हाल ही में मैं एक महानगर गई थी । वहाँ बात ही बात में पता चला कि हमारे पाँच वर्ष के एक प्रिय बच्चे की स्कूल की फीस पाँच हजार रूपए मासिक है । बस का किराया अलग है । बच्चा वास्तव में बहुत प्रतिभाशाली, बुद्धिमान व सुसंस्कृत है । अविभावक की आमदनी भी कम नहीं है । मुझे फीस अधिक तो लगी परन्तु फिर सोचा कि यदि आय का १/१० या १/२० फीस में जा भी रहा है तो भी उनके लिए कोई बहुत बड़ी बात नहीं है । ऐसे अच्छे स्कूल में भेजने के कारण ही माता पिता निश्चिन्त हो नौकरी पर जा पाते हैं । सबकुछ स्कूल में ही सिखाया जाता है । गृहकार्य नाममात्र का होता है । तैराकी, घुड़सवारी, नृत्य, खेल सबकुछ तो स्कूल सिखाता है । यहाँ तक कि बच्चों को सही आहार के बारे में भी सिखाता है । एक रिसेस में तो बच्चों को केवल फल ही खाने को कहा जाता है । बच्चा कहीं से भी बिगड़ा नहीं लगता । सुबह सात बजे घर से जाता है और प्रसन्नचित्त तीन बजे घर लौटता है । इतने लम्बे समय बाहर रहने पर भी थका या चिड़चिड़ा नहीं दिखता । ऐसा लगता है कि परिवार व स्कूल उस हीरे को बढ़िया तराश रहे हैं ।
खैर, जो भी हो, अभी मैं इस पाँच हजार की फीस को ठीक से पचा भी नहीं पाई थी कि हमें एक अन्य परिवार के घर रात्रि भोज पर जाने का निमन्त्रण मिला । वहाँ मैं एक परिचित से उनकी बिटिया व नाती का हालचाल पूछने लगी । नाती दो वर्ष का तो हो गया है या अधिक का ही । उसके बारे में बातें होने लगीं । पता चला कि बोलता तो बहुत है परन्तु अस्पष्ट । बात घूमते फिरते स्कूल पर आई । फिर स्कूल की फीस पर । जब उन्हें पाँच हजार की फीस के बारे में बताया गया तो वे बोले, 'अरे, हमारे नाती के स्कूल की तो सोलह हजार प्रति मास है ।' हम्म, एक बच्चा जो अभी स्पष्ट बोलता भी नहीं है उसकी फीस सोलह हजार रुपये प्रति मास !
मैं अपने यहाँ के स्कूल की फीस के बारे में सोच रही थी । शायद सौ, सवा सौ रुपये है । और हमारा स्कूल वातानुकूलित भी नहीं है । और हम तैराकी, घुड़सवारी, नृत्य भी नहीं सिखाते । स्कूल में खेल का मैदान, झूले आदि अवश्य हैं । खेल के घंटे या रिसेस में बच्चे बहते पसीने की परवाह किए बिना खूब खेलते हैं । साधन चाहे सीमित हैं परन्तु वे उसका उपयोग खूब करते हैं । हमारे पूरे स्कूल में शायद ही दस बच्चे मोटे होंगे और शायद चार ही अति मोटे । हमारे स्कूल में अधिकतर बच्चे गाँवों से आते हैं । हमारी अपनी कॉलोनी के बच्चे अनुपात में शायद एक चौथाई भी नहीं हैं । अधिकतर बच्चों के माता पिता अंग्रेजी नहीं जानते परन्तु बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाना चाहते हैं । बहुत से बच्चों के माता पिता अनपढ़ भी हैं । बोर्ड की परीक्षा में लगभग हर वर्ष शत प्रतिशत परिणाम आता है । हमारे छात्रों का एक बहुत बड़ा प्रतिशत हर वर्ष इन्जीनियरिंग कॉलेज में दाखिला पा जाता है । छठी सातवीं तक पहुँचते पहुँचते लगभग सब बच्चे अच्छी बातचीत कर लेते हैं । केवल उनकी सादगी व मासूमियत ही उन्हें शहर के बच्चों से अलग कर पाती है ।
