भारतीय समाज में स्त्रियों की घटती हुई संख्या कुछ वर्षों से न केवल स्त्रियों या स्त्रियों को सामाजिक न्याय दिलवाने में रुचि रखने वालों को ही, अपितु सारे समाज को परेशान किए हुई थी। पक्के पुरुषवादियों को भी यह चिन्ता खाए जा रही थी कि उनके बेटों का विवाह कैसे होगा। ऐसे समय में कोई भी समाचार जो यह बताए कि स्त्री पुरुष अनुपात थोड़ा भी बेहतर हुआ है एक आशा की किरण जगाता है।
आज के टाइम्स औफ इन्डिया द्वारा जारी किए गए इस समाचार के मुताबिक गुजरात में ० से ६ वर्ष तक की आयु में यह अनुपात २००५ में ८४६ था जो २००७ में बढ़कर ८८२ हो गया है। अभी भी स्थिति चिन्ताजनक बनी हुई है परन्तु कुछ सकारात्मक बदलाव दिख रहे हैं। सन् २००१ में यह अनुपात ८८३ था। यह अनुपात उसके बाद गिरता ही गया और लगता था कि स्त्री एक विलुप्त प्राणी बन जाएगी।
समाज के कई वर्गों ने इस स्थिति की गंभीरता को समझा व पुत्रियों को जन्म से पहले ही मारने के इस चलन के विरुद्ध अभियान चलाए। गुजरात में टाइम्स औफ इन्डिया ने 'जागो गुजरात' के अन्तर्गत 'सेव द गर्ल चाइल्ड' अभियान चलाया। बेटियों पर अभिमान करने वाले माता पिता से नित नए साक्षात्कार दिखाए जाते। अपनी बेटियों पर गर्व कर उन्हें कुछ बनाने वाले माता पिता को विशेष टी शर्ट्स, जिनपर 'सेव द गर्ल चाइल्ड'लिखा होता दिए जाते। 'बेटी बचाओ' आन्दोलन में सरकार व बहुत सी सामाजिक संस्थाओं की भागीदारी रही। कई जातियों व समुदायों ने अपनी अपनी जाति या समुदाय में इसे रोकने का बीड़ा उठाया। हाल में ही (शायद) पटेल लोगों ने निर्णय लिया कि जिस भी परिवार में दो से अधिक पुत्रियाँ होंगी तो तीसरी और उसके बाद की पुत्रियों की पढ़ाई लिखाई व विवाह का खर्चा समाज उठाएगा।
कई लोग पूछेंगे कि तीसरी बेटी या उससे बाद की का ही खर्चा क्यों उठाया जाएगा, सबका क्यों नहीं ? सोचने की बात यह है कि अधिकतर लोग दो बेटियाँ पैदा हो जाने पर ही भ्रूण परीक्षण कर स्त्री भ्रूण की हत्या करते हैं। सो इसको रोकने के लिए ही यह कदम उठाया गया होगा। कुछ सीमा तक परिवार नियोजन, जो भारत जैसी बड़ी जनसंख्या वाले देश के लिए, अपने आपमें एक बहुत आवश्यक व उपयोगी समाधान है, वह भी स्त्री की घटती जनसंख्या का एक कारण बन गया है। परिवार नियोजन के चलन में आने से पहले किसी परिवार में दो लड़के तीन लड़कियाँ होती थीं तो किसी में तीन लड़के और दो लड़कियाँ, कहीं पाँच छः लड़के और फिर एक लड़की तो कहीं पाँच छः लड़कियाँ और फिर एक लड़का। इस तरह से जनसंख्या तो चाहे बेहिसाब बढ़ रही थी परन्तु लड़के लड़कियों का जन्म के समय अनुपात बराबर सा ही रहता था। जन्म के बाद लड़कों के स्वास्थ्य, खानपान पर अधिक ध्यान दिया जाता था और उनकी छोटी सी बीमारी पर भी चिकित्सा करवाई जाती थी, जबकि लड़कियों के स्वास्थ्य, खानपान पर ध्यान कम दिया जाता था और उनकी चिकित्सा भी कम ही करवाई जाती थी अतः वयस्क होते होते यह अनुपात थोड़ा गड़बड़ा जाता था। स्थिति तब भी आज जैसी सोचनीय नहीं थी। परन्तु आज जब सबको एक या दो ही बच्चे चाहिए तो उन्हें एक पुत्र तो चाहिए ही। पहले जहाँ इस पुत्र लालसा में बच्चियों का जन्म होना सामान्य बात थी वहीं आज उन्हें जन्म ही नहीं दिया जा रहा है।
