Saturday, July 12, 2008

यदि एक शब्द 'यदि' या 'शायद' का उपयोग कर लिया गया होता !

यदि डॉ तलवार वास्तव में निर्दोष हैं तो क्या हममें से बहुत सारों का सिर शर्म से झुक नहीं जाना चाहिए? हममें से बहुत सारों ने बिना किसी सबूत के एक पिता, एक ऐसा पिता जो यदि निर्दोष है तो पुत्री की हत्या का असह्य कष्ट भोग रहा था, को दोषी घोषित कर दिया। न्यायालय, पुलिस या सी बी आइ के पास शंका का कारण हो सकता था, परन्तु हम कैसे न्यायाधी बन गए ? किसने हमें यह अधिकार दे दिया ? एक मृत बच्ची, वह भी ऐसी बच्ची जिसकी हत्या हुई, का हमने चरित्र हनन किया। एक माँ जिसकी बेटी की हत्या हो गई, वह अपनी बच्ची की मृत्यु पर पति के साथ रो भी नहीं सकी। डॉ तलवार यदि निर्दोष हैं, तो उन्हें अपनी बच्ची की मृत्यु पर क्या कभी रोने का अवसर मिलेगा? क्या अपनी पत्नी प्रियजनों के साथ अपना दुख बाँटना भी उनके भाग्य में था ? माना कानून भावुक होकर यह सब नहीं सोच सकता परन्तु हमारी संवेदना कहाँ गई थी ? क्या सारी संवेदना उनपर लांछन लगाने में चूक गई थी ? हमें कम से कम उन्हें संदेह का लाभ देना चाहिए था या जब तक कुछ साबित नहीं होता तब तक के लिए तो रुक जाना चाहिए था। हो सकता है कि कल जब मामला आगे बढ़ेगा तो कुछ नए तथ्य सामने आएँगे। हम यह भी नहीं कह सकते कि वे निरपराध माने जाएँगे। परन्तु तब तक तो हमें उस दुखी पिता पर लाँछन लगाने से रुकना चाहिए था। उनका, एक अन्य स्त्री बच्ची का चरित्र हनन करने से बचना चाहिए था। यदि सब साबित हो जाता तो मजे से चटखारे लेकर यह सब कह सकते थे। क्या कुछ समय रुकने में हमारे आनन्द में इतनी बाधा पड़ती ? क्या इस चरित्र हनन की भूख इतनी तेज थी कि कुछ समय बाद मिटने तक हम रुक ना सके ?

हम, हमारा मीडिया, एक बहुत बड़ी गल्ती पहले ही कर चुके थे। सबसे पहले जब हत्या की खबर आई तो एक ऐसे व्यक्ति, हेमराज को हत्यारा माना गया जिसकी स्वयं हत्या हो चुकी थी। इस पर भी हमें अपने हड़बड़ी में निकाले गए निष्कर्ष पर लज्जा नहीं आई, लज्जा छोड़िए, हमने सीख तक नहीं ली, अपितु अब हम पिता, बेटी, पारिवारिक मित्रों के चरित्र पर उँगली उठाने लगे। क्या हम इतने असंवेदनशील हो गए हैं कि दो परिवारों के दुख पर हमदर्दी छोड़िए हम उनके लिए ऐसी स्थितियाँ पैदा करते हैं कि उनका समाज से विश्वास ही उठ जाए ? हेमराज के परिवार की सोचिए। उसका चेहरा टी वी पर हत्यारे के रूप में दिखाया जा रहा था। उसके परिवार वालों पर क्या बीती होगी इन खबरों को देखकर और फिर अगले दिन यह सुनकर कि वह तो मर चुका था ?

