हाल ही में एक चिट्ठे 'औरत के हक में' में एक लेख 'लड़कियाँ फेल क्यों हो गईं' पढ़ रही थी। वहाँ एक टिप्पणी में लिखा था कि कोई भी पढ़ा लिखा पिता अपनी बेटी को पढ़ाई से वंचित नहीं रखता। आमतौर पर यह सही है परन्तु सदा नहीं। पढ़ाई मानसिकता बदलने में सहायता अवश्य करती है परन्तु मानसिकता बदलने की गारंटी कदापि नहीं है। यदि ऐसा होता तो समाज तेजी से बदल गया होता, कमसे कम पढ़े लिखे लोगों का समाज तो बदल ही गया होता।
मुझे अपने बचपन में देखे गए कुछ लोग याद आते हैं। एक तो थे हमारे पूर्व स्कूल के प्रधानाचार्य जी। अपने पद के कारण उन्हें हमारी प्रेरणा होना चाहिए था। परन्तु मैं तो यही जानती थी कि जैसे वे हैं वैसा न मुझे होना है ना ही वैसे किसी व्यक्ति से सम्बन्ध रखना है। वे नए नए हमारे पड़ोस में रहने आए थे। वह स्कूल आँठवीं तक का था और सौभाग्य से मैं तब नौंवी में पढ़ती थी। उनकी तीन बेटियाँ थीं व एक पुत्र। पुत्र इंजीनियरिंग पढ़ रहा था। बेटियाँ, विभिन्न आयु वर्ग की घर में रहती थीं। माँ के पूछने पर कि वे क्यों नहीं पढ़ रहीं, उनका उत्तर था कि उन्हें जितना पढ़ाना था (दसवीं तक ) पढ़ा लिया। अब उन्हें उनके घर भेजना है। घर में तीन जवान स्वस्थ बेटियाँ, एक स्वस्थ पत्नी और एक प्रधानाचार्य जी। अब घर का कितना काम वे चार स्त्रियाँ ढूँढ ढूँढ कर कर सकती थीं। बहुत सा समय खाली रहतीं। माँ को पढ़ने में रुचि थी। पास में ही एक चार भाषाओं की पुस्तकों वाला समृद्ध पुस्तकालय भी था। हमारे घर में लगातार पुस्तकें आती रहतीं। वैसे भी घर में बहुत सी पुस्तकें थीं। माँ ने सुझाया कि पुस्तकें ही पढ़ लिया करें तो उनके पिताजी को उनका पुस्तकें पढ़ना भी रुचिकर नहीं लगता था। हमारे घर में भांति भांति की पत्रिकाएँ भी आती थीं। साप्ताहिक हिन्दुस्तान, धर्मयुग,कादम्बिनी आदि और धार्मिक पत्रिका कल्याण भी। कोई भी वे पढ़ सकती थीं, परन्तु घर के स्वामी को यह पसन्द नहीं था। घर से बाहर निकलना भी मना था सो हरियाणा में रहते हुए भी पंजाबी, हरियाणवी महिलाओं, जो कढ़ाई, सिलाई में में प्रवीण होती थीं, से कढ़ाई सिलाई भी नहीं सीखतीं थीं।
मैं उन्हें देखती थी। मेरा जीवन पूरी तरह से भरा, व्यस्त था। स्कूल, पढ़ाई, शाम को रोज टेबल टैनिस खेलना, टेस्ट, टुर्नामेन्ट, समाचारपत्र, उपन्यास,पत्रिकाएँ, खाली समय ही नहीं था। तब सोचती कि ये बहनें जिनमें से सबसे छोटी मुझसे दो या तीन वर्ष ही बड़ी थी कैसे रहतीं होंगी। क्या केवल इसी आस में जीती होंगी कि कोई आए और उन्हें 'उनके' घर ले जाए।
एक और पड़ोसी थे। जब वे आए तो उनकी छोटी बेटी दसवीं पास कर चुकी है, बताया गया। मैं तब मात्र ५ या ६ वर्ष की रही होउँगी। दोनों बहनें साथ में कॉलेज नहीं जा सकती थीं क्योंकि घर में काम में हा्थ बटाना होता था। सो बारी बारी करके वे बी ए व एम ए भी कर गईं। उनसे छोटे बड़े सभी ४ भाई पढ़ाई में तेज थे व बारी बारी नहीं, सभी साथ साथ पढ़ने के लिए कॉलेज, छात्रावास गए। न इन लड़कियों ने कभी नौकरी करी न उनकी शादी हुई। लगभग २५ वर्ष बाद जब मैं अपनी बेटियों को लेकर वापिस उसी जगह रहने गई, तब तक भी वे घर के काम में हाथ बटा रही थीं। ये अनपढ़ लोग नहीं थे। पिता एक कारखाने में औफिसर थे।