मुझे समझ नहीं आ रहा कि सोलह हजार की फीस वाले स्कूल गलत हैं या सही । मैं उनपर अपने विचार कैसे थोप सकती हूँ ? यदि मुझे वे बेहद मंहगे लगते हैं और इसलिए गलत तो मेरी कामवाली को मेरे कम्प्यूटर का दाम व मेरे टेलिफोन व नेट का खर्चा गलत लगता होगा । सामाजिक न्याय, वे बच्चे जिन्हें स्कूल जाने का सौभाग्य नहीं मिलता आदि के बारे में सोचती हूँ । परन्तु ऐसे में क्यों नहीं मैं उनके बारे में सोचती जिन्हें सर छिपाने को छत नहीं मिलती ? जितनी जगह मेरा कम्प्यूटर, प्रिंटर व टी वी घेरे है उतनी जगह में तो किसी का बिस्तरा लग जाए । कितनी विलासिता सही है और कितनी गलत ? फिर विलासिता की परिभाषा भी तो व्यक्तिगत है। जो मुझे आवश्यक लगता है वह किसी के लिए विलासिता है।
शायद बिना किसी के पैसे खर्च करने का अधिकार छीने हम सामाजिक न्याय भी कर सकते हैं । क्या यह संभव नहीं है कि स्कूल की फीस पर दस या एक प्रतिशत ही सही कर लगाया जाए जो सरकार के खजाने में व्यर्थ जाकर या किसी सरकारी स्कूल में व्यर्थ करने की बजाए किसी प्रतिष्ठित संस्था को उसी स्कूल में स्कूल की छु्ट्टी के बाद जरुरतमंद बच्चों के लिए स्कूल चलाने को दिया जाए ? क्या इन जरूरतमंद बच्चों को भी स्कूल के फर्नीचर,कमरों, बाथरूम, पुस्तकालय आदि का सही उपयोग करना सिखाना असंभव है ? यदि सारे निजी स्कूलों का छुट्टी के बाद ऐसा सदुपयोग किया जाए तो बहुत से बच्चे शिक्षा पा सकेंगे । शिक्षा देना सरकार का काम अवश्य है परन्तु यह तो हमें पता है वह इसमें अक्षम है, तो क्या समाज स्वयं ही ऐसा कोई कदम नहीं उठा सकता ?
घुघूती बासूती
Tuesday, December 09, 2008
पाँच साल के बच्चे की फीस पाँच हजार और दो साल के बच्चे की सोलह हजार !
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आपकी बात ठीक है कि कुछ बच्चे तो स्कूल ही नहीं जा पाते और कुछ अपनी अधिक आमदनी के कारण ज़्यादा फीस वाले स्कूल में भेजना अपनी शान समझते हैं। लेकिन सरकार भी तो अपने स्कूलों का स्तर नहीं सुधार रही इसीलिये प्राईवेट स्कूलों की दादागिरी हर जगह चल रही है। और हम हम तो चलते हैं हवा के साथ।
ReplyDeleteमहानगरों में स्कूल चलाना धंधा बन चुक है. दिल्ली में सरकार ने स्कूलों से कहा कि छुट्टी के बाद गरीब बच्चों को पढ़ाओ, तो स्कूलों ने खानापूर्ती के लिये 15-20 बच्चों को दो घंटो के लिये बिठा लिया. उनके लिये टीचर्स की व्यवस्था तक ढंग से नहीं की गई.
ReplyDeleteयह मैंने अपनी आंखों से दिल्ली में एक पब्लिक स्कूल में बिताये अपने एक साल में देखा. उससे पहले भोपाल में एक मिशनरी स्कूल में था, जहां गुरुजन सच में बच्चों के लिये चितिंत रहते थे.
शायद शिक्षा की सच्ची values अब कुछ ही स्कूलों में बचीं हैं.
सरकारी स्कूलों के हाल पर सुनें...
ReplyDeleteमेरे आफिस के बगल में लड़कों के लिये सरकारी स्कूल है. वहां हफ्ते में सिर्फ 2 दिन शिक्षक आते हैं. रोजाना बच्चे क्लास में सिर्फ उधम करते हैं. सीखते कुछ नहीं. यह उनके समय और जीवन की बर्बादी है.
मैंने Human resources Ministry की साइट पर जाकर लिखा. दिल्ली शि़क्षा विभाग की साइट पर जाकर यहां के शिक्षा विभाग के कई लोगों को ई-मेल भी की. लेकिन असर कोई नहीं हुआ.
