Tuesday, February 19, 2008

मेरे लिए झाँसी की रानी का पोस्टर क्यों नहीं ?

माँ बहुत ही क्रान्तिकारी सी रही थीं जीवन भर । बहुत सी बातें हैं जिनके लिए मैं उनका बहुत आदर करती हूँ । जैसे १२ वर्ष की आयु में जब वे विवाह कर गाँव गईं तो उन्होंने घूँघट निकालने से साफ मना कर दिया । आज चोखेरबाली http://sandoftheeye.blogspot.com/2008/02/blog-post_18.htmlमें जब बन्धनों की बात हुई तो भी मुझे अपनी माँ पर गर्व हुआ । वह तो यही कहती थीं कि ‘अभी समय है जो मन में आए पहनो । बाद में क्या होगा क्या पता ।’ ना कभी उन्होंने दृष्टि नीची करने का सुझाव दिया । वैसे गाँव में जहाँ दरवाजे नीचे होते हैं सिर भटकने पर चाचाजी से 'चेलियाँ की चौड़ नजर' (लड़कियों को दृष्टि नीची रखनी चाहिये सा कुछ) बहुत सुनते थे । ऐसा लगता था कि वे मजाक करते थे । और वैसे भी हम कभी- कभार ही तो गाँव जाते थे और पकृति ने चौड़ नजर दी या नहीं परन्तु 'चौड़ कद' तो दे ही दिया । सो मेरा सिर बहुत कम दरवाजों पर ही भटकता था ।

हमारे बाहर जाने, खेलने कूदने, शोर मचाने, भरी दोपहरी छत पर चढ़ने पर उन्होंने कभी रोक- टोक नहीं लगाई । ना उन्होंने हमारे लिए हमारा जीवन निर्धारित करने का प्रयास कभी किया । सदा हमें सबसे आगे रहने, जीवन में उनसे व पिताजी से आगे बढ़ने को कहा । परन्तु जब से मेरी अपनी उम्र बढ़ी है व वे वृद् हुईं हैं, उनसे बहुत से वैचारिक मतभेद, विशेषकर स्त्रियों पर,होते रहते हैं ।

कुछ बातें बचपन मे् भी कचोटती थीं । आज जब गाहे बगाहे http://taanabaana.blogspot.com/2008/02/blog-post_18.htmlमें विनीतकुमार जी की पोस्ट पढ़ी तो वह बात याद आ गई । और याद आईं बहुत सी और बातें भी जो प्रगतिशील माता पिता भी जाने अनजाने में कर देते हैं ।

माँ सदा कहती थीं कि भाई के जन्म से पहले उन्होंने दिवार पर सरदार पटेल का पोस्टर लगा रखा था ताकि सदा आँखों के सामने रहे । वे सरदार पटेल सा बच्चा चाहती थीं । भाई कितने अच्छे थे, बचपन भर व अब भी, यह मैं http://ghughutibasuti.blogspot.com/2008/02/blog-post_17.htmlमें बता चुकी हूँ । परन्तु मुझे सदा यह आश्चर्य होता था कि वे कभी मेरे जन्म से पहले लगाए गए पोस्टरों या मेरी दोनों बड़ी बहनों के जन्म से पहले ऐसा कुछ किये की बात नहीं करती थीं । सबसे बड़े भाई के बचपन की भी बहुत बातें बताती थीं । मेरे बचपन की भी कुछ बताती थीं । वैसे मुझे स्वयं ही तीन चार वर्ष के बाद की बहुत सी याद रखने लायक बातें ऐसे याद हैं जैसे मैं आज भी उन्हें चलचित्र सा देख रही होऊँ । बचपन भर मैंने माँ से यह प्रश्न नहीं पूछा । परन्तु अब जब भी वे उस पोस्टर की बात करती हैं तो मेरा मन यही पूछने का होता है कि मेरे जन्म से पहले कौन सा पोस्टर लगाया था और कई बार पूछ भी लेती हूँ। एक- आध बार तो यह भी पूछ चुकी हूँ कि क्या 'झाँसी की रानी' के पोस्टर/ चित्र नहीं मिलते थे । कई बार वे कह भी देती थीं कि ‘तुम तो मेरे बिना झाँसी की रानी को देखे ही तलवार उठाए रहती हो !’

परन्तु यह पूछना सैक्रिलेज (उनकी प्रिय पवित्र भावनाओं, आस्थाओं का अपमान सा )लगता है । यह क्यों होता है कि जो प्रश्न पूछे जाने चाहिये उन्हें पूछने पर स्वयं ही दुख होता है कि क्यों पूछकर आरोप लगा रही हूँ । परन्तु यह तो सच है कि जिस घर में बेटे होते थे उन घरों में बेटियों का बचपन आमतौर पर विस्मर्णीय ही रहता था ।

घुघूती बासूती

5 comments:

  1. बहुत कुछ कहती है आप की यह पोस्ट। हर युग की हर महिला से आप कैसे उम्मीद कर सकती हैं कि वे आप की उम्मीद के अनुरूप होंगी? समाज और उस के विकास की तत्कालीन स्थितियों के अनुरुप ही उन का मूल्यांकन करना होगा। फिर भी आप की माताजी प्रगतिशील थीं। और आप के व्यक्तित्व के निर्माण में उनका योगदान भी कम नहीं रहा होगा?

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  2. हम सोच रहे हैं कि अभी ये तेवर (हाल) हैं और अगर झांसी की रानी का पोस्टर लगा होता तो ... हमारी तो सोचकर ही झुरझुरी उठ रही है। :)

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  3. बचपन से लेकर शादी से पहले तक घर में हमारी ही तूती बोलती थी............. निखालिस दादागिरी। अब सोच कर मां के लिये गर्व होता है कि वो सदा हमारे साथ थी बिना किसी भेदभाव के।

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  4. " जख़्मी हो कर वॉकर भागा , उसे गजब हैरानी थी"

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  5. आपकी चिंता जायज है। समाज में हर घर की यही कहानी है। हमारे समझ से समाज में अब जागरूकता आ रही है। फिर भी महिला अधिकारों के लिए महिलाओं को ही आगे आना होगा।

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