आज उसकी बहुत याद आ रही है। आएगी भी, उसका जन्मदिन जो है। होती तो आज ५८ वर्ष की हो गई होती। समझ नहीं आ रहा कैसे याद करूँ। उसे अपने से बड़ी के रूप में या छोटी के रूप में। होती तो बड़ी ही होती। परन्तु अब जब नहीं है तो वह तो उसी उम्र में छूट गई जिस उम्र में मरी थी। तो मुझसे बड़ी नहीं, ३५ की उम्र में ही अटककर रह गई। क्या वह ३५ की है और मैं ५३ की बस होने ही वाली हूँ? ३५ और ५३! एक दूसरे का उल्टा! मुझसे छोटी है या बड़ी? बहुत उलझ रही हूँ। शायद कम्प्यूटर का कोई प्रोग्राम होगा जो उन्हें ५८ वर्ष में कैसी दिखती बता सकता है। तो शायद बड़ी बन जाती। परन्तु उसका मन कैसा होता इस उम्र में? क्या उतना ही टूटा जितना जाते समय था या अब तक कुछ जुड़ चुका होता। क्या कम उम्र में मरने वाली हमारी यादों में चिरयौवना रह जाती हैं?
वह तो है ही नहीं , है तो केवल याद है। मैं अपनी बेटियों से कहती थी उन्हें सदा याद रखना। याद रखोगी तो वे जीवित रहेंगी। आज भी मन हो रहा है कहने का। परन्तु आज नहीं कह रही। जब बच्चे बड़े हो जाते हैं व उनका अपना एक अलग जीवन हो जाता है तो उनसे इस तरह की भावुक बातें करने से मन कतराता है, जब तक वे पहल न करें। जब तक मैं हूँ तब तक तो वह है ही! फिर मेरे जाने के बाद, हम्म, तब न भी रहे तो क्या है।
परन्तु मैं किस किस को यादों में जीवित रखूँ? यदि उसे ३५ में ही अटकाकर रखूँ तो उनका क्या करूँ जो २१ की भी नहीं थीं? उनकी तो बेटी भी ४२ की हो गई है। २१ और ४२ ! उनकी बेटी उनसे आयु में दुगुनी हो गई है। मैं अंकों से क्यों खेलना पसंद करती हूँ? क्योंकि अंक मुझे सदा सजीव लगते रहे हैं। अंक बहुत से लोगों के शब्दों से भी अधिक सजीव व अर्थपूर्ण होते हैं। समय के साथ अंकों के अर्थ बदलते नहीं। अंक शाश्वत हैं। मैं मृतकों से क्यों बात करती हूँ? मैं क्यों मृतकों को याद करती हूँ? क्या मुझे मृत भी जीवितों से अधिक सजीव लगती हैं? शायद हाँ। वे मेरे साथ जीवितों से भी अधिक रहती हैं। वे मुझे जीवितों से भी अधिक याद आती हैं। शायद उनकी यादें जीवित लोगों से भी अधिक अर्थपूर्ण व शाश्वत हैं। ये यादें समय के साथ बदलेंगी नहीं। न वे ही मेरी यादों में बदलेंगी।
मुझे उनकी यादों से मिलने के लिए अपने को दर्पण में देखना नहीं पड़ता। उनके आने के लिए कोई दरवाजा नहीं खोलना पड़ता। वे बस आ जाती हैं और हौले से मेरे पास, बहुत पास बैठ जाती हैं। वे मुझे (क्या बेटियों को फोन करूँ? क्या उन्हें जानने दूँ कि माँ उदास है, कि माँ को याद आ रही है, उनकी जिनकी उन्हें कोई याद नहीं। क्या उनसे उनकी बात करूँ? ) बहुत याद आती हैं। क्या वे उनकी बेटियों को भी याद हैं? मैंने २१ वर्ष से कम में मरने वाली की बेटी को उनकी १८ वर्ष में खींची एक फोटो दी थी। उसने कभी अपनी माँ की फोटो तक नहीं देखी थी। क्या उसे वह अपनी माँ दिखी थीं या ३३ वर्ष की आयु में देखी एक १८ वर्ष की उम्र की लड़की की फोटो उसे मातृत्व का आभास करवाती थी? अपनी माँ के प्रति मातृत्व? क्या यह सही है? आज ४२ वर्ष की आयु में अपनी २१ वर्ष की उम्र में इस संसार से जाने वाली माँ के प्रति उसके मन में क्या भाव उठते हैं?
मैं स्वयं विचलित हूँ,भ्रमित हूँ....
घुघूती बासूती
Saturday, July 19, 2008
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क्या टिप्पणी करूँ?
ReplyDeleteजीवित यादे...यदों में जीवित.
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ReplyDeleteकुछ समझ नही आ रहा क्या लिखू..