हमारी उँगली तैयार बैठी थी कि कब अवसर मिले और किसी की जीवन शैली, जीवन मूल्यों, धन दौलत, स्त्री पुरुष की मित्रता या दो परिवारों की ऐसी मित्रता जिसमें स्त्री पुरुष परस्पर बात करते हैं, फोन करते हैं, पर वह उठ जाए। क्या पल भर को भी हम अपने आप को उनके स्थान पर रखकर नहीं सोच सकते थे ? यह बच्ची मेरी आपकी किसी की भी हो सकती थी। यह घटना किसी भी घर में घट सकती थी। हमें माता पिता का सोते रहना, कोई आवाज सुनना हास्यास्पद लगा। यह सच है कि अलग अलग कमरों में सी चलाकर दरवाजा बंदकर सोने तो क्या बैठने वालों को भी दूसरे कमरे से आवाज नहीं सुनाई देती है। दरवाजे की घंटी सुनाई नहीं देती है। क्या सी का होना, अलग अलग कमरों में सोना, ऐसा जघन्य अपराध है ? जिनके घरों में नौकर रहते हैं उन्हें दरवाजे की घंटी पर ध्यान देने की आदत नहीं होती। यह गलत तो हो सकता है, विलासिता भी हो सकता है, समाजवाद के विरुद्ध हो सकता है परन्तु अक्षम्य अपराध तो कदापि नहीं हो सकता।

दोनों माता पिता नौकरी करते थे, सो हमारी कल्पना की लम्बी उड़ान ने बच्ची को माता पिता से प्यार मिलना , नौकर से प्यार चाहना पाना, जाने क्या क्या सोच लिया। हमने बच्ची उसके माता पिता का पूरा मनोविग्यान तक जान लिया। आश्चर्य, कि हम जो स्वयं को नहीं जान पाएँ हैं, एक अनजान परिवार के मन को जान गए।

अमेरिका में एक संस्था बड़े अपराधों के सजा पाए लोगों के केस फिर से खुलवा रही है। सौ से अधिक सजा पाए अभियुक्तों को उन्होंने निर्दोष साबित कर दिया है। उनमें एक युवती भी है जिसने अपने शिशु की हत्या के अपराध में दस से अधिक वर्ष की जेल काटी। अन्त में पाया गया कि वह निर्दोष थी। एक ऐसा पुरुष भी है जिसने जीवन के दसियों वर्ष सलाखों के पीछे बलात्कार के तथाकथित अपराध के सिद्ध हो जाने के कारण जिये। दोबारा केस खोलने पर उसे निर्दोष पाया गया। उसे रिहा कर दिया गया है। परन्तु क्या निर्दोष लोगों को सजा मिलने पर उनकी पीड़ा का हम अनुमान लगा सकते हैं ? ये गलतियाँ न्यायालयों में हुईं। यह न्याय का पेशा ही ऐसा है कि गलत सजा की कुछ गुँजाइश सदा रहती है। इस कारण से ही वे इस पेशे से मुँह भी नहीं मोड़ सकते। परन्तु हम आम लोग ! हमें क्या हो गया है ? क्यों हम लोगों को दोषी सिद्ध करने में जुटे हैं ? मीडिया का पेशा भी है खबरें पहुँचाने का। यदि वह यह नहीं करेंगे तो समाज के दोषी हैं। परन्तु यदि वे केवल समाचार दें और लोगों पर मीडिया न्याय थोपते तो बेहतर होता। यह हो गया, इन पर शंका की जा रही है, भी खबर हो सकता है।

यदि हम केवल इतना ध्यान रखते कि डॉक्टर तलवार पर कुछ भी कहने से पहले 'यदि' लगा देते ( 'यदि' उन्होंने ऐसा किया तो वे निकृष्ट प्राणी हैं। 'यदि' उन्होंने यह अपराध किया है तो उन्हें कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए, समाज की भर्त्सना मिलनी चाहिए। या फिर कि 'शायद' ऐसा हुआ हो। 'शायद' माता पिता के व्यस्त रहने से ऐसा हुआ हो या वैसा हुआ हो। ) तो आज हमें अपराध बोध होता।

घुघूती बासूती

22 comments:

  1. Anonymous2:29 pm

    bechara pariwaar dr.talwar ka.Bhagwaan kisi ko yah din na dekhna pare.hum logo ne Aaushi ka pichale 52 din se roz katal kiya.