देखा जाए तो जो स्थिति आज है वह आने वाले समय का ट्रेलर भर भी नहीं है। जब ९० के दशक व उससे बाद में पैदा हुए बच्चे विवाह लायक होंगे तब समस्या बहुत विकराल रूप में सामने आएगी। आज भी हरियाणा, पंजाब व गुजरात में बहुत से लड़कों की शादी के लिए लड़कियाँ नहीं मिल रही हैं। बहुत से लोग आदिवासी या गरीब राज्यों से लड़कियाँ खरीदकर अपने बेटों का विवाह करवा रहे हैं। बहुपति प्रथा फिर से चलन में आ रही है। तो दस वर्ष बाद समस्या कितनी गंभीर हो जाएगी आप सोच सकते हैं। ऐसा न हो कि बेटों के माता पिता उन्हें कहेंगे कि 'पढ़ ले नहीं तो दुल्हन नहीं मिलेगी'। समस्या इतना विकराल रूप ले ले उससे पहले ही हमारे समाज को संभलना होगा। हम प्रत्येक वस्तु, सुख ,सुविधा के लिए सरकार का मुँह जोहते रहते हैं, परन्तु कोई भी सरकार पुरुषों को पत्नी नहीं दिलवा सकेगी।
स्त्रियाँ भी यह नहीं सोच सकतीं कि पुरुष प्रधान समाज ने जो किया उसकी सजा उस समाज के पुरुष भुगतें तो क्या बुराई है। क्योंकि जब यह अनुपात बिगड़ेगा तो स्त्रियों के प्रति अपराध और अधिक बढ़ेगा। स्त्रियाँ घर और बाहर आज से भी अधिक असुरक्षित हो जाएँगी। जो परिवारजन और अपराधी आज उनको खरीदने व बेचने से परहेज नहीं करते वे ऐसी स्थिति में कितने सक्रिय हो जाएँगे, यह अनुमान लगाना भी बहुत भयावह है।
दहेज विरोधी, घरेलू हिंसा विरोधी कानूनों से समाज में स्त्रियों की स्थिति में सुधार आया है। समय के साथ साथ समाज का स्त्रियों के प्रति दृष्टिकोण भी बदला है। अभी कल के ही समाचार पत्र में समाचार था कि अब बहुत से परिवार अपनी विधवा बेटियों ही क्या विधवा बहुओं के विवाह के लिए भी कदम उठा रहे हैं। शायद जैसा बदलाव हम गुजरात में देख रहे हैं वैसा ही बदलाव सारे भारत में आ जाए और किसी भी भ्रूण की हत्या इसलिए न हो कि वह स्त्री भ्रूण है। बहुत कुछ बदला है, बहुत कुछ सकारात्मक हो रहा है, परन्तु उससे भी बहुत अधिक करने की आवश्यकता है।
घुघूती बासूती
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ha bilkul sahi. bhut achhi jankari hai. bhut badhiya.
ReplyDeleteदेर आए दुरस्त आए .कहीं तो कुछ उजाला हुआ ...कोई तो जागा .वाकई यह एक बहुत अच्छी खबर है ...""कोई भी सरकार पुरुषों को पत्नी नहीं दिलवा सकेगी। "'यह बात बाकी राज्यों में भी जाग जाए तो कहना ही क्या ...खासकर हरियाणा पंजाब में ..चलिए आपने यह अच्छी खबर सुनाई बधाई
ReplyDeleteवाकई ये एक विडंबना है कि बेटी को आज भी वो हक नही मिल पाया है। आपने एक अच्छी खबर दी है। आशा है अब नारी की स्थिती पहले से बहतर होगी। शुभकामनाएं
ReplyDelete"९० के दशक व उससे बाद में पैदा हुए बच्चे विवाह लायक होंगे
ReplyDeleteतब समस्या बहुत विकराल रूप में सामने......... "
आपने आने वाली भयावह समस्या का बडा ही सटीक चित्रण किया है !
गुजरात के साथ साथ मध्यप्रदेश सरकार ने भी "लाडली लक्ष्मी योजना"
एवम अन्य तरह से सराहनीय प्रयास किए हैं !