ReplyDeleteइसी उलझन में हू की इतना अद्भुत विचार आपके जेहन में किस तरह आया होगा.. और आया भी तो आपने उसे किस तरह शब्द दिए होंगे.. और किस तरह से उन शब्दो को मैं आत्मसात कर पाया.. ये मैं ही जानता हू.. पर लिखू क्या ये अभी भी समझ नही पा रहा हू... बस कमाल का लेख
बहुत देर तक सोचा मगर शब्द नही टिप्पणी के लिए,
ReplyDeleteइतना ही की, माँ की तस्वीर का सुखद एहसास या यादों की पीड़ा .......
पोस्ट बेहतरीन है,
जब भी इन्सान अकेलापन महसूस करता है तो उन को याद करनें लगता है जिन के साथ कभी जीवन के सुख-दुख बाँटें थे।वह कभी मर कर भी नही मरते जो हमें बहुत प्यारे होते हैं।...अपना भी हाल कुछ ऐसा ही है।आप का लेख पढ कर...फिर वो याद आ गए।
ReplyDeleteइसी का नाम जिन्दगी है. बस यादें यादें और यादें...
ReplyDeleteयही जीवन है जिसमे ढेरो यादे है.....बस उन्हें याद करके ही इन्सान कुछ सुख पा लेता है....
ReplyDeleteआपने अपने भावों को बहुत सहजता के साथ प्रस्तुत किया। निदा फ़ाज़ली साहब की ये इन पंक्तियों का स्मरण हो आया आपके यह शब्द पढ़कर:
ReplyDelete"फटे पुराने एक अलबम में, चंचल लड़की जैसी माँ"
yaad kar khud ko atmik shanti milati hai.yaad kar insaan khud prasann ho jata hai. dhanyawad.
ReplyDeleteकुछ उलझनें ऐसी होती हैं जिनका कोई समाधान होता ही नहीं है। इन्हें तो बस दिल के एक कोने में सहेज कर रख लेना होता है, और मौके-बेमौके खोलकर देख लेना… बस।
ReplyDeleteये यादें समय के साथ बदलेंगी नहीं। न वे ही मेरी यादों में बदलेंगी।
ReplyDelete--बस!!! और कुछ नहीं कहना. मैं भी ऐसे ही संजोये बैठा हूँ. समझ सकता हूँ.
सुंदरतम और सटीक चिंतन। साधुवाद।
ReplyDeleteअच्छा लगा पढ़कर…
ReplyDeleteमैं स्वयं विचलित हूँ,भ्रमित हूँ....
ReplyDeleteमैं आज ये कबूल करता हूँ की आज पहली बार किसी लेख को पूरा नही बल्की तीन बार पढ़ चुका हूँ ! वरना कमेन्ट करने के लिए कोई भी लेख नही पढा ! दुसरे के कमेन्ट देखो और निकल लो !
और कहीं पहले ही फंस गए तो "बढिया है !",... बहुत खूब, .....लिखते रहिये,
चलते बनिए...... टाईप करके रवानगी डालो ! अधिकतर कमेन्ट इसी तरह के आज कल दीख रहे हैं ! मैंने तो ऐसे कमेन्ट नही करने की कसम
खा ली है ! बिना पढ़े कमेन्ट करने के नतीजे में अच्छे भले लेख की मिट्टी लोग कर देते हैं !
और आपकी अन्तिम लाइन
"मैं स्वयं विचलित हूँ,भ्रमित हूँ...." के अलावा शब्द नही है मेरे पास ! शब्द हो भी नही सकते ! ये सिर्फ़ एक अहसास है ! भाव है ! संवेदनाए
हैं ! आपने तो सुंदर तरीके से इन्हे शब्द दे दिए हैं ! मैं क्या, हर इंसान की यादों में ऐसे लोग होते हैं ! पर वो पन्नों पर आकार नही दे पाते ! आपने इसे शब्द देकर सजीव कर दिया है !
प्रणाम आपको और उसको जिसके प्रति आपका ये लेख समर्पित है !
जन्म-मरण का चक्र और हिन्दू विचारधारा में पुनर्जन्म में आस्था बड़ा सम्बल देता है। मैं अपने बाबा को - जो मेरे हाथॊ में गये थे, की कभी उनकी उस समय की अवस्था में कल्पना करता हूं और कभी एक शिशु/जवान होते व्यक्ति के रूप में।
ReplyDeleteऑफ कोर्स, यादें तो भुला नहीं सकते। वे तो हमारी पर्सनालिटी का हिस्सा हैं।
एकदम नही समझ पा रहा हू कि क्या टिपण्णी दू.... इस पोस्ट मृतकों के लिए को..... यादो का दामन है यह
ReplyDeleteयादें जिंदगी का सरमाया होती हैं और ऐसी यादें जो आपने बांटी हैं दिल की गहराइयों में कहीं जगह बना लेती हैं..क्या कहूँ, बस शुक्रिया ऐसी यादों को हम से शेयर करने के लिए...
ReplyDeleteआपने अपने अहसास को किस तरह से शब्दों में पिरोया होगा.ऐसे सवाल कई बार मन को मथते हैं,किन्तु जवाब नहीं मिलता.गये हुए लोगों की यादें चुपके से बरबस ही जेहन में आ जाती है,वो कहीं जाती नही हैं,हां मौका देख कर सामने आ खडी होती हैं.
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