सो पढ़ाई बदलाव के लिए एक उत्प्रेरक ( catalyst) हो सकती है परन्तु असली तत्व जो बदलाव ला सकते हैं वे तो हमें अपने भीतर या समाज में से ही लाने होंगे। असली तत्व हम स्वयं हैं, उससे जब हमारी मेहनत, लगन, इच्छाशक्ति मिल जाएँ तो पढ़ाई व हमारे आस पास की परिस्थितियाँ catalyst का काम करके बदलाव की प्रतिक्रिया को तेज कर देती हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि मनुष्य स्वार्थी होता है। जिस भी काम से उसे स्वयं संतुष्टि या कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष लाभ या अपने जीवन मूल्यों की तुष्टि नहीं मिलेगी वह नहीं करेगा। जो माता पिता अपने बच्चों को मेहनत करके या स्वयं आधा पेट रहकर पढ़ाते हैं, वे भी केवल इसलिए ऐसा कर पाते हैं क्योंकि उनके कष्ट से बड़ा उनका बच्चों को आगे बढ़ाने का जीवन मूल्य होता है। सो वे इस जीवन मूल्य को पाने के लिए कुछ भी कर गुजरते हैं। जिनका जीवन मूल्य केवल सामाजिक परम्पराओं को जीवित रखना ही या अपना अंकुश परिवार में बनाए रखना होता है जैसा कि माननीय प्रधानाचार्य जी का था वे सारी सुविधाएँ होते हुए भी, पढ़ेलिखे होते हुए भी बदलाव के लिए कुछ नहीं करेंगे अपितु वह सब करेंगे जिससे बदलाव की बाढ़ को रोका जा सके। यह भी हो सकता है कि जिस बदलाव की बात हम कर रहे हैं वह उन्हें प्रगतिशील न लगकर पतनशील लगता हो। तो उनके अनुसार वे सही ही कर रहे थे। जिनका जीवन मूल्य केवल अपनी सुविधा हो, जैसा उन बारी बारी कॉलेज जाने वाली बेटियों के माता पिता का शायद था,वे अपनी सुविधा के लिए कुछ भी कर सकते हैं,समाज में निकृष्ट माने जाना भी उन्हें स्वीकार्य है।
ऐसी स्थिति में शायद मनुष्य के अंदर का जुझारूपन ही व्यक्ति की नैया पार लगा सकता है जैसे मेरे एक चिट्ठे 'कैसे कैसे लोग' की 'जाई' ने कर दिखाया। मेरी कई अन्य महरियों में भी मैंने यह देखा है। कई पड़ोसिनों में नहीं देखा है। प्रधानाचार्य जी की पत्नी दीनहीन थीं। उनसे जुझारू होने की अपेक्षा करना हाथी से उड़ने की अपेक्षा करने समान था। परन्तु मुझे दुख इस बात का है कि प्रकृति ने हर अन्य प्राणी में माता पिता उन्हीं को बनाने का प्रावधान रखा है जो इस योग्य हों। बहुत से प्राणियों में पिता का बच्चों के लालन पालन में कोई सहयोग नहीं होता। पक्षियों आदि में होता है। परन्तु मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है कि कितना भी निकृष्ट, नालायक क्यों न हो, माता पिता बन सकता है। मादा पशु अपने बच्चों की रक्षा में प्राणों की बाजी लगा देती है। कमजोर से कमजोर पशु माता भी जी जान से अपने बच्चों की रक्षा करती है। केवल मानव स्त्री ही गृहस्वामी के मन के अनुसार अपने बच्चों को बड़ा करती है। क्यों प्रधानाचार्य जी की पत्नी माँ बनने पर उनके गलत निर्णयों का विरोध करने का साहस नहीं जुटा पाईं? सो लगभग सब प्राणी माता पिता अच्छे माता पिता होते हैं सिवाय मनुष्य के,जो अच्छा या बुरा होने का चुनाव कर सकते हैं। शायद प्रकृति का सबसे बुद्धिमान प्राणी होने का यही मूल्य हम चुकाते हैं।
