आज हर व्यक्ति उत्तर माँग रहा है। हमें उत्तर देने कोई नहीं आएगा । उत्तर हमें स्वयं खोजने होंगे । परन्तु बने बनाए फिल्मी उत्तर नहीं । हमें कुछ आत्म मंथन करना होगा । न ही भावनाओं में बहकर शोक और ग्लानि में डूबना है । ये बहुत ही विलासिता की चीजें हैं, फुरसत में सुखी सुरक्षित लोग ऐसा कर सकते हैं, हम नहीं । १०० करोड़ से अधिक लोग सदा के लिए आतंकवाद के बंधक नहीं बनाए जा सकते ।
यह घटना सम्बन्धित नहीं है और बहुत छोटी सी समस्या का एक सफल हल थी इसलिए यहाँ बता रही हूँ । यह केवल यह दर्शाती है कि हम भी अग्रसक्रिय हो सकते हैं बजाए हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने के ।
मुझे याद आता है वह समय जब मैं विवाह के बाद पहली बार बिहार(आज के झारखंड)गई थी । एक महीने पहले ही हमारे से एक घर छोड़कर एक घर में डाका पड़ा था । सड़क पर कुछ कुछ दूरी पर डाकू खड़े थे । उस घर के पड़ोस के दरवाजे खिड़कियों पर भी पहरा दे रहे थे ताकि कोई सहायता करने बाहर न निकले । तीन दरवाजे तोड़कर घर के पुरुष पर कुल्हाड़ी से वार किया गया । जो सौभाग्य से उसने हाथों से रोक लिया और घर का सारा कीमती सामान लेकर डाकू चले गए । पुलिस में रपट तो लिखाई ही गई होगी । जो पड़ोसी सहायता के लिए नहीं जा पाए थे लज्जित थे । परन्तु क्योंकि वह एक छोटा सा समाज था अतः मिलकर विचार किया गया कि भविष्य में अपने समाज को कैसे सुरक्षित किया जाए । निर्णय लिया गया कि रात को पहरा दिया जाए । सारे पुरुष कारखाने में इन्जिनियर, केमिस्ट आदि पद पर थे । संख्या भी बहुत अधिक नहीं थी । दूसरी कॉलोनी में कामगार व दफ्तर में काम करने वाले कर्मचारी थे । संख्या भी अधिक थी । सो निश्चय हुआ कि चार चार लोगों का दल बनाकर १० से १२ और १२ से चार तक की दो पारियों में पहरा दिया जाए । एक दल हमारी तरफ और एक उनकी तरफ । हमारी कॉलोनी में हर व्यक्ति को सप्ताह में एक एक बार दोनों पारियों में पहरा देना था । उनकी में सप्ताह में केवल एक बार एक ही पारी में । कई स्थानों पर बिजली के खंबों पर भौंपू (सायरन, जैसे कारखाने में काम पर जाने के समय पर बजाए जाते हैं) काफी ऊँचाई पर लगाए गए । सब पुरुषों को एक एक लाठी दी गई जिसका उपयोग भौंपू बजाने व आत्म रक्षा के लिए किया जाना था ।
साथ में यह भी निर्णय लिया गया कि यदि कभी चोर या डाकू मिलें तो भौंपू बजाया जाएगा और कारखाने से चौकीदार व बहुत से कर्मचारी शीघ्र ही ट्रक व बस में बैठकर आ जाएँगे । किसी भी स्थिति में कानून अपने हा्थ में नहीं लिया जाएगा । मारपीट नहीं की जाएगी अर्थात कंगारू कोर्ट(स्वयंभू अदालत ) सजा नहीं देगा । केवल पकड़कर पुलिस के हवाले कर दिया जाएगा ।
मैं वहाँ तीन साल तक रही । एक बार चोर या कोई संदिग्ध व्यक्ति दिखे जो पहरेदारों को देखकर भाग गए । परन्तु चोरी या डाका फिर कभी नहीं पड़ा। हमारी कॉलोनी में लगातार पहरा दिया जाता रहा । लोग ऊब ना जाएँ इसलिए बारी बारी से पहरे देने वाले के घर से चाय नाश्ता आदि दिया जाता था जो वे बाहर बैठकर ही लेते थे । समय हर बार बदल लेते थे । यदि कोई पहरे के लिए न आए तो अगले दिन सारी कॉलोनी के पुरुष मिलकर उसके घर चाय के लिए पहुँच जाते थे और यह सजा लोगों को आलस से दूर रखती थी । दूसरी कॉलोनी के लोग कुछ दिन का पहरा करके थक गए और पहरा देना छोड़ दिया और वहाँ दो तीन चोरियाँ हुईं । पड़ोस के कारखाने में तो होती ही रहती थीं । चोरियाँ क्या डाका भी कह सकते हैं क्योंकि वे आते थे और सारे गहने पैसे ले जाते थे । यहाँ तक कि स्त्रियों से पूछते थे कि अमुक दिन जो हार पहना था वह भी निकालो ।
