मैं लगभग ८ वर्ष की रही होऊँगी जब पिताजी की बदली पंजाब से मध्य प्रदेश हो गई । मुझसे बड़े भाई ११ वर्ष के । हम बच्चों की भाषा में जबर्दस्त पंजाबी का पुट था । हम सब पैदा ही पंजाब में हुए थे । हमें मध्य प्रदेश के मुरैना जिले की भाषा विचित्र लगती थी और वहाँ के लोगों को हमारी । वहाँ जाकर हमें वहाँ की आँचलिक हिन्दी भाषा सीखने में देर नहीं लगी । वहाँ की भाषा जितनी मुझे याद है कुछ ऐसी थी ...
मौढ़ी =लड़की
मौढ़ा= लड़का
ढुकरिया=वृद्धा
ढोकरा= वृद्ध
मास्साब= मास्टर जी
हल्ला करना = गुस्सा करना
बंबा= नल
अधिक सीखने को नहीं मिला क्योंकि हम वहाँ केवल तीन वर्ष रहे । परन्तु आज यदि मेरी भाषा में कुछ अच्छा है तो वह उन्हीं तीन वर्षों की देन है । वहाँ के अध्यापकों के लिए जो आदर हमारे मन में है वह बहुत कम ही देखा जा सकता है ।
खैर, आपको किस्सा सुनाती हूँ । भाई का मुझपर बहुत अधिक स्नेह था । वे मुझपर अधिकार भी बहुत अधिक जताते थे । हम सदा साथ खेलते थे । जो खेल भाई खेलें, चाहे वह कबड्डी हो, क्रिकेट हो, मारम- पीटी हो, सितौलिया (पिट्ठू) हो,हॉकी हो,मुझे साथ अवश्य लेते थे । गर्मियों में सारा दिन हम खेलते रहते । बाहर खस के परदे व टटिया लगी होतीं और घर शिमला जैसा ठंडा,परन्तु हम धूप में खेलते रहते । हम दोनों की विशेषता यह थी कि हम कभी एक दूसरे की शिकायत नहीं लगाते थे । हमें कोई अलग भी नहीं कर सकता था । भाई मुझे रुला भी देते था तो माँ के डाँटने पर मैं यही कहती थी कि यह हमारा आपसी मामला है, आप क्यों कुछ कह रहीं हैं ।
गरमियों की छुट्टियाँ आईं तो पिताजी ने भाई के लिये साइकल खरीदी । जल्दी ही भाई उसे चलाना सीख गए । अब वे चलाएँ तो मुझे तो घर छोड़ नहीं सकते थे । जब तक वे सीख रहे थे मैं उनके साथ- साथ भागती थी । सीखने पर वे मुझे पीछे बैठाने की जिद करने लगे । थोड़ा भय तो था कि अभी नया- नया सीखें हैं,परन्तु उनकी किसी भी प्रतिभा में संशय करना तो भाई- द्रोह हो जाता ! सो मैं उनके पीछे कैरियर पर बैठ गई । हम लोगों के खेलने के लिए बहुत लम्बा- चौड़ा मैदान था । एक बहुत लम्बी सीमेन्ट वाली सड़क थी । इतनी छोटी जगहों पर भीड़- भाड़ का तो प्रश्न ही नहीं उठता था । बस हम बच्चे ही होते थे वहाँ ।
भाई को चलाने में मजा आ रहा था । वे तेज और तेज चला रहे थे और मैं,उन्हें धीरे चलाने का आग्रह कर रही थी । जितना मैं आग्रह करती उतना ही तेज वे चलाते । मैं चिल्ला रही थी, 'भाई धीरे चलाओ ।' अचानक साइकल और हम दोनों गिरे । भाई ने तो अपने पैर धरती पर टिका दिये परन्तु मैं चारों खाने चित्त गिर गई । साइकल किनारे लगा भाई मुझे उठाने आए । मुझे उठाया तो मेरी दाईं हथेली खून से लथपथ थी । भाई ने उसे साफ करने की कोशिश की तो उन्हें बाहर से मेरे हाथ में घुसता कुछ सख्त महसूस हुआ । निकालने लगे तो देखा और चिल्लाए, ‘अरे बट्टा की ये तो कील है !’(अरे बेटा, यह तो कील है ! )
घर आकर माँ ने उसे निकाला । जंग लगी उस कील से कहीं शरीर में जहर ना पहुँचे इसलिए जल्दी से एक जलते कपड़े से मेरा हाथ झुलसाया । एक तो कील घुसने , फिर निकालने की पीड़ा, ऊपर से हाथ झुलसाया जा रहा था । माँ भाई को डाँटते भी जा रही थीं , परन्तु 'छोटी बहना' तब भी यह कहना नहीं भूली ,' माँ, यह हमारा आपसी मामला है ।' चोट को ठीक होने में बहुत लम्बा समय लगा और रोज मुझे हस्पताल जाकर पट्टी करवानी पड़ती थी। पर जैसे ही डॉक्टर पट्टी खोलता और मेरे रोने का समय आता, भाई धीरे से मेरे कान में कहता, ' अरे बट्टा की ये तो कील है !' और मैं मुस्करा देती ।
घुघूती बासूती
Sunday, February 17, 2008
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हमारे पिताजी की भी थोड़े थोड़े दिनों में बदली होती रही । पहले भोपाल की भाषा सीखी -ऐसे वेसे केसे केसे हो गए, ओर केसे केसे ऐसे वेसे हो गए । फिर सागर की अपनी बुंदेली सीखी, बुंदली हैं हम भी....तो काय भैजा का हो रओ है, एक देंगे कनबूजे ( कान के नीचे बजा ) वाली भाषा सीखी । पंजाबी मित्र बने तो करीब को क्रीब, तरीके को त्रीके बोलना सीखा । मलयालम मित्र बने तो एंडे मुरे नारे इच्चे सीखा । तेलुगू मित्र बने तो उनके कुछ अगड़म बगड़म सीखा । फिर छिंदवाड़ा गए तो वहां की सीधी सी हिंदी । फिर मुंबई आए तो मुन्नाभाई हो गए । ऐ भाय दिमाग का दही नहीं बनाने का । चल कल्टी मार । क्या । अपनी भाषा का इतना विस्तार हुआ है कि पूछिए मत । अभी भी हो ही रहा है ।
ReplyDeleteअरे बट्टा की, ये तो बहुत बढ़िया पोस्ट है!