क्या मानव स्त्री का बच्चे अपने मन मुताबिक बड़े करने के अधिकार से वंचित रह जाने के पीछे मानव सभ्यता का हाथ है? बहुत कम प्राणी बच्चे अपने पिता के बच्चे कहलाते हैं। वे सदा ही अपनी माँ के बच्चे के रूप में जाने जाते हैं। मनुष्य में बच्चे माँ के नहीं कहलाते, न ही वे माँ की जीवन शैली, भाषा, धर्म, जाति या नाम से जाने जाते हैं। वे अपने पिता के बच्चे होते हैं। माँ भले ही बच्चे की माँ, जैसे 'रामू की माँ' के नाम से जानी जाए ! शायद इसी विडंबना के कारण माँ यह तय नहीं कर पाती कि उसके बच्चे के लिए क्या सही है। आज कानून शायद बदला हो परन्तु भारत में बच्चे का स्वाभाविक संरक्षक भी पिता ही माना जाता रहा है। इस स्थिति के लिए हमारी सभ्यता जिम्मेदार है। मनुष्यों में नर व स्त्री दोनों ही बच्चे की परवरिश में भाग लेते रहे हैं, चाहे वह खाना जुटाना रहा हो या सुरक्षा प्रदान करना या लालन पालन करना। शायद इसीलिए मानव बच्चे का विकास अन्य प्राणी बच्चों के विकास से अधिक होता है और अधिक समय लेता है। और यह विकास जीवन पर्यन्त चलता रहता है। ऐसी स्थिति में यदि माता पिता में से एक या दोनों ही अपने दायित्व को सही ढंग से नहीं निभाते तो बच्चों का सर्वांगीण विकास अवरुद्ध हो जाता है। तभी दुख होता है कि काश, प्रकृति केवल अपना दायित्व समझने वालों को बच्चों का वरदान देती।
बहुत से परिवारों में तो पुत्री की उपस्थिति को लगभग नकार ही दिया जाता है। किसी भी अच्छे स्कूल में लगभग सदा लड़कों की संख्या अधिक होती है। महंगे स्कूलों में पुत्रों को भेजा जाता है। जिस स्कूल से मैं जुड़ी हूँ वह शहर के नापदंडों से महंगा तो नहीं कहलाएगा परन्तु मुफ्त मिलती सरकारी शिक्षा से तो स्कूल फीस, बस का किराया आदि मिलाकर निश्चय ही महंगा है।
मेरी कक्षा में कन्हैया नाम का एक लड़का पढ़ता था। पढ़ाई करना तो दूर की बात वह मैले कपड़े पहने, बिना स्नान किये स्कूल आता था। कोई भी किताब निकालने को कहो तो कन्हैया बैठा रहता था। उसे अलग से कहना पड़ता। तब वह बस्ते मे ढूँढाई आरम्भ करता। यदि उसकी प्रतीक्षा करो तो न जाने कितना समय निकल जाता। इसलिए मैं ही बहुत बार बस्ता लेकर किताब ढूँढती। अधिकतर किताबें या तो खो गई होंती या फिर फटी होतीं। उसका बस्ता किताबों व कॉपियों के पन्नों से बनी नाव, गेंद, हवाईजहाज आदि से पटा पड़ा रहता। शायद ही कभी वह कोई गृहकार्य करके लाया हो। दूसरी कक्षा तक सभी बच्चे पास कर दिए जाने के कारण वह तीसरी में आकर अटक गया था।
