वसन्त पंचमी ! कभी इसका आना यूँ इतना चुपचाप न होता था। तब पीले वस्त्र पहनते थे। कम से कम रूमाल तो पीला रंगा ही जाता था। खेतों में सरसों के फूल होते थे। अब तो सरसों ही देखे जमाना बीत गया। आज वसन्त पंचमी आई भी और चली गई।
आज के दिन ही तो मंदिर से शास्त्री जी को बुलवाकर मेरी पढ़ाई का शुभारंभ हुआ था। लकड़ी की तख्ती हल्दी मिली गाचनी (मुल्तानी मिट्टी) से पोती गई थी। एक दवात में चमचमाती हुई काली स्याही थी। हाथ में कलम पकड़ा कर ॐ लिखवाया गया था। फिर मंदिर में पढ़ने भेजा जाने लगा था।
वह मंदिर! जब भी मंदिर शब्द सोचती हूँ तो पिताजी व उनके कुछ साथियों द्वारा मिलकर सालों चंदा इकट्ठा करके बनाया वही अपने जन्म स्थान का मंदिर याद आता है। कितना भव्य मंदिर था!मंदिर के प्रांगण में शिव की मूर्ति जिसकी जटा से गंगा की तरह हर समय पानी निकलता रहता था। साथ में छोटा सा तालाब सा था। फिर एक बड़ा सा हॉल और फिर राधा और कृष्ण की मूर्तियाँ !बाहर की तरफ से ही दोनों ओर दो छोटे शिव और दुर्गा के मंदिर थे। मंदिर के साथ एक तरफ शहतूत के पेड़ों वाला बड़ा सा बाग था। दूसरी तरफ लम्बा चौड़ा मैदान और स्टेज। वहीं पर राम लीला हुआ करती थी। वहीं पर वसन्त पंचमी के दिन बच्चों का कविता पाठ, भजन गायन आदि का कार्यक्रम हुआ करता था।
मंदिर में ही एक छोटी सी पाठशाला थी। जहाँ के.जी.(कच्ची,पक्की )से लेकर छठी कक्षा तक की पढ़ाई होती थी। मंदिर के किनारे ही शास्त्री जी के रहने को घर था और धर्मशाला के कुछ कमरे थे। मंदिर के बाहर मंदिर द्वारा बनाई किराये पर दी कई सारी दुकानें थीं।
पिताजी जब सन ४४या ४५ में पंजाब के उस कारखाने में गए थे तो आसपास के गाँव में मन्दिर नहीं था,पाठशाला नहीं थी। कारखाने का अपना स्कूल था परन्तु गाँव के बच्चे वहाँ नहीं पढ़ सकते थे। दुकानें भी एक दो व बहुत दूर थीं। उस समय के पंजाब में खाए जाने वाले खाद्य पदार्थों के अलावा कुछ नहीं मिलता था। शायद अरहर की दाल भी नही। साड़ी,धोती भी नहीं मिलती थी। हिन्दी का समाचार पत्र, पत्रिका भी नहीं। स्त्रियाँ घरों से बाहर नहीं निकलती थीं। परदा प्रथा जोरों पर थी।
तब पिताजी व उनके मित्रों ने मिलकर मंदिर,पाठशाला व दुकानें आदि बनवाईं। रामलीला शुरू करवाई। स्त्रियों ने मंदिर के नाम से ही,पर बाहर निकलना तो शुरू किया। मंदिर की दुकानों में ही कपड़ों,मिठाई, अनाज,मोची की दुकान आदि बनीं। कचेड़ू मोची होता था। जूते वही बनाता था। जूते बनवाना भी क्या बड़ा काम होता था! पिताजी हमें लेकर उसकी दुकान पर जाते। वह नाप लेता। हम अपनी पसन्द बताते,ऐसे नहीं वैसे चाहिए। पिछली बार जैसे नहीं। वह बनाने में सप्ताह से अधिक लेता। बीच बीच में जाकर कैसे बन रहे हैं देख आते,आधे बने में नाप भी जाँच आते। कचेड़ू चाचा कहलाते थे। अधिक जिद करने पर उनकी डाँट भी खा लेते थे।
जब मैं पाठशाला जाने लगी तब मंदिर की पाठशाला की फीस आठ आने होती थी। गरीब बच्चों को वह भी माफ थी। कारखाने के स्कूल से पहले, दो साल सभी बच्चे वहीं जाते थे। पढ़ाई भी कितनी सही होती थी। एक हाथ में लिपी हुई तख्ती जिसपर पेन्सिल से लाइनें खींची जाती थीं। दूसरे हाथ में दवात जिसमें सूखी स्याही पानी में मिलाकर घोली जाती थी। कलम बनाना भी एक कला होती थी। कलम पिताजी बनाया करते थे। चाकू से छीलकर उसमें एक टक (छेद)लगाया जाता था। गाचनी साथ स्कूल ले जाई जाती थी। जब लिखने के बाद तख्ती भर जाती थी तो उसे धोने के लिए ले जाते थे। फिर गाचनी से पोतकर घूम घूमकर तख्ती को सुखाते थे। साथ में गाते थे....
सूख सूख फट्टी
चंदन घट्टी,
राजा आया
महल बनाया
महल के ऊपर
झंडा लगाया
झंडा गया टूट
फट्टी गई सूख।
फट्टी=पंजाबी में तख्ती
कुछ पंक्तियाँ लिखना,फिर उनके सूखने की प्रतीक्षा करना,फिर दूसरी तरफ लिखना फिर सूखने की प्रतीक्षा करना,फिर मास्टरजी को दिखाना,फिर बाहर जाकर धोना,लीपना पोतना,सुखाना,घूम घूम कर गाना गाना, फिर वापिस कक्षा में आना!आज के बच्चों की तरह बैंच पर कैद होकर नहीं रहना पड़ता था। लिखने से अधिक बच्चे तख्ती धोना, लीपना, सुखाना,लम्बे से रूलर से लाइन लगाना,कलम बनाना,चाकू का उपयोग करना,स्याही घोलना आदि सीखते थे। बस्ते में होता था एक कायदा (क ख ग घ व संख्या की पुस्तक,पहाड़े की पतली सी पुस्तक),एक दो कलम,एक रूलर,एक पुड़िया स्याही की (बहुत चमकती थी सूखी स्याही!बद्री की दुकान से स्याही,तख्ती,कलम आदि खरीदते थे)। प्यास लगी तो नल से पानी पीते थे और भूख लगने तक घर पहुँच जाते थे। महीने दो महीने में मंदिर के अध्यक्ष, जो कभी पिताजी तो कभी कोई अन्य चाचाजी होते थे पाठशाला का निरीक्षण करने आते। हम धीर, गंभीर होकर डिक्टेशन लेते,जिसे वे जाँचते।
शाला में केवल पाठ्यक्रम ही पढ़ाया जाता था। किसी प्रकार की धार्मिक पढ़ाई नहीं होती थी। भजन बस आज वसन्त पंचमी के दिन एक प्रतियोगिता में गाए जाते थे। अन्यथा कविता,कहानी पाठ होता था ही साथ में। वह प्रतियोगिता जीतकर किसी पौराणिक कथा या कविता की पुस्तक जीतना भी कितना महत्वपूर्ण होता था!
और स्कूल का रास्ता! रास्ते में बहुत सारी सीढ़ियाँ उतरनी चढ़नी पड़ती थीं। फिर रेल की पटरियाँ पार करनी होती थीं। सारे बच्चे मिलकर यह रास्ता तय करते थे। हर बच्चे को घर से आवाज देकर बुलाकर साथ लेकर जाते थे। एक बार एक नए रास्ते से गए। वहाँ एक पागल मिल गया। वह बड़े बड़े पत्थर उठाकर मारने को हमारे पीछे भागा था। क्या रोमांच हुआ था उससे बचकर स्कूल पहुंचने में!रास्ते में चमेली का मिलना और उसके किस्से फिर कभी।
बस यूँ ही लिखकर वसंत पंचमी फिर से जी ली। ना पीला पहना,ना देखा,ना खाया।
घुघूती बासूती
Sunday, February 01, 2009
वसन्त पंचमी, तख्ती, काली स्याही,गाचनी,पाठशाला और मैं।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
हमारे यहां तो इस दिन, आज भी पीले रुमाल उपहार में मिलते हैं और मीठा चावल बनता है।
ReplyDeleteआपके गत-अनुभवों से मन अनायास ही प्रमुदित हुआ जा रहा है. हमको जीवन के ये सहज भाव उपलब्ध ही नहीं हुए.
ReplyDeleteहम तो हर बसंत पंचमी अपने अध्ययन के सारे साजो सामान के साथ बैठ जाते, उनकी पूजा करते, उनके भीतर की बैठी सरस्वती को जगाते और मग्न हो जाते.
सभी कहते आज के दिन अपने प्रिय विषयों का अध्ययन कर लेना चाहिये. पता नहीं कितना कुछ प्राणवंत था यह क्रिया-व्यापार, पर सम्मोहित करता था, करता है.
बसंत पर आपका बचपन सच मे सामने आ गया . अपनी संस्क्रती मे शायद उत्सव का एक कारण यह भी है स्मर्तियाँ ताज़ी होती रहे . मधुर स्मर्तिया
ReplyDelete"बचपन के दिन भी क्या दिन थे" गीत गुन गुना उठा. और एक दूसरे गीत के अंश के साथ तुकबंदी "बन गए आज वो साथी मेरे तन्हाई के". कुछ क्षणों के लिए ही सही हमने भी अतीत में झाँकने की कोशिश की, आपके यादों को पढ़कर. आभार.
ReplyDeleteपटिया पर लिखने वाले दिन याद आ गये। सुन्दर पोस्ट!
ReplyDeleteबहुत उम्दा अभिव्यक्ति रही बसंत पंचमी के नाम पर बचपन की यादों में गोता लगाने की. कितना सुखद लगता है इस तरह अतीत की यात्रा पर निकल जाना और उन्हें अभिव्यक्त करना. बहुत आनन्द आया.
ReplyDeleteआपने तो हमको बचपन की यादों मे गोता लगवा दिया. लगता है उस समय का सभी का अनुभव एक जैसा ही था. कचेडू मोची ... सही याद दिलाया. जूते जूतियां इसी तरह बनवाई जाती थी. स्कूल भी बडे परिश्रम पुर्वक हमारे पेरेंट्स ने बनवाये थे.
ReplyDeleteइन यादों को आपकी शैली मे याद करना बडा सुखद लगा. बहुत धन्यवाद.
रामराम.
तख्ती-दवात, कलम छीलना और यहाँ तक कि फीस भी जानी पहचानी कहानी है... हमारी फीस दो रुपये दस पैसे होती थी... मगर हमारे यहाँ वसंत-पंचमी की ऐसी रौनक नहीं होती थी या शायद इसलिए कि दिल्ली में थे तो मां कुछ ख़ास नहीं करती होगी...
ReplyDeleteबहुत सुखद और मनोहारी वर्णन। धन्यवाद।
ReplyDeleteहमारे शिशु मन्दिर में भी सरस्वती पूजा का कार्यक्रम होता था। उसी दिन से तीन दिन का शिविर भी लगता था। पटकुटी (tent) में सहपाठियों के साथ रात्रिनिवास। सांस्कृतिक कार्यक्रम, प्रतियोगिताएं, शारीरिक कौशल का प्रदर्शन, निशानेबाजी, योग, सहभोज आदि में बड़ा आनन्द आता था। नाटक का रिहर्सल तो महीना भर पहले से चलता था।
अत्यन्त प्रभावशाली संस्मरण लिखा है आपने! बहुत अच्छा लगा पढ़कर।
ReplyDeleteसाथ ही अपने लड़कपन की वसंत पंचमी याद आ गई। अरंड के पेड़ को काट कर लाते थे और होली जलने वाले स्थान पर लगाते थे। फिर स्लेट में पेंसिल से माँ सरस्वती का चित्र बनाया या बनवा कर स्कूल जाते थे। उस दिन स्कूल में सिर्फ सरस्वती पूजा होती थी और छुट्टी दे दी जाती थी।
बस यूँ ही लिखकर वसंत पंचमी फिर से जी ली। ना पीला पहना,ना देखा,ना खाया।...................................पता नहीं क्यूँ हम किसी के बचपन में अपना बचपन जी लेते हैं.......किसी और के जीवन को भी अपना कह लेते हैं...और सच भी है........सबका जीवन भी तो अपना ही जीवन है.......है ना.....!!??
ReplyDeleteपता ही नही चलता है कब हमारे त्योहार आते है और चले जाते हैं। आई यानी मां ने पीला हलुआ बना कर खिलाया तो पता चला वर्ना कहां किसे फ़ुर्सत है।अच्छा लगा आपको पढ कर कुछ यादें ताज़ा हो गई।
ReplyDeleteअद्भुत सुन्दर पोस्ट । आभार !
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा पढ़कर.
ReplyDeleteमेरी दशा भी आप जैसी ही है, यह जानते हुए भी कि यह सब अब या तो अखबारों/चैनलों में दिखेगा या फिर इसी तरह ब्लाग पर।
ReplyDeleteसमय के इस प्रसाद को प्रसन्नतापूर्वक, सर माथो चढाते हुए स्वीकार कर लेना ही हमारी नीयति भी है और प्रसन्न होने की विवशता भी।
बीते दिनों मे गुमा देने वाले सुन्दर वर्णन ने अभिभूत किया।
बहुत बहुत ही सुंदर.......बचपन में लौट जाना.........फ़िर उसकी मधुर यादों को रीवाइंड करना..........धीरे धीरे उन मधुर पलों को कागज़ में सिमटना कितना सुखद लगता होगा. मुझे तो पढ़ कर ही ऐसा लग रहा है जैसे कोई चलचित्र मेरी आंखों के सामने से गुज़र रहा है और मैं भी उसके साथ एकरूप हो रहा हूँ.