यदि आज हम भी शहरों में नागरिक सुरक्षा समितियाँ बनाएँ जो किसी भी हाल में कानून को अपने हाथ में न लें परन्तु संदिग्ध व्यक्ति को पुलिस के हवाले करें तो बहुत सीमा तक आतंकवाद व अपराध से छुटकारा पा सकते हें । बस मंत्र यह होना चाहिए कि वे ही व्यक्ति ऐसे काम से जोड़े जाएँ जो कानून का आदर करते हों । मुम्बई में भी एक व्यक्ति ने आतंककारियों को नाव से उतरकर आते देखा था । यदि नागरिक व पुलिस के सम्बन्ध बेहतर होते तो शायद वह यह खबर पुलिस को दे देता । अवश्यकता है तो नागरिक व पुलिस के बीच एक विश्वास जगाने की । यह तभी हो सकता है जब दोनों एक दूसरे का आदर करें । इसके लिए यह भी आवश्यक है कि पुलिसकर्मी का वेतन व स्तर ऐसा होना चाहिए कि वे सम्मानपूर्ण जीवन यापन कर सकें । पुलिस में खाली पड़े सभी पदों को भरा जा सके ताकि पुलिस की संख्या की कमी कभी भी हमारी असुरक्षा का कारण न बने । जब हम अपने वेतन बढ़ाने के लिए आन्दोलन कर सकते हैं तो उनके लिए क्यों नहीं ? क्यों न हम सरकार से पूछें कि कैसे हमारी लाठीधारी पुलिस इन आधुनिक शस्त्रों से सुसज्जित बढ़िया प्रशिक्षण पाए आतंकवादिओं से निपटेगी । कुछ दिन पहले मैंने समाचार पढ़ा था कि नक्सलवाद से निपटने के लिए बने सुरक्षादल में केवल वरिष्ठ अधिकारियों को ही हैल्मेट दी जाएगी । क्या शेष जवानों के सिर फौलाद के बने हैं ?
सभी लोगों को अपने मताधिकार का उपयोग करना चाहिए ताकि राजनैतिक दल हमें गम्भीरता से लें । सरकार से जवाबदेही होनी चाहिए ताकि वह अपने उत्तरदायित्व को समझे और यदि उसे निभाने में अक्षम है तो त्यागपत्र दे दे ।
घुघूती बासूती
Monday, December 01, 2008
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विचारणीय बिन्दु
ReplyDeleteमुझे तो बहुत पसंद आये
गांवों के अशिक्षित लोग तो अभी भी रात को सामूहिक रूप से पहरा देकर अपराधियों से अपना बचाव करते हैं। एक घर में कोई चोर-चोर चिल्लाता है तो पडोस के लोग भी ऐसा करते हैं। हालांकि
ReplyDeleteजो गांव कस्बों में तब्दील हो जा रहे हैं, वहां लोग पहरा देना या चिल्लाना अपनी प्रतिष्ठा के खिलाफ समझने लगे हैं। दरअसल शहरी जनमानस का अभिजात्यबोध उसे बहुत से वैसे जरूरी काम करने से रोक देता है, जो उसके हित में हैं।
sabhi apney kaaryshetr me zimmedari bartey to stithiyaan sudhar saktin hain...
ReplyDeleteबढ़िया है यह विचार यदि सही ढंग से इसको सब समझे तो
ReplyDeleteथोथी भावुकता से से दूर आप की ये पोस्ट बहुत सार्थक लगी....सच कहा है आपने...हमें अपनी सुरक्षा ख़ुद ही करनी होगी...बहुत दूसरों के भरोसे रह के देख लिया...माना हम बिना हथियार के कुछ कर नहीं पाएंगे लेकिन हमारी एकता दुश्मन को हम पर हमला करने से पहले सोचने पर मजबूर जरूर करेगी...
ReplyDeleteनीरज
aapki baaton se puri tarah sahmat hoon. hamen khud bhi apne ladaai ladni hogi.
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ReplyDeleteआपकी यह सोच आज के समय में काफी अहमियत रखती है ! मुझे १९६५ के युद्ध के दिनों की याद आती है ! उस समय अन्दर तक के गाँवों में यह अफवाहे या हकीकत थी की दुश्मन के जासूस गाँव के कुओ में जहर घोल रहे हैं ! अत: हर गाँव के लोग अपने कुओ की रात भर आपके बताये फार्मूले से पहरेदारी करते थे और ये युद्ध के खत्म होने के काफी बाद तक चला !
ReplyDeleteकई घर ऐसे थे जिनके पुरूष नोकरी के कारण बाहर होते थे तो उन घरो से एक पेड़(paid) आदमी उनके टर्म पर जाता था पहरा देने ! आपका ये विचार काफी समस्या खत्म कर सकता है ! आज पुलिस को अगर कोई ख़बर दे तो पहले तो बात सुनी नही जायेगी और सुन ली तो पहले उसी को परेशान करेंगे ! हमारे यहाँ एक नागरिक पुलिस सुरक्षा समिति बनी हुई है पर कुछ फायदा नही शायद कहने भर की है !