तरह तरह से कन्हैया को पढ़ाने का यत्न किया जाता। अगली कक्षा के किसी बच्चे से माँगकर उसकी खोई किताबों की जगह नई दी जाती। प्यार, समझाने, क्या समस्या है पूछने से कोई विशेष अन्तर न पड़ता। उसे आगे बैठाया गया, अलग बैठाया गया, अपने पास बैठाया गया। उसके पिता को बुलाया गया। उनसे बात की तो पता चला कि आजकल उसकी माँ उसका ध्यान नहीं रख पाती है। कारण कि बहुत साल से कन्हैया घर में अकेला बच्चा था अब उसका भाई पैदा हो गया है तो माँ का ध्यान बंट जाता है। मैंने कहा अरे, बहुत सालों का अंतर हो गया। इतने सालों से अकेले रहकर भाई आने से सामंजस्य नहीं बैठा पा रहा होगा। उसकी माँ से कहो इसपर भी ध्यान दें। आप भी इसपर ध्यान दें, नहला धुलाकर भेंजे। रोज डायरी देखें कि क्या गृहकार्य दिया गया है। उसका पिता बोले, 'अंतर तो नहीं रखा था। बीच में दो बहनें आ गईं इसी से अंतर हो गया। अब छोटे को भी देखना होता है। और मैं तो नौकरी पर जाता हूँ, बच्चों को कैसे देखूँ ?' मैं दंग ! इसकी दो बहनें हैं ? स्कूल क्यों नहीं आतीं ? वे बोले, 'लड़कियाँ हैं सो सरकारी स्कूल में कभी चली जाती हैं बाकि तो 'बच्चों' की देखभाल में माँ का हाथ बटाती हैं! 'बच्चों' का भविष्य सुधारने को ही तो इसे अंग्रेजी स्कूल में डाला था।'
सो ये एक पिता आज के समय के हैं, उन दो माता पिता के किस्से से लगभग ४० या ४५ वर्ष बाद के पिता। जो बेटियों की उपस्थिति को ही लगभग नकार रहे थे। वे हैं तो केवल माँ का हाथ बटाने को। उन माँओं का क्या होता है जिनके केवल बेटे होते हैं? क्या उनके हाथ को बटवाने की आवश्यकता नहीं पड़ती?
उस बच्चे कन्हैया का भी भविष्य क्या होगा जिसे दो बहनों के होते हुए भी घर का इकलौता बच्चा जान बिगाड़ा जाता रहा है। कल कन्हैया की बहनों व स्त्रियों के प्रति क्या विचारधारा होगी? क्या हम आज से २० वर्ष बाद वाले कन्हैया से अपेक्षा कर सकेंगे कि वह अपनी पत्नी और बेटियों को अपने व बेटों के समान माने? सो एक और पीढ़ी यह पक्षपात व अन्याय चलाने को तैयार की जा रही है। कन्हैया कहने को शिक्षा पा रहा है, पा क्या रहा है बस स्कूल आ रहा है। शायद कभी स्कूल पासकर समाज का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बनेगा, ऐसा हिस्सा जिससे अधिक अपेक्षा नहीं की जा सकती। सो आज से २० या २५ वर्ष बाद की भी कुछ लड़कियों को 'पढ़े लिखे' पिता के दकियानूसी विचारों में जीना पड़ेगा।
घुघूती बासूती
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यह स्थिति सचमुच बदलनी चाहिए। विचारणीय आलेख।
ReplyDeleteअलग-अलग काल खंड में जीते हैं लोग।
ReplyDeleteवाकई इस मुद्दे पर पुरजोर विचार की महती आवश्यक्ता है.
ReplyDeleteअब ऐसे अपवादस्वरुप नालायकों की बात करें तो ब्रिटेन और अमेरिका में दो तीन पीढियों से रहते आए कुछ पढेलिखे ग्रेजुएट भारतीय और पाकिस्तानी भी ओनर किलिंग्स में लिप्त हैं, थोड़े लोग ऐसे भी हैं जो अपनी लड़कियों को स्कूल भेजना पसंद नहीं करते. पर विहंगम रूप से देखें तो एन आर आई लड़कियां सबसे उच्च शिक्षित होतीं हैं. और यह विकसित समाज का असर है.
ReplyDeleteऐसा ही भारत के अंदर है, अपने आस पास नज़र डालिए, किस वर्ग की अधिक लड़कियां ग्रेजुएट मिलेंगी? कॉलेज पढ़े पिता की लड़कियां या कम पढ़े लिखे परिवार की.