तुरंत तो कुछ नहीं कह रहा हूं। ब्ल वक्त सिर्फ़ यही कि आपके तर्कों में एक द्वविधा दिखायी दे रही है।
ReplyDelete"मुझे समझ नहीं आ रहा कि सोलह हजार की फीस वाले स्कूल गलत हैं या सही । मैं उनपर अपने विचार कैसे थोप सकती हूँ ? यदि मुझे वे बेहद मंहगे लगते हैं और इसलिए गलत तो मेरी कामवाली को मेरे कम्प्यूटर का दाम व मेरे टेलिफोन व नेट का खर्चा गलत लगता होगा । सामाजिक न्याय, वे बच्चे जिन्हें स्कूल जाने का सौभाग्य नहीं मिलता आदि के बारे में सोचती हूँ । परन्तु ऐसे में क्यों नहीं मैं उनके बारे में सोचती जिन्हें सर छिपाने को छत नहीं मिलती ? जितनी जगह मेरा कम्प्यूटर, प्रिंटर व टी वी घेरे है उतनी जगह में तो किसी का बिस्तरा लग जाए । कितनी विलासिता सही है और कितनी गलत ? फिर विलासिता की परिभाषा भी तो व्यक्तिगत है। जो मुझे आवश्यक लगता है वह किसी के लिए विलासिता है।"
तकनीक की जरूरत और उसके इस्तेमाल/उपभोग के हिसाब से सोचे तो जरा।
वैसे यहा पर जिन लोगो के बच्चे पढ़ते है. वे ये फीस देने में सक्षम है.. फिर स्कूल वाले ज़बरदस्ती भी नही करते.. लोगो की अपनी सोच है महँगे स्कूलो में अपने बच्चो को पढ़ाना.. हालाँकि मेरे भतीजे भी ऐसी ही स्कूल में पढ़ते है.. पर भईया इसकी फीस आसानी से दे सकते है.. इसलिए..
ReplyDeleteहालाँकि उनकी फीस बहुत ज़्यादा होती है.. इस बात से मैं इनकार नही करता.. आपका लेख वाकई विचारणीय है
[हमारे छात्रों का एक बहुत बड़ा प्रतिशत हर वर्ष इन्जीनियरिंग कॉलेज में दाखिला पा जाता है । ]
ReplyDeleteघुघूती जी, अभिभावकों द्वारा मोटी फीस भर देने से ही बच्चे संस्कारवान नहीं हो जाते. मैं भी सरकारी स्कूल में पढ़ा हूँ. घर नजदीक होने के कारण स्कूल की चाबी मेरे पास ही होती थी. सुबह नौ बजे बारी बारी से सभी बच्चे झाडू लगाते थे. आज तो बच्चे अपने घर में भी झाडू नहीं लगा सकते.
सही कह रही है आप।स्कूलो की फ़ीस हैरान कर देने वाली हो गई है,ये भी सच है कि वे किसी को प्रवेश लेने के लिये बुलाते नही है,मगर इतनी फ़ीस की तुलना मे कम फ़ीस लेने वाले स्कूल के नतीज़े उनसे कम अच्छे नही होते।शिक्षा अब व्यवसाय का रूप ले चुकी है,इस्लिये भारी भरकम फ़ीस ली जा रही है और सक्षम लोग सुविधा के हिसाब से अपने बच्चो को वहा पढा रहे है।
ReplyDeleteसब अपनी अपनी हैसियत के हिसाब से खर्च कर रहें है. कुछ शान बनाए रखने के लिए भी खर्च करते है. बच्चा आगे जा कर वही बनेगा जैसी उसकी प्रतिभा होगी.
ReplyDeleteआज सब अच्छी से अच्छी शिक्षा अपने बच्चो को देना चाहते हैं ! कुछ के लिए स्कुल भी स्टेटस सिम्बल हैं ! बड़ा अहम् मुद्दा है !
ReplyDeleteराम राम !
आपके इन भोजों के मेलबानों की प्रोफाइल ने डरा दिया, सोचा था कभी आपको निमंत्रित करेंगे पर आप तो 5 से 16 हजार की फीस देने वालों के घर का (ही) आतिथ्य स्वीकारती हैं :)) हम तो इलीजि़बल नहीं ठहरते।
ReplyDeleteदरिद्रता कोई ऐसा मूल्य नहीं है जिसे दर्प से दिखाया जाए पर इस किस्म की अमीरी में एक निश्िचत अश्लीलता है।
यह अति संपन्न स्कूल अपने अध्यापकों को कितना वेतन देते होंगे...अगर सरकारी स्कूलों जितना देते हों तो गनीमत समझें।
पढें- मेलबान- मेजबान
ReplyDeleteमसीजीवी जी, अप्रैल में जब आई थी तो आपके घर फोन यही सोचकर किया था कि या तो आप लोग हमारे अतिथि बनेंगे या हमें बनाएँगे । परन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हो पाया, सो अब जब भी दिल्ली जाती हूँ चुपचाप जाती हूँ और चुपचाप लौट आती हूँ । हाँ, इस बार भी दिल्ली ही गई थी । वैसे अब तो द्वारका का मकान खाली कर दिया है तो अब केवल अतिथि बन सकती हूँ, बना नहीं सकती । आपने सुनहरा अवसर खो दिया !
ReplyDeleteघुघूती बासूती
बचे-खुचे सरकारी स्कूलों को बचा-खुचा बरबाद करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है पंचायती राज… जहाँ कि मध्यान्ह भोजन में जमकर घोटाले हो रहे हैं… किसी को भी पढ़ाई से कोई लेना-देना नहीं है, शिक्षक को खानसामा बना दिया गया है, जबकि सरपंच को अपना "हिस्सा" पहले चाहिये…
ReplyDeleteताऊ से सहमती जताते हुये कि स्कूल भी तो स्टेटस सिम्बल में आता है...और जो अफोर्ड कर सकते हैं तो क्यों न करें
ReplyDeleteआपने केवल दारुण-विसंगति ही उजागर नहीं की है, अपने आलेख के अन्तिम अनुच्छेद में एक सुन्दर सुझाव भी दिया है ।
ReplyDeleteआपके इसु सुझाव को मैं अपने मित्रों के बीच प्रस्तुत करुंगा । शायद बीज का काम कर जाए और इससे कोई अत्यधिक जनोपयोगी बात निकल आए ।
इन स्कूलों के बच्चों को जरुरत भी नहीं होती इंजीनियरिंग करने की... जो अभी सोलह हजार फीस दे सकता है उसके बच्चे भला इंजिनियर क्यों बनेंगे? हम लगभग सरकारी स्कूल में पढ़ते से ३५ रुपये की फीस पर... लेकिन शायद मेरे बच्चे वैसे स्कूल में न पढ़ें !ऐसे स्कूल के बच्चे १२ वीं के बाद सैट देते हैं हम तब जानते भी नहीं थे की ये क्या होता है... वो येल और प्रिंसटन में अप्लाई करते हैं. हमें तब आई आई टी से ज्यादा कुछ नहीं पता था.
ReplyDeleteसमाज में हर जगह समानता असमानता है... पर प्रतिभा कहीं भी हो जीतती वही है... हाँ नृत्य, संगीत और घुड़सवारी ये सब करने का मौका बस सोलह हजार वालों को ही मिलता है.
अब क्या कहें। मैं तो सरकारी स्कूल का उत्पाद हूं। और सोचता हूं इतना खराब भी नहीं।
ReplyDeleteपर अब सरकारी स्कूल की शिक्षा शायद कुछ खास रही नहीं। समाज भी सक्षम नहीं लगता॥
कोई सार्थक पहल नहीं करता नजर आता। :(
primary ka master!!!
ReplyDeletekya bolu ????
???????????????
सोशयलिज़्म
ReplyDeleteसोच से नहीँ आता घुघूती जी
भारतीय समाज़ मेँ,
वर्ग विशेष का अलगाववाद
कई तबकोँ मेँ जारी रहेगा ..
क्या कीजे ?
स स्नेह,
- लावण्या
in kbari shoolon ko band karake, ek nationla education ki jarurat hai...ho sake to prachin Greek ki tarah....body ko kasrat aur aur dimag ko kavita dono chahiye...prachin bharat ka education system bhi behatar tha...
ReplyDeleteआप कुछ समझते तो हो नहीं...बस अपनी ही कहते जाते हो....अरे भई ऐसे स्कूलों में किसी "ख़ास" तरह की शिक्षा दी जाती है ना...अब हमारे ही बूते के बाहर तो ये क्या करें....??"ख़ास"लोगों की शिक्षा ये होती है कि गरीब लोगों को "ख़ास"(निम्न)नज़र से देखो...हा..हा..हा..हा..हा..
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