अच्छा है सरकार पर निर्भर रहने के नागरिक अपने स्तर पर ही कोशीश करे और आपका सुझाया गया आईडिया मुझे तो बेशकीमती लगा !
रामराम !
आप के सुझाव से सोलह आने सहमत हैं। प्रत्येक नागरिक को जिम्मेदारी उठानी होगी हर वक्त सजग रह कर और संदिग्धों की सूचना सही स्थान तक पहुँचाने की।
ReplyDeleteस्वागत योग्य समाधान.वास्तव में पुलिस की कमी उतनी नहीं है जितना हम सोच रहे है. उन में से ज़्यादातर लोग तो राजनेताओं की तीमारदारी मे लगा दिए गये हैं. उन्हें हटाया जावे और नागरिक सुरक्षा के लिए तैनात किया जावे तो भी स्थितियाँ बदल जाएँगी. आभार.
ReplyDeleteजितने जागरुक हम अधिकारो के प्रति है उतने कर्तव्यो के प्रति भी होना चाहिये.आपसे सहमत हूँ.
ReplyDeleteआपकी बात का एक अर्थ यह भी है कि हमें सामाजिक ढांचे को फ़िर से दुरुस्त करना होगा । अपने -अपने हित की परवाह करे की बजाय ’ सर्वजन हिताय - सर्वजन सुखाय ’ के सिद्धांत को व्यवहार में लाना पडॆगा ।
ReplyDeleteबहुत सही। यह सहयोगी स्पिरिट मैने कई जगह शुरू होते देखी है, पर लोग सस्टेन नहीं करते। सतत जागरूकता की जरूरत है।
ReplyDeleteयही उम्मीद है आम भारतीय ज्यादा जिम्मेदार बनेगा ....एअरपोर्ट या किसी जगह जाने के लिए वक़्त से पहले चलेगा ,किसी जांच से चिडेगा नही ...एक आम नागरिक की तरह व्यवाहर करेगा ..सड़क या कही भी कुछ देखकर चौकन्ना होगा .जांच एजेंसी को भी सूचना देने वाले आम लोग ही होते है .....गुजरात के एक आम इन्सान ने मुंबई के अपने दोस्त को ४ माह पहले आगाह किया ....सरकारी लोगो ने मचुआरो की उस एप्लीकेशन को गंभीरता से नही लिया ....नतीजा पुरे देश के सामने है.....गुजरात ओर महाराष्ट्र के सरकारी अफसर नाविकों को फर्जी रजिस्ट्रेशन ओर फर्जी लाइसेंस देती है .चंद रुपयों की खातिर ...भर्ष्टाचार इस देश को कमजोर करने में अहम् हिस्सा है ....कही न कही हमें अपने अंतर्मन में भी टटोलना होगा....जाबांज सिर्फ़ शहीद होने के लिए नही होते है
ReplyDeleteबहुत सही - और भी कई उपाय जरुरी हैँ -
ReplyDelete"चाँदी के चँद टुकडोँ के लिये,
इमान को बेचा जाता है,
इन्सान को बेचा जाता है -
इसे ख्त्म होना है !
सही बात
ReplyDeleteजिसने दहशत को जिया है ,वह ही इसे समझ सकता है ..बाकि लोग सोंचते हैं "मेरा अपना तो नही मारा गया न" ..और अगर मारा जाय तब "हम कर भी क्या सकतें हैं ?"
ReplyDeleteजब तक यह मानसिकता रहेगी कुछ नही होने वाला.
बिल्कुल सही कहा आपने, जब तक हम एकजुट नही हो जायेंगे समस्या हल नही होगी...
ReplyDeletewe need to find out where we are wrong . what mistake / mistakes as an individual we do . do we break Q. do we pay bribes . do we drink and drive , do we protect our children if they lie , do we protect our man folk when they rape ,
ReplyDeleteas long as only the "end " is important rather than the "means" to achieve that end so long nothing will change
LET ME CHANGE MYSELF AND TAKE A OATH TO DO , COME WHAT MAY HAPPEN , JUST THAT IS "TRUE , RIGHT AND JUSTIFIED"
बहुत सही - और भी कई उपाय जरुरी हैँ!!!!!!!!11
ReplyDeleteमैम पहले तो आपके शब्दों के लिये दिल से शुक्रगुजार हूँ.....और आपका ब्लौग बहुत अच्छा लगा है.
ReplyDeleteआपको पहले भी पढ़ चुका हूँ....अन्य ब्लौग पर
बहुत अच्छे सुझाव हैं। जितने सीधे-सादे शब्दों में आपने अपनी पूरी बात कही है, वह काबिलेतारीफ है।
ReplyDeleteसच्ची घटना बता कर आपने एक बहुत महत्वपूर्ण बात पर ध्यान दिलाया है. सच ही है कि हर समस्या का समाधान है - अगर कमी है तो शायद हमारे अपने संकल्प में ही है.
ReplyDeleteकहावत है, ऊपरवाला भी उसी की मदद करता है, जो अपनी मदद खुद करता है।
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