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  2. i made my appologis on my personal blog today morning so that i could be at peace with my self

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  3. Anonymous3:51 pm

    तलवार दम्पति की चुप्पी इसका प्रमुख कारण रहा .जिसकी बेटी की जान के साथ इज्जत के चिथड़े उडाये जाय और उसका मुठ्ठी अपने आप न बधे. उसके गले से मिडिया के लिए "साले बंद कर बकवास " न निकले . दाल में काला साबित तो करता ही है . सनद रहे सही आदमी ग़लत बात पर अपनी औकात तो भूलता ही है ,सामने वाली की औकात को तत्क्षण भूल जाता है .

    उच्च शिक्षा से लैश माँ बाप अपने बचाव के लिए मौन व्रत रखा . देश की 99 % जनता चार से चालीस डंडे में जो किया नही होता वो भी स्वीकारने को बेताव रहता है .और इतना ही प्रतिशत का विश्वास मिडिया ,पुलिस ,और अब सी.बी.आई से भी उठ चुका है ..५० बार छत पर चढ़ना उतरना, दो दो नारको टेस्ट के वावजूद हथियार कहाँ
    छुपाया अभी तक पता नही ,क्या साबित करता है कि कृष्ण, राजकुमार खुनी है ? क्या कोर्ट में साबित हो पायेगा कि ये दोनों ही खूनी हैं फ़िर क्यों न कृष्णा और राज कुमार के लिए यदि और शायद लगाए .

    जब न्यायालय से सजा भोग चुके संत निकल रहे हैं .तो सजा से कोसो दूर संत भी मौज कर रहे हैं. इसे सच क्यों न माने जाय .

    ये जानते हुए भी कि हमारे सोचने से क्या होता है ,देश कि अधिकाँश जनता तलवार दम्पति को केन्द्र विन्दु मानती है ,साधन भले ही कोई रहा हो . इन दो महीने में लोगों ने काफ़ी कुछ पढ़ा है .
    जनता सबक हाशिल कर ले .तो मासूम बच्ची का जाना दुखद होते हुए सफल कहा जायेगा .

    बेटे बाप को , बाप बेटे को ,पत्नी पति को , पति पत्नी को , भाई भाई को ,बहन को , माँ बेटे को , बेटे माँ को मारता आया है ऐसा समाचार देखने सुनने को मिलता रहता है . अतः आपके इस तर्क से मैं बिल्कुल सहमत नही हूँ कि एक पिता अपनी बेटी को कैसे मार सकता है .

    किसी बेटी का माँ बाप आरुशी के माँ बाप जैसा कमजोर न हो .हमारी कामना है .

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  4. ये खबर आने के पहले ही कि तलवार निर्दोष हैं मुझे लगता था कि मीडिया ने अति कर दी है। आपने एकदम सही कहा कि यदि लगाना बहुत जरूरी था।
    लेकिन, बेनामी ने जो सवाल उठाए हैं वो, भी गौर करने लायक हैं। अभी भी मुझे लगता है कि ये तीनों नौकर जो, एक साथ हत्यारे करार दिए गए हैं। वो, भी गले से नीचे नहीं उतर रहा है।

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  5. अफसोसजनक है सारा वाकया....अब शायद मीडिया को कोई दूसरा मुद्दा ढूंढना पडेगा.

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  6. बेनामी टिप्पणी से सहमत, कमज़ोर पड़ना दुनिया का सबसे बड़ा गुनाह है. एक बाप होने के नाते आपसे उम्मीद की जाती है की आप मजबूती से परिवार की ढाल बनकर खडे रहेंगे. हर सही या ग़लत बात पर.
    इस प्रकार तलवार का व्यवस्था के सामने कमज़ोर पड़ना सही नही है, खासकर तब जब आपकी बेटी, पत्नी और पारिवारिक मित्र पर बेसरपैर की ज़लील तोहमतें लगाई जा रहीं हों.

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  7. सारा वकाया ही यह अफ़सोस जनक है ..असलियत क्या थी और क्या है या क्या पता ,पता भी न चले यह तो वक्त आने पर ही पता चलेगा इस वक्त तो यही बात है कि एक मासूम बच्ची ने अपनी जान गंवा दी

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  8. Anonymous7:55 pm

    bilkul sahi likha hai.