अधिकतर व्हाइट कॉलर नौकरीपेशा महिलाऐं शिक्षित पिता की संतान होतीं हैं.
आप आज किसी भी ग्रेजुएट और विवाह योग्य लड़के से पूछकर देखिये की क्या वह कम पढ़ी लिखी लड़की को अपनी दुल्हन बनाने के लिए तैयार है? बात ख़ुद साफ हो जायेगी. यह भी एक कारण है की माता पिता मज़बूरी में ही सही लड़कियों को पढ़ा रहे हैं.
आपने जिन लोगों कि बात की, वे भी हमारे बीच अस्तित्व में है, पर कितने? आपके नज़र में कितने शिक्षित बाप ऐसे होंगे? क्या आपने अपने अनुभव में ज्यादातर शिक्षित पिताओं को ऐसी ही मानसिकता वाला पाया है. अपवाद किसी फिनोमिना को साबित नहीं करते.
और आपका कन्हैया तो मेरा ही प्रतिरूप था, और बीस की उम्र पूरी करने के बाद पता लग पाया की मुझे 'डिस्लेक्सिया' की समस्या है. हो सकता है कन्हैया को भी रही हो. पर अगर मेरी इस समस्या को बचपन में ही समय रहते कोई टीचर पहचान लेती तो मैं भी............. खैर छोडिये, बीती बातें हैं , पर बच्चे का ही हमेशा दोष नहीं होता. अक्सर शिक्षक अप्रशिक्षित होते हैं. और हर पढ़े लिखे माता पिता से भी उम्मीद नहीं की जा सकती की वे शैक्षणिक मनोविज्ञान के ज्ञाता होंगे. आपने उसकी लर्निंग डिसआर्डर स्क्रीनिंग अवश्य की होगी, क्या वह सच में कमज़ोर था?
क्यूँ नही बदल पा रहे हैं हम इस सोच को अभी ..आपका यह लेख सोचने पर मजबूर कर देता है .
ReplyDeleteमेने ये देखा हैं की पिता /पति / भाई कितना भी शिक्षित क्यों न हो उसकी नज़र मे औरत सदा "बेवकूफ औरत " रहती हैं . किसी भी अहम् मसले पर बात होनी हो तो शिक्षित हो या अशिक्षित हो , जनसाधारण पुरूष वर्ग की आम राय होती हैं " औरतो से क्या पूछना " . ज्यादा तर घरो मै आज भी औरतो को शिक्षा इसीलिये दी जाती हैं ताकि उनका विवाह हो सके . शिक्षित पिता केवल अपना उतरदाईत्व निभाता हैं लेकिन अज भी बहुत से घरो मै कह जाता हैं " पढ़ लिख क्या ली जबान कैची की तरह चलती हैं " हमारे समाज मे लड़की की शिक्षा ज्यादातर घरो मे फैशन हैं उसके आगे कुछ नहीं . लड़कियो को " शिक्षा " दी जाती हैं घुघूती मैम सदियों से और दी जाती रहेगी . अनपढ़ पिता/पति/पुत्र/भाई को भी अधिकार हैं नारी को " शिक्षा " देते रहने का !!!!!!!!!!!
ReplyDeleteविचारणीय लेख है .....लेकिन बहुत कुछ घर परिवार की सोच पर निर्भर करता है ab inconvient जी कई बातो से सहमत हूँ...मई दो ऐसे परिवारों को जनता हूँ जो एक जैसी आर्थिक परिस्थितयों में रहते है लेकिन एक ने अपनी बेटियों को इस तरह के संस्कार दिए की उन्हें बस एक समय के बाद शादी करनी है .दूसरे परिवार की माता जी ने अपनी बेटी को तैयारी करने के लिये कोटा भेजा पुरी तरह से support किया ओर आज उनकी बेटी एन्जिरियिंग कर रही है .....कमाल की बात है दोनों लड़किया सहेली है ..मेरा मानना है घर की औरत ओर मर्द दोनों को सोच इसके लिये जिम्मेदार है....ओर मैंने अक्सर देखा है की मेरी अधिक शिक्षित न होते हुए भी घर में जिस बात पर अडी हो वो बात होकर रही है ....ये जरूर है की अब भी दूर दराज गाँवों में हालात बदलने में वक़्त लगेगा पर स्त्री खास तौर से माँ को भी अपना नजरिया बदलने की जरुरत है.....