जैसे चंद गंदे लोग तालाब गंदा कर देते हैं उसी तरह से चंद अच्छे लोग अगर खडे हो जाये तो वे गंदगी दूर भी कर सकते हैं ! और
धीरे धीरे लोग समझ भी रहे हैं ! और समझना पडेगा !
धन्यवाद
सच है की महिलाओं की संख्या घटने से लिंग आधारित अपराध बेतहाशा बढ़ जायेंगे. और इन अपराधों को देखकर बच्ची की चाह रखने वाले भी लड़की पैदा करने की हिम्मत नहीं दिखा सकेंगे.
ReplyDeleteSwagat yogya samachaar. Abhaar yahan lane ka.
ReplyDeleteदायित्व-बोध का यह पहलू
ReplyDeleteवक्त की सबसे बड़ी मांग है.
आपकी यह प्रस्तुति
सकारात्मक
और
सराहनीय है.
==========
चन्द्रकुमार
ek jankari aur sandesh bhara lekh...ek zaruri vishay par gehra chintan...bahot accha...
ReplyDeleteमहिलाओँ को बराबर की संख्या में लाना होगा, अगर समाज को संतुलन कायम रखना है।
ReplyDeleteआपका आशावादी लेख पढ़कर मन को सुकून पहुँचा। अभी इस दिशा में बहुत कुछ किया जाना बाकी है। लड़कियाँ जब अच्छी शिक्षा पाकर स्वावलम्बी बनने लगेंगी, और समाज में अपना स्थान अपने दम पर बनाने लगेंगी तो पुत्री के जन्म पर सांत्वना देने के बजाय थाली पीट कर खुशी मनाने वालों की संख्या बढ़ेगी। …इसकी शुरुआत हो भी चुकी है…।
ReplyDeleteगुजरात में पहले पटेल व फिर अन्य समाज के लोग आगे आये और सपथ ली की वे बेटी होने पर गर्भपात नहीं करवायेंगे. सरकारी अभियान "बेटी बचाओ" का भी असर होता दिख रहा है. सुकुन मिला.
ReplyDeleteगुजरात ने एक और क्षेत्र में कर दिखाया :) मंजिल अभी दूर है, मगर शुरूआत तो हुई.
अच्छी खबर के लिये धन्यवाद.
ReplyDeleteवाकई अच्छी ख़बर है एक बात ओर बता दूँ .मैंने अपनी मेडिकल की पढ़ाई गुजरात से की है वहां हमारी साथ पढने वाली लड़कियों के मेडिकल फीस नाम मात्र की थी (ध्यान दे मै govt मेडिकल कॉलेज की बात कर रहा हूँ ,प्राइवेट की नही)पर ये कदम वाकई सराहनीय कदम था गुजरात सरकार का......
ReplyDeleteअच्छी खबरों से मन को अच्छा लगता है और समाज के और बेहतर होने की आशा जागती है.
ReplyDeleteअच्छे लेख के लिए आभार.
ReplyDeleteईश्वर करें समय रहते लोग चेतें और इस दिशा में सकारात्मक प्रयास के लिए उद्धत्त हों.वैसे आज जिस प्रकार से लड़कियां जहाँ कहीं भी उन्हें अवसर मिल रहा है ,हर क्षेत्र में लड़कों से बीस सिद्ध कर रही हैं अपने आप को,बहुत बड़ी बात नही कि कुछ ही वर्ष के अन्दर लड़कियों को भी प्राथमिकता मिलने लगेगी और लोग कन्या जन्म पर भी उतने ही हर्षित हुआ करेंगे ,उसके लिए भी उतने ही लालायित रहा करेंगे जितने आज पुत्र के लिए रहते हैं. .
हमारी मानसिकता आज भी पिछली सदी मेँ ही जी रही है
ReplyDeleteबदलाव आ तो रहे हैँ पर धीरे धीरे ..
ये समाचार आनेवाली नई सुबह की पदचाप सा लगा --
- लावण्या
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteआपने सटीक बात कही है। एक बात मैं कहना चाहता हूँ.... मेरी भी दो बेटियाँ हैं। बेटे के लिए मुझ पर इतना दवाब था कि बता नही सकता। जब सब लोग अपनी बात नही मनवा सके तो एक तरह से मेरा सामाजिक बहिष्कार कर रखा है.... यह भी इसी समाज का आईना है!
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