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  9. समाचारों की दुनिया में पापी घुस गये हैं.. और दुनिया अपने दिमाग का इस्तेमाल नहीं करती

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  10. aapki aur benami ji donon ki baat gaur karne ki hai. sahi kya hai ye abhi bhi poori terah khula nahin hai

    par electronic media ne jis besharmi ke sath kal sari ghalti NOIDA police par thop kar apne hath jhaad liye usse jyada hasyaspad kuch nahin hai. Ya to we apni theories pe adig rahte ya apni bhool mante.

    Apni ghalti maanne ki bajay rang badlane mein ye log jyada mahir hain

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  11. आप ने सही समय पर सही बात को सामने रखा है। कानून का सिद्धान्त है जब तक सिद्ध न हो जाए किसी को अपराधी नहीं कहा जा सकता। लेकिन हमारी अदालतें, पुलिस और जाँच एजेंसियाँ उस जेहनियत को छोड़ नहीं सकते जिस की आम जनता शिकार है। जन शिक्षण के माध्यमों को इस जेहनियत के विरुद्ध काम करना चाहिए। लेकिन टीवी और अखबार जैसे जन शिक्षण के माध्यम जब व्यावसायिक हाथों में हो कर बाजारू मानसिकता के सवार हो जाते हैं तो वे जन शिक्षण के विरुद्ध काम करने लगते हैं। इस तथाकथित चौथे स्तंभ की भूमिका देख ली है समूची जनता ने। तीसरे खंबे पर बहस करने के लिए हम कब से उतारू हैं लेकिन वह अब तक केवल ब्लाग जगत तक सीमित है। उस से बाहर की दुनियाँ को समाज से क्या लेना देना उसे सिर्फ बाजार से लेना देना है। बाजार के युग में भी कहीं तो आचार संहिता और अनुशासन होना चाहिए।

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  12. किसी की जान गई ! परिवार उजड गया, इज्जत खाक हो गई ! इनको क्या ? टी.आर्.पी. तो बढी ! ये है गैर जिम्मेदारी और बाजारवाद का नमूना ! इनको डुब मरना चाहिये !

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  13. agar dr. talwar beksur hai ye hi aakhri sach hai to fir bhi woh ab tak kuchh bole kyon nahi? 2 mahine bahot hote hain...

    aur jahan tak media ki baat hain...ye sab to naye zamane ki panchayat ho gayi hain...kuchh bhi bol de...

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  14. घुघूती बासूती जी, आपकी चिन्ताएं जायज हैं किन्तु कुछ टिप्पणीकार बन्धु भी मीडिया-ट्रायल के दुष्कर्म में शामिल हो रहे हैं जो ठीक नहीं है।
    इस मुद्दे को मीडिया ने इस क़दर बिगाड़ दिया है कि अब सच्चाई के बाहर आने में और पेंच बढ़ जाएंगे। ‘मीडिया ट्रायल’ में आरोपी, और अपराधी के बीच का अन्तर सुविधानुसार मिटा या बढ़ा दिया जाता है। पुलिस को भी बारीकी से जाँच करने और सोचने समझने का मौका दिये बगैर रोज प्रेसवार्ता के लिए उसपर दबाव बनाया जाता है।
    डॉ. तलवार ने अपना मुँह बंद रखकर बुद्धिमानी का परिचय दिया है। इसे कमजोरी का नाम देकर अनैतिक ढंग से मीडिया ट्रायल की वकालत नहीं की जानी चाहिए। शायद उन्हें पता था कि एक बार मुँह खोलने के बाद मीडिया वाले कुत्ते की तरह उनके पीछे टूट पड़ेंगे और भरे समाज में ‘नार्को-टेस्ट’ की नौबत आ जाएगी। उनके हर बयान के सौ-सौ अर्थ और अनर्थ निकाले जाएंगे। मीडिया को मुँह लगाना नेताओं की मज़बूरी हो सकती है, लेकिन कोई भला आदमी इन गिद्धों से दूर ही रहना चाहेगा।
    डॉ. तलवार अपनी बात कोर्ट में ही रखें तो बेहतर हैं। विज्ञ जनता भी अपने मनोरंजन के लिए किसी अन्य साधन की तलाश करे तो अच्छा होगा।

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  15. atyant dukhad ghatna usse bhi dukhad media ki asamvedansheelta

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  16. media ko aor hame bhi sanyam baratne ki aavshyak hai ,patrkarita aor khabar me ek thin line hai use kahan tak cross karna hai ,uski seema rekha kahan tak kheenchni hai ye sab media ko hi tay karna hoga....par abhibhi kuch kahna jaldbaji hogi...