ReplyDeleteहम ऐसे ही सोचते मथते रहेगें लोग अपने हिसाब से बेटियों को पालेगे ....
ReplyDeleteसमाज बदलने में वक्त तो लगता है, ऐसा कुछ तो है नहीं की छड़ी घुमाई और हो गया.
ReplyDeleteसोच में डूबा यही कह सकता हू कि समय बदलेगा.... घुघूती जी फ़िल्म जाने तू...या जाने ना देख आइये....हीरो की माँ अपने हिसाब से जीती है... बेटे की परवरिश अपने हिसाब से करना चाहती है... पिता या राठौर खानदान के परम्परानुसार नही.....
ReplyDeleteइसकी संख्या कम जरुर है लेकिन है...यही बहुत है और बहुत ही बहुत हो जायेगी. दीया दीया को जला सकता है!
रही बात प्रधान्चारी की या फ़िर कन्हैया जैसे बच्चे जो अभिसप्त है और बड़े होकर कई और को अभिसप्त करेंगे.... इसके बावजूद..... सूरज चमकता रहेगा...
बहुत अच्छा पोस्ट लिखा है आपने..
ReplyDeleteआभा से सहमत हूँ , पर यह भी सही है बदलाव छोटे स्तर पर सही हो रहा है और उसे सर्वहारा तक पहुँचते वक़्त लग जाएगा ।
ReplyDeleteबदलाव हो रहे हैं, छोटे स्तर पर ही सही, लेकिन ये भी सच है कि सभी शिक्षित पिता अपनी पुत्री को शिक्षा दें ही ये जरूरी नहीं लेकिन अगर एक मां शिक्षित है तो आने वाले सारी नस्लें शिक्षित होंगी यह होगा ही। हालांकि मैंने कई ऐसे पिताओं को भी देखा है जो अपने बेटियों को पढ़ाने के लिए जी-जान लगा देते हैं और उन्हें कुछ बनाने के लिए दुनिया से लड़ लेते हैं।
ReplyDeleteहालांकि आपके उदाहरणों में एक उदाहरण अपना दूं तो आप बुरा नहीं मानेंगी मेरे दोनों भाई हिन्दी मीडियम में साधारण स्कूलों में पढ़े जबकि मैं शहर के बेस्ट इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ी। जबकि हम तीनों इंटेलिजेंस के लेवल पर लगभग समान थे। पापा मुझे डाकटर बनाना चाहते थे और इस पर कितना भी पैसा खर्च करने को तैयार थे।
जो लडकियाँ पढलिख कर स्वयम् को अपने पैरोँ पे खडा कर पायीँ हैँ उन्हेँ भी आगे बढना है अपने अपने क्षेत्र मेँ ..
ReplyDeleteऔर जो पिछड गयीँ हैँ,
उन्हेँ सहायता की जरुरत है -
बच्चे आज भी माता ,
पिता की अमानत होते हैँ -
समाज या सरकार बाद मेँ आते हैँ
- लावण्या
मुझे लगता है की कम पढ़े लिखे परिवारों तक ये बात पहुँचाना बहुत ज़रूरी है! हांलाकि बदलाव आ रहा है लेकिन अभी भी मानसिकता बदलने में काफी वक्त लगेगा! मैं हमेशा कोशिश करती हूँ की मेरे संपर्क में जो भी ऐसी मानसिकता के लोग आते हैं मैं अपनी तरफ से उदाहरण देकर उन्हें समझाने का प्रयास करती हूँ...शायद ऐसा करते करते किसी एक में भी बदलाव आ जाये तो खुद को सफल मानूंगी!
ReplyDeleteयह सब महज़ यहाँ कुछेक लम्हें गुज़ार कर नहीं पर
ReplyDeleteअपनी रोज की ज़िन्दगी में आने वाले किरदारों की
सोच बदलने की मुहिम चलाने की है !
आइये, आज से ही शुरुआत हो जाये !