ReplyDeleteगड़ना गया नहीं ना? हूं, हूं, मीठे-मीठे कील अभी भी गड़ रही है!
ReplyDeleteगजब ! त्याग , तपस्या , बलिदान :बहन-भाई के प्रेम में ऐसे ही प्रकट होता है ।
ReplyDeleteबचपन की यही खट्टी मीठी यादें हमें ताउम्र अपना एहसास कराती रहती हैं और धीरे से कहती हैं, बचपन अभी भी आस पास ही है.
ReplyDeleteधन्यवाद.
मजेदार:)
ReplyDeletebachpan aaj bhii aankhon me chamak laa deta hai....post mun bhaayi
ReplyDeleteसही संस्मरण. आनन्द आया पढ़कर.
ReplyDeleteare wah !
ReplyDeleteबचपन के घाव आज फूलों से प्यारे
लगते हैं है ना ? ये मधुरता और वीरता का संगम बड़ा भाया घुघूती जी :)
एटा इटावा,भिंड मुरैना की यही भाषा है लेकिन बडी प्यारी लगती है,
ReplyDeleteमेरे दोनों बच्चे भी ऐसे ही हैं। पर दोनों जानबूझ कर एक दूसरे कि शिकायतें और सिफारिशें भी हम से करते हैं। हम समझते कि अब शरारत हो रही है तो छोटी मोटी डाँट लगा कर छोड़ देते।
ReplyDeleteअब तो दोनों बाहर हैं। हम अकेले। आप की इस पोस्ट ने उन के बचपन की याद दिला दी।
बचपन से हम सभी शायद ही कभी जुदा हो सकते है।
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया संस्मरण।
बिता समय याद करने पर मुस्कान दौड़ जाती है.
ReplyDeleteअच्छा लगा किस्सा.
बचपन शायद कभी विस्मृत नहीं होता.
ReplyDelete- अजय यादव
http://merekavimitra.blogspot.com/
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http://intermittent-thoughts.blogspot.com/
नल को बंबा तो हमारे प्रतापगढ़ में भी बोलते हैं।
ReplyDeleteआपकी लेखन शैली इतनी सहज और सुन्दर है कि मैं मन्त्रमुग्ध हो जाती हूं. बचपन की गलियों में चक्कर लगवाने के लिये आपका धन्यवाद.
ReplyDeleteबराबर के भाई हों तो अक्सर ऐसा होता है । आपको पढ कर लगा जैसे हमारे खुद के बचपन की बात हो रही है।एक बार गुल्ली-डंडा खेलते हुये भाई के हाथ से गुल्ली सीधे हमारी आंख पर आकर लगी। हम से जोर से चिल्ला कर वो रोया कि "हाय अन्ना अब तेरी शादी कैसे होगी"। स्मृतियों की गोद में अनगिनत मोती हैं। बस इसी तरह याद दिलाते रहिये।
ReplyDeleteघुघूतीजी आज अचानक से कुछ ढूंढ़ रहा था कि आपका ये लेख खुला. मैं मुरैना का ही निवासी हूं. लेख में अपने शहर का नाम देखा तो चौंका.
ReplyDeleteआप शायद बहुत पहले कभी मुरैना में रही होंगी. मेरे दादा के जमाने में.
आजकल आप कहां हैं और क्या करती हैं
मेरा ई-मेल पता है-
bhuvnesh.ad@gmail.com
mere ghar to iska ulta hota hai meri mousi ke doo bachchhe ladten hain aur ek dusare par aarop lagaten hain.aap sachmuch bahadur thi.
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