Friday, January 25, 2008

तेरे ही डर से

अपने पर विश्वास नहीं था
कि मिल ना लूँ कहीं तुझसे
जीवन की किन्हीं गलियों में
सो नाम पता सब खो आई ,
सुन ना लूँ आवाज तुम्हारी ,
सो बन्द हथेली में मैं तेरा
कच्ची स्याही से ही लिखकर
फोन का नम्बर ले आई ।


अब धुले अंकों को पढ़ने का
प्रयास ये मेरा हास्यास्पद है
इतना, कि खुद पर हँस हँस
है आँख मेरी अब भर आई,
तेरी हर बात मन के अपने
किसी अनजान से कोने में
पड़ी तिजोरी के भीतर रख
जानबूझ चाभी मैं खो आई ।


तेरी छाया से डर इतना था
पकड़ ना ले मेरी छाया को
कि हाथ छुड़ा जा अन्धेरों में
मैं अपनी छाया भी खो आई ,
निज अन्तः के तूफान से डर
तुझसे बचती और छिपती मैं
इस सन्नाटों के मरघट में
कितनी दूर हूँ निकल आई ।


रंग ना लूँ कहीं मैं भी अपने
तन मन को तेरे ही रंग में
इस डर से मैं खुद ही जाकर
कालिमा बादल की ले आई,
कहीं रात में दिख ना जाऊँ
इस भय से घबराई इतना
छिटक चाँदनी की बाँहों से
रिश्ता अमावस से कर आई ।


घुघूती बासूती

12 comments:

  1. कहीं रात में दिख ना जