पूरे देश में गणतंत्र दिवस मनाया गया । बहुत से लोगों ने इसे अपने टी वी पर देखा होगा । परन्तु कितने लोग ध्वाजारोहण में सम्मिलित हुए होंगे ? मैं अपने बावन वर्ष के जीवन में केवल ७ बार छोड़कर हर बार इसमें सम्मिलित हुई हूँ । ये ७ बार वे गणतंत्र दिवस थे जब मैं मुम्बई और विदेश में थी । मैं किसी अन्य से अधिक या कम देशभक्त नहीं हूँ , मुझे यह भाग्य इन ५०० या ६०० की आबादी वाली जगहों पर रहने के कारण मिला ।
इस बार भी हम इस कार्यक्रम में भाग लेने गए । सबसे पहले छोटी बच्चियों ने फूलों से हमारा स्वागत किया । फिर बच्चों द्वारा बनाई रंगोली दिखाई । स्कूल के प्रधानाचार्य हमें उस मैदान में ले गए जहाँ बच्चे पूरी तैयारी के साथ हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे । यहाँ पर मेरे पति ने ध्वाजारोहण किया । स्कूल के बच्चों व चौकीदारों की परेड देखी । फिर नर्सरी से लेकर दसवीं कक्षा के छात्रों का गाने व नृत्य का कार्यक्रम हुआ । छोटे छोटे बच्चों ने जब हाथ में झंडा पकड़ नाचा गाया तो उनका उत्साह देखते ही बना । बड़े बच्चों ने हिन्दी व अंग्रेजी में गणतंत्र दिवस का महत्व बताया । कुछ बच्चे विभिन्न पेशों के कपड़े पहन कर आए और उन्होंने अपने पेशे का परिचय दिया । फिर हाथ पकड़कर सबने कहा कि हम मिलजुल कर भारत माता की सेवा करेंगे व उसे सम्पन्न बनाएँगे । अपने बच्चों को इन कार्यक्रमों में देखना बहुत अच्छा लगता है । यहाँ तो सारे बच्चे ही अपने थे। मुख्य अतिथि याने घुघूता जी ने एक छोटा सा भाषण दिया।
स्कूल के प्रधानाचार्य ने उपस्थित लोगों का धन्यवाद किया । घुघूता जी व मैं पास के एक मैदान, जहाँ शामियाना आदि लगाकर मेला व अन्नपूर्णा रखी गई थी, को देखने चले गए । कुछ महत्वपूर्ण बदलाव आदि बताकर मैं घर की तरफ भागी । अन्नपूर्णा व कुछ खेल हमारी महिलामंडल की ही जिम्मेदारी थे ।
अन्नपूर्णा हम उस कार्यक्रम को कहते हैं जहाँ महिलाएँ अपने हाथ से बनाए खाद्य पदार्थों की बिक्री करती हैं ।
घर लौट कर आराम करने का बिल्कुल भी समय नहीं था । हम कमर कसकर रसोईघरों में लग गए । हमारा पिछला पूरा सप्ताह भागदौड़ में बीता था। हम महिलाएँ केक, दहीवड़े , समोसे, ब्रेडपकौड़े, पानीपूरी, इडली, सांबर,चटनी, गुलाबजामुन आदि बना रहीं थीं । केक, समोसे, दहीवड़े बनाने का जिम्मा हमारे मुहल्ले को मिला था । हमने केक २४ ता को बेक किये थे । २५ को उनपर आइसिंग की गई । गुजरात में अधिकतर लोग शाकाहारी होते हैं अत: ये केक बिना अंडे के थे । २६ की सुबह से एक घर में समोसे बन रहे थे ,एक में चटनी और एक में दही वड़े । शाम के ४ बजे तक सबको मेला स्थल पर पहुँच जाना था । और सबको सामान सहित पहुँचाने की भी व्यवस्था करनी थी । सारा समय फोन पर व्यवस्था करते व दौड़ते भागते बीता । महिलामंडल की समिति की दो सदस्याएँ सबके घर जाकर तैयार व्यंजनों को चख भी आईं व सुधार की आवश्यकता होने पर वह भी कर आईं ।
