अबकी बार खूब फूल खिले हैं
काँटेदार कैक्टस के झाड़ों में,
हो सकता है ओ प्रियतम मेरे
फूल खिलें मन की बगिया में ।
काँटों में उलझी रही जीवन भर
अब शायद कलियों फूलों से खेलूँ ,
अबके सावन में ओ साजन मेरे
हो सकता है मैं भी झूले झूलूँ ।
मन्द पवन के झोंके आकर
मन को मेरे बहला ही जाएँ,
लौट लौट यादें तेरी आकर
मन में मेरे स्वप्न जगाएँ ।
बिजली चमके बादल कड़के
जीवंत हुई सारी आकांक्षाएँ,
धरती महके, अम्बर बरसे
प्रीत की ये है अगन लगाए ।
अबकी बार खूब फूल खिले हैं
काँटेदार कैक्टस के झाड़ों में,
हो सकता है ओ निर्मोही
आ जाए तू मेरी बाँहों में ।
घुघूती बासूती
Saturday, January 26, 2008
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bahut khub sari dharati ambar ko preet ki hi aas hoti hai.
ReplyDeleteमेरे घर में उदयपुर में बहुत से केक्टस थे और भिन्न-भिन्न प्रकार से खिलते थे। मोहक।
ReplyDeleteबाकी, जिन्दगी में बहुत केक्टस हैं। उनके यदा कदा खिलने की ही प्रतीक्षा रहती है।
क्या बात है!!
ReplyDeleteकैक्टस की बात से रवि रतलामी जी की एक पोस्ट याद आ गई, आप पढ़िए और देखिए जरा यह --
कौन कहता है कि कैक्टस में सिर्फ कांटे ही कांटे होते हैं?
कैक्टस में ही फूल आ गए तो फिर प्रियतम के मन चुप रह सकता है?
ReplyDeleteघुघुती जी इस बार कैक्टस के फ़ूल जरुर खिलेगें
ReplyDeletePlentiful, thoughtful..Cactus' Spring!
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