरो के बारे कोई सोचता है ..अच्छा लिखा आपने
ReplyDeleteआपके अनुभवों की बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति थी. हमें लग रहा था शायद हम ही झेल रहे थे. ऐसे मौके हमें भी आते रहे हैं. आभार.
ReplyDeleteसुरेश भाई को तो पढ़ा नहीं, अब पढ़ना पड़ेगा.
ReplyDeleteआप लिखा पढ़ने कर काफी विचारा और अच्छा लगा.
आपकी सहज अभिव्यक्ति का मुरीद हूं .
ReplyDeleteक्या करती हैं आप...बाप रे बाप इतना बड़ा पाप :D इस समस्या से हम भी गुजर चुके हैं. अच्छा लगा सरल सी ये आपबीती पढ़ना :)
ReplyDeleteबहुत बढिया । पाप -पुण्य की परिभाषा देश काल और परिस्थिति के मुताबिक बदलती रहती हैं । मन मुताबिक हो तो पुण्य ,विपरीत हो जाए तो पाप ....।
ReplyDeleteसुरेश जी का पोस्ट मैने भी पडा था....पर उन्होने ये तो कहीं नहीं लिखा है कि कुंए में होनवाली भीड के कारण उक्त महोदय परेशान थे.....उन्होने तो वास्तुशास्त्री के कहने पर कुएं को बंद करवाया था.....और आपने जो लिखा है ......ऐसी परेशानी के दौर से हमलोगों ने बहुतों को गुजरते देखा है.....आपका कहना बिल्कुल सही है।
ReplyDeleteमेरी अत्यन्त निजी कामना रही है है कि कोई मुझसे इस तरह का झगड़ा मोल ले और फ़िर मैं अपना गुस्सा तसल्ली से निकल सकूँ. बचकानी बात है मगर सच है. मगर अफ़सोस कि ऐसा आजतक हुआ नहीं है. मुझे हैरानी होती है कि लोग कैसे अपना गुस्सा जज्ब कर लेते हैं.
ReplyDeleteबहुत ही सही बात कही आप ने, लेकिन कई बार आसपडोस मे जिन से मिलना जुलना रहता है, ओर जो इस सुबिधा को एक उपहार मानते है, उस समय यह गलत नही हमारे घर मे भी हेडं पम्प है ओर आसपास के सभी लोग हमारे यहा गर्मियो मे पानी लेने आते है, ओर जब गेट खुला हो तो ही अन्दर आते है, दोपहर कॊ कोई नही आता, गन्दगी भी कोई नही डालता, ओर बत्मीजी का तो सवाल ही नही,
ReplyDeleteलेकिन आप का लेख पढ कर सच मै मुझे हेरानगी हुयी कि आप तो लोगो का भला कर रही है, ओर लोग उलटे....इस से अच्छा तो सब बन्द ही कर दो, ओर लोगो को खुद ही अहसास होगा.
धन्यवाद
सांच कहो तो मारन दौडे-यही निष्कर्ष देती है आपकी यह रोचक और प्रवाहमयी पोस्ट। लगा, आप मेरी ही नहीं, सब पर गुजरी हुई कथा कह रही हैं।
ReplyDeleteआपके कर्मों का फल लोग तय करते हैं, ऐसे अधिकारपूर्वक मानो वे सीधे वहीं से आ रहे हैं जहां आपके जाने की सूचना दे रहे हैं।
ये फूलों वाली समस्या तो हमारे साथ भी थी, बड़े जतन से फूल लगाते थे और पड़ोसी कब आकर अपनी पूजा के लिये तोड़ जाते पता ही नही चलता था।
ReplyDeleteघुघूती जी का धन्यवाद कि उन्होंने अपनी टिप्पणी के जरिये मेरी एक बड़ी गलती को सुधार दिया - मैंने और शब्द अनजाने में प्रयोग किया था जो मुझे नहीं करना चाहिये था। मैंने लेख की अपनी गलती सुधार ली है और यह सबक भी लिया है कि आगे से पोस्ट पब्लिश करने से पहले कम से कम दो बार पढूंगा। (यह मैं अपने कमेन्ट देने के बाद {घुघूती जी के कमेन्ट के बाद लिख रहा हूं}) एक बार पुन: उन्हें धन्यवाद.
ReplyDeleteश्री चिपलूनकर का आलेख और उस पर टिप्पणियाँ मैंने पढीं थी कितनी अजीब बात है कि कुछ लोग प्रोफेसर साहब को "पुण्य" पर विश्वास करने की नसीहत दे रहे थे और "वास्तु" पर उनके विश्वास पर उन्हें मूर्ख भी कह रहे थे ! उस प्रकरण में मेरा मानना था कि कुआं बंद करने को लेकर प्रोफेसर साहब के अपने तर्क , अपने कारण जरुर रहे होंगे , इसलिए उनका पक्ष सुने और जाने बगैर टिप्पणी कैसी ?
ReplyDeleteवैसे पुण्य कमाऊ लोग अगर चाहते तो प्रोफेसर साहब से चर्चा करते ! कुँए में एक सबमर्सिबल पम्प डालते और जमीन में गहराई से एक पाइप लाइन बिछा कर उस दिशा में बाहर निकालते जहाँ से पानी की निकासी , प्रोफेसर साहब और उनके वास्तुविद के विश्वास के अनुकूल होती ! इसके बाद ऊपर से कुँआ बंद कर दिया जाता ! प्रोफेसर साहब की इच्छा भी पूरी हो जाती और भीषण जल संकट से त्रस्त मुहल्ले वालों को सबमर्सिबल पम्प और बिजली के स्वयं के नियमित सामूहिक खर्चे पर पानी भी मिलता रहता ! हो सकता है कि ये सिर्फ़ मेरा वहम हो कि प्रोफेसर साहब इस विकल्प को मान लेते ! पर पुण्य की आकांक्षा रखने वालों ने कोई और विकल्प खोजा हो ऐसा भी नही लगता !
मुहल्ले के लोग पानी भी चाहते हैं और वो भी अपनी शर्तों का "विश्वास" ( पुण्य) प्रोफेसर पर थोप कर ,तो ये जायज़ कैसे है !
खैर ... मैं कह रहा था कि मैंने उस आलेख पर टिप्पणिया पढ़ी और आपके आलेख पर भी पढ़ चुका हूँ ! आपने भी जरूर पढ़ी होंगी ?
मुझे आपके ख्याल सहज और स्वाभाविक लगे ! इसीलिये लेख भी खूबसूरत है ! कोई ढोंग ,कोई पाखंड नहीं ! कोई आलेखीय स्टंट भी नहीं ! मैं आपकी साफगोई के लिए साधुवाद कहता हूँ ! और हाँ कृपया इसे मेरा ईमेल समझियेगा , टिप्पणी नही ! आदर सहित !
लगता है ऐसी ही दुआएं मुझे भी मिलती होंगी, तभी तो यह आग की लपटों वाली पोस्ट लिखी थी
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