बाहर से कुछ मेहमान भी आये हुए थे , जिनकी मेजबानी भी हमें करनी थी । शाम को ५ बजे उन्हें लेकर मेले पहुँचे , रिबन काटकर मेले का उद्घाटन हुआ । हम मेहमानों को लेकर हर एक स्टॉल पर गये । हर चीज थोड़ी थोड़ी खाई । मेला बहुत सफल रहा. सब लोग खुश थे । यहाँ जहाँ केवल एक दुकान है, जहाँ कोई हलवाई की दुकान नहीं है, जहाँ कोई होटल रेस्टॉरेंट नहीं है , लोगों के लिए बाहर का खाना खाने का यह एक सुनहरा अवसर था । बच्चे खेलों के सटॉल्स पर मजा कर रहे थे, खाना , पीना, खेल कूद, जंगल में मंगल का वातावरण था । यही सब छोटी छोटी चीजें हैं जिस से हम इतने कम लोग अपने जीवन में कुछ बदलाव व कुछ रौनक ला सकते हैं ।
इस सबका सबसे बड़ा लाभ यह था कि मिलकर काम करने के कारण हमारे बीच एक जुड़ाव आ गया । हमारे मोहल्ले में ४ नई स्त्रियाँ मकान बदल कर आईं थीं व एक महिला के पति नये नये यहाँ नौकरी पर आये थे । मिलकर काम करने से हम सब के बीच मित्रता बढ़ गयी व नई स्त्रियाँ भी हमसे घुल मिल गयीं । वैसे ही दूसरे मोहल्ले की स्त्रियों के साथ भी सद्भाव बढ़ गया ।
देखते ही देखते नौ बज गए । एक दूसरे के स्टॉल की सफलता व व्यंजन के स्वाद की बात हुई । सबके खाली बर्तन घर पहुँचाए गए । हम लगभग साढ़े नौ बजे तक यह सब काम करते रहे ।
सो जहाँ अन्य बहुत से लोगों का गणतंत्र दिवस टी वी पर कार्यक्रम देख, सिनेमा देख या फिर एक दो घंटे के ध्वाजारोहण से समाप्त हुआ, वहीं हमारा एक सप्ताह पहले से आरम्भ होकर अभी भी चल रहा है । मेले में रूपये नहीं चलते केवल कूपन चलते हैं । सोमवार को हमने कूपन गिने । अब शनिवार को हर स्त्री को उसके द्वारा हुआ खर्चा मिल जाएगा । महिलामंडल की ओर से सभी पुरुष सहायकों व पतियों के लिए एक भोज रखा जाएगा । सो हमारा गणतंत्र दिवस अभी भी चल रहा है ।
घुघूती बासूती
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'घुघूती बासूती'भी मोहल्ला या रेडियोनामा की तरह सामूहिक चिट्ठा बन गया , क्या? एकबारगी लगा कि आपके चिट्ठे पर किसी और बेन की पोस्ट पढ़ी।
ReplyDeleteबहरहाल , गणतंत्र दिवस की शुभकामना स्वीकारें ।
हाहा ! बहुत बढ़िया टिप्पणी ! आपकी बात बिल्कुल सही है । परन्तु यह पोस्ट भी घुघूती बेन ने ही लिखी है ।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
आप खुशकिस्मत हैं- जो राष्ट्रीय पर्व को उसी जोश-खरोश से मना रहीं हैं।
ReplyDeleteअब आपके घर धावा बोलना पड़ेगा किसी दिन ..इतना सब आप बनाती है और हमको नहीं खिलाती..गल्त बात है जी..गल्त बात.
ReplyDeleteवाह! यह तो सही में आपने गण-तंत्र दिवस मनाया!!
ReplyDeleteबढ़िया!!
इत्ते सारे व्यंजन, सबके नाम नोट कल्लिए है अपन ने, मिलेंगे तो सब बनवा के खाएंगे जी। उधार रहे ;)
पूनः बधाई स्वीकारें. तो खुब भाग दौड़ रही....
ReplyDeleteसब काम निपटा कर "वन्दे मातरम" कहते हुए आराम फरमाईयेगा.
बच्चे आप को वन्दे मातररम कह रहे है..
ReplyDeleteनमस्कार घुघुती जी..
ReplyDeleteअभी मैने अपने पोस्ट पर कुछ एडिट किया है.. उस पर एक नजर डाल लें, अच्छा लगेगा.. :)
वाह जी वाह इसे कहते हैं असली गणतंत्र दिवस मनाना, काश हम भी वहां होते। सबके साथ मिल जुल कर व्यंजन बनाने का मजा ही कुछ और है
ReplyDeleteघुघूती बासूती जी
ReplyDeleteनमस्कार
मेरी चिट्ठी पर आपने बधाई के साथ एक सवाल भी दर्ज किया था.