ReplyDeleteधन्यवाद ऐसे मधुर स्मृति को बाँटने के लिए
बसंत पंचमी की आप को बधाई
गाचनी शव्द पढ कर मुझे भी अपनी फ़ट्टी याद आ गई, इस के साथ ही आप के लेख ने बचपन की तरफ़ लोटा दिया, बहुत सुंदर यादे समेटे है आप का यह लेख.
ReplyDeleteधन्यवाद
बसंत पंचमी की मीठी यादो भरी पोस्ट है यह ..अब कहाँ यह सब होता है ..बढ़िया लगा भूली बिसरी यादो को याद करना ..बधाई बंसत आगमन की आपको
ReplyDeleteAapne to bachpan ki yaade taza kar di...
ReplyDeleteघुघूती जी,
ReplyDeleteआप तो बसंत पंचमी की बताते बताते पुरानी यादों में खो गयी हो.
हमने भी तख्ती पर ही लिखना सीखा है. हम लोग तख्ती को तवे की कालस से काला करते थे और खडिया को पानी में घोलकर उससे लिखते थे.
याद आया - हमारी पट्टी तो करिखा मेँ चमकाई जाती थी और सफेद चूने से लिखा जाता था।
ReplyDeleteअच्छी लगी यादें।
अच्छी लगीं आपकी यादें!
ReplyDeleteबड़ी मीठी यादें हैं... अपनी भी यादें कुछ ऐसी ही हैं पर अब तो वसंत पंचमी आकर चली भी जाती है पता ही नहीं चलता !
ReplyDeleteअपने बचपन की यादों को अच्छी अभिव्यक्ति दी है....बहुत सुंदर लगा पढकर....हमें भी बचपन की याद आ गयी।
ReplyDeleteयादेँ ...याद आतीँ हैँ ..
ReplyDeleteकितना सुख दे जातीँ हैँ
बहुत सुँदर
यादोँ की पोटली खोली है आपने
- लावण्या
बचपन की कुछ भूली-बिसरी यादें ताज़ा करने के लिये हार्दिक आभार।
ReplyDeleteफिर याद आ गया बसंत।
ReplyDeletebasant hai mausam mai aapki yah post padkar man prafullit ho gya
ReplyDeleteसमझदार लोगो को कैसे समझाया जाय कि लड़के औऱ लड़कियों में क्या अंतर होता है । कैसे वह समझे कि कब तक यह किसका धर है । कैसे तय किया जाता है कि यह घर उसके लिए कब तक है । ऐसी आजादी तो कोट ने भी नही दे रखी है औ कहा है कि बाप की सम्पति पर जितना बेटे का अधिकार है उतना ही बेटी का भी अधिकार है जरा सोचिए । शु्क्रिया
ReplyDeleteआपने बसंत पंचमी के वो स्कूल वाले दिन याद दिला दिए. जब इस दिन हमारे स्कूल में माता सरस्वती की पूजा होती थी. सच में क्या दिन थे. ना कोई भेदभाव ना कोई गिला न शिकवा... सारा मोहल्ला मिल कर मनाता था ये उत्सव.
ReplyDeleteमज़ा आ गया जी!
ReplyDeleteबहुत बढ़िया...आभार..
ReplyDeleteपढ़कर अच्छा लगा. अपना बचपन याद आ गया. ... बधाई......
ReplyDeleteबचपन में बसंत को हम पतंग के रूप से पहचानते आ रहे है....माँ खास तौर से पूजा करके कुछ दान वान् करती है ....धीरे धीरे बड़े हुए तो पीले रंग से इसका सम्बन्ध पता चला ..आपकी पोस्ट भी बसंत्नुमा है
ReplyDeleteहमारे तरफ़ वसंत पंचमी को खास तौर से लड़कियां साड़ी पहनती थी...छोटी बड़ी हर उम्र की, और फ़िर सब साथ में मेला देखने जाते थे...यही हमारे लिए मुख्य आकर्षण होता था. आपकी पोस्ट पढ़ कर फ़िर से बचपन याद आ गया. बहुत खूबसूरती से यादों को उकेरा है आपने.
ReplyDelete