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  17. is poore maamle men meedia ne ati kar rakhee hai.

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  18. hone ko to sab kuch sambhav hai aaj ki duniya mein lekin bina sabooton ke jalbaaji mein kisi ke baare mein is tarah ki baat karna bahut galat hai. yadi pita nirdosh hai to unke liye ye sadma bahut gahra hai.

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  19. Anonymous5:19 pm

    सिद्धार्थ ,कहीं भांग तो नही खा लिए .इतनी जल्दी भूल गए .राजेश तलवार को मिडिया नही नॉएडा पुलिस ने खुनी साबित करते हुए गिरफ्तार किया था .खून क्यों और कैसे किया था ये भी नॉएडा पुलीस ने ही बताया था.
    हाँ जिस ख़बर को जिस तरीके से दिखाया गया वो तरीका सिर्फ़ आप जैसे पढ़े-लिखे को ही नही हिलाया है .अनपढ़ गवार भी हिल गया है .
    किसी विषय वास्तु को समझिये तब टिपण्णी करिए . सिर्फ़ हां में हां मिला देने के लिए अगर टिपण्णी करनी है तो बात दूसरी है लेकिन किसी टिप्पणीकार को लपेट कर आगे बढ़ जाना सवस्थ मानसिकता का परिचायक नही है.
    तुम्हारी बात हम क्यों मान ले जो ग़लत है . तुम अपनी तर्क लेकर अपने घर में ही रहो .पुरे ५६ दिन कहाँ थे ?
    सीडी ले आयो सारे न्यूज़ चैनल का फ़िर से देखो ,सोचो तुम मेरे साथ अपने आपको पायोगे .कृपया मेरे साथ अपने पागलपन को जारी न रखों.

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  20. Anonymous5:19 pm

    सिद्धार्थ ,कहीं भांग तो नही खा लिए .इतनी जल्दी भूल गए .राजेश तलवार को मिडिया नही नॉएडा पुलिस ने खुनी साबित करते हुए गिरफ्तार किया था .खून क्यों और कैसे किया था ये भी नॉएडा पुलीस ने ही बताया था.
    हाँ जिस ख़बर को जिस तरीके से दिखाया गया वो तरीका सिर्फ़ आप जैसे पढ़े-लिखे को ही नही हिलाया है .अनपढ़ गवार भी हिल गया है .
    किसी विषय वास्तु को समझिये तब टिपण्णी करिए . सिर्फ़ हां में हां मिला देने के लिए अगर टिपण्णी करनी है तो बात दूसरी है लेकिन किसी टिप्पणीकार को लपेट कर आगे बढ़ जाना सवस्थ मानसिकता का परिचायक नही है.
    तुम्हारी बात हम क्यों मान ले जो ग़लत है . तुम अपनी तर्क लेकर अपने घर में ही रहो .पुरे ५६ दिन कहाँ थे ?
    सीडी ले आयो सारे न्यूज़ चैनल का फ़िर से देखो ,सोचो तुम मेरे साथ अपने आपको पायोगे .कृपया मेरे साथ अपने पागलपन को जारी न रखों.

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  21. Anonymous2:38 pm

    हम सभी इस पूरे प्रकरण के लिये कहीं ना कहीं जिम्मेदार हैं.पूरे समाज को ही दोष देना होगा कि असंवेदनशीलता हद से आगे बढ गई है.मीडिया भी तो समाज का ही हिस्सा है.

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  22. मुझे तो अब भी कुछ समझ नहीं आ रहा है हा इतना जरूर है कि मै खुश हूँ इस बात से कि पिता शब्द या उसके होने की मर्यादा बच गई बस इतना ही......

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