जवाब देने में काफी देर कर दी लेकिन मेरे ब्लॉग को देखने से भी आपको इस बात का अंदाजा लग गया होगा कि मैं शौकिया ब्लॉगर हूँ. जब फुर्सत होती है या कुछ अनपच होने लगता है, तभी लिखता हूँ, अचानक से. कई बार तो नौकरी और बाकी व्यस्तताओं के कारण योजना बनाकर भी नहीं लिख पाता.
वैसे, ब्लॉग पर लिखने वालों में सबसे ज्यादा किसी से प्रभावित हुआ हूँ तो निःसंदेह वो आप हैं. यह कोई ऐसी तारीफ नहीं है जो मैं बस आपको लिखने के लिए कर रहा हूँ.
कविताएँ मेरी समझ में नहीं आती. छायावादी कविताएँ तो मुझे पागलपन से भरी बातें लगती हैं. सीधा-सादा आदमी हूँ और सीधी बात ही करता और समझता हूँ.
आप मेरी माँ से भी ज्यादा उम्र की हैं फिर भी ये कहना चाहता हूँ कि शादी और पिताजी की बीमारी वाली आपकी कहानी बहुत प्रेरक लगी और यही वजह है कि मैंने रीतेश की डायरी नाम से एक दूसरा ब्लॉग बनाया है. इस पर आपकी नकल करना है. कोशिश रहेगी कि आपकी तरह ही ईमानदार रहकर लिख सकूँ.
आपने सवाल किया कि बिहार के लोग बिहार में कुछ कर नहीं पाते लेकिन बाहर वही लोग अच्छा करते हैं... आखिर क्यों...?
आपके सवाल में ही मेरा जवाब छुपा है.
कुछ करने का दायरा तो पहले ही बिहार में सीमित है.
मसलन, खेतीबाड़ी के अलावा कुछ छोटे-मोटे कारखाने हैं.
जो खान-खनिज था, विभाजन के साथ पड़ोसी प्रांत में चला गया. इसलिए इस राज्य में न तो लक्ष्मी नारायण मित्तल की दिलचस्पी है और न ही रतन टाटा की.
बाकी बची सरकारी नौकरी. लंबे समय तक तो नौकरी देने की कोशिश भी नहीं की गई. हाल में नीतीश कुमार ने कम खर्च में काम कराने की कॉरपोरेट संस्कृति से नाता जोड़ा है. पांच से छह हजार में बड़ी संख्या में लोगों को शिक्षक बनाया गया है.
मध्य, प्राथमिक और उच्च विद्यालय में पढ़ाने वाले ये लोग उन शिक्षकों की जगह पर रखे गए हैं जो पद 15-20 हजार की पगार पाने वाले गुरुजी के रिटायर होने के बाद से खाली चल रहे थे.
केंद्र सरकार ने भी बेरोजगारों के गुस्से का गुबार निकालने के लिए सर्व शिक्षा अभियान चला रखा है. कम पैसे पर शिक्षक रखे जा रहे हैं. जो इससे समझौता नहीं कर सकते, वे डीएवी या दूसरे निजी स्कूलों में पढ़ाने के लिए बिहार छोड़ देते हैं.
जितने पैसे में दिल्ली में एक आदमी नहीं चल सकता, बिहार में परिवार चलाया जा रहा है.
पटना, मुजफ्फरपुर, गया, भागलपुर जैसे बड़े शहरों में कुछ निजी कंपनियों के छिटपुट कारोबार हैं. निजी नौकरी का बड़ा हिस्सा इन शहरों में ही है.
यह भी बताना भी चाहता हूँ कि बिहार के लोग सिर्फ दिल्ली, पंजाब, हरियाणा या महाराष्ट्र ही नहीं जाते हैं. बिहार के अंदर भी बेगूसराय, खगड़िया, समस्तीपुर, लखीसराय जैसे जिलों से हजारों लोग पटना का रुख करते हैं.
बिहार से निकलने वाले लोगों में बड़ी संख्या तो निर्माण और खेती में मजदूरी करने वाले लोगों की है. सरकार उनके लिए रोजगार की गारंटी नहीं कर पाती. खेती में घाटा-दर-घाटा से उब चुके किसानों के लिए मजदूर रखना, घाटे को बढ़ाने जैसा होता जा रहा है. विज्ञान ने खेतिहर मजदूरों की जरूरत को अलग से खत्म किया है.
कोई घर छोड़ने के वक्त ये नहीं देखता कि वो दिल्ली जा रहा है या पटना. वो बस ये देखता है कि उसे कुछ काम मिलेगा कि नहीं. वह यह देखता है कि उस काम के बदले में जो पैसा मिलेगा, उससे वह घर-परिवार की न्यूनतम जरूरतों को पूरा कर सकेगा कि नहीं.
मेरी ही बात लीजिए न.
वहां दैनिक जागरण में काम करता था. छोड़ने तक नियुक्ति पत्र नहीं मिली. पाँच साल से ज्यादा नौकरी की तरह काम करने के बावजूद जब दिल्ली आ रहा था तो पगार पाँच हजार से कुछ कम थी. शुरुआत तेरह सौ से की थी. आज दिल्ली में तकरीबन 20 हजार से ऊपर कमा लेता हूँ.
बिहार में एक तो तीन-चार अखबार हैं. ऊपर से जमे हुए पानी की तरह जमे लोग हैं. बाजार भी जम गया है. नए लोग क्या करें, कहाँ करें. ऐसे में पत्रकारिता करनी थी और पेशे की तरह करनी थी तो दिल्ली आने के अलावा और कोई उपाय भी तो नहीं था.
वहाँ रहता तो पत्रकारिता ही छूट गई होती. समय के साथ जब जिम्मेदारी बढ़ती है तो शौकिया काम अपने-आप कमता चला जाता है. फिर तो वही काम भाता-सुहाता है जो खुद के अलावा निर्भर लोगों की आकांक्षा को पूरा कर सके.
अब देखिए न, उत्तर प्रदेश और उत्तरांचल के भी बहुत सारे लोग दिल्ली में पत्रकारिता करते हैं. इसलिए ऐसा नहीं है कि बिहार के लोग ही बाहर नौकरी करते हैं और जब बाहर जाते हैं, तभी अच्छा करते हैं.
आदमी अपने आपको बहुत ज्यादा नहीं बदल सकता और काम भी. जब किसी को करने लायक काम ही बिहार से बाहर मिले तो स्वाभाविक है कि वह आदमी नतीजा भी अपने प्रांत से बाहर ही देगा.
कल को पटना से 15-20 अखबार निकलने लगें, 5-10 चैनल शुरू हो जाएँ, कॉल सेंटर खुल जाएँ, ऑनलाइन पोर्टलों की कतार लग जाए तो कोई क्यों अपने घर से एक हजार किलोमीटर दूर दिल्ली में काम करने जाएगा.
फिर तो मैं भी अपने कई दोस्तों के साथ जय बिहार कहकर पटना के लिए संपूर्ण क्रांति एक्सप्रेस या भागलपुर के लिए विक्रमशिला एक्सप्रेस पकड़ लूँगा.
लेकिन ब्लॉगिंग नहीं छूटेगी. क्योंकि ये जो कीड़ा है और ऐसी जितनी भी बीमारियां अंदर मैं बसी हैं, वो इस कारण नहीं चली जातीं कि पांव दिल्ली में है या दरभंगा में…
अगर आप कभी बिहार गईं हों तो आपके ब्लॉग पर उस अनुभव के बारे में कुछ पढ़ने की इच्छा है.
धन्यवाद
रीतेश
घुघूती जी
ReplyDeleteनमस्कार
चूँकि ऊपर वाली टिप्पणी मैंने आपको पत्र के रूप में लिखी है इसलिए अगर आपकी अनुमति हो तो मैं इसे ब्लॉग अपने ब्लॉग पर डाल लूँ.
riteshiimc@gmail.com
अवश्य रीतेश !
ReplyDeleteक्या आपने मेरी अपने विवाह वाली श्रृखंला पढ़ी है ? उसमें मैं बिहार के अपने अनुभवों पर बस में आने ही वाली हूँ । जीवन के बहुत सुहाने कुछ वर्ष वहाँ बिताएँ हैं ।
घुघूती बासूती
अवश्य रीतेश !
ReplyDeleteक्या आपने मेरी अपने विवाह वाली श्रृखंला पढ़ी है ? उसमें मैं बिहार के अपने अनुभवों पर बस मैं* आने ही वाली हूँ । जीवन के बहुत सुहाने कुछ वर्ष वहाँ बिताएँ हैं ।
घुघूती बासूती
जी मैंने पढ़ी है. बहुत खूबसूरत है. शादी के अहसास की तरह.
ReplyDeleteअब आप बिहार के अनुभव पढ़ाईए, उसका बेसब्र इंतजार रहेगा.
मैंने एक बार आग्रह किया था कि आप अपने ब्लॉग पर सब्सक्रिप्शन की सुविधा क्यों नहीं दे देतीं.
इससे हमें आसानी होगी यह जानने में कि आपने कुछ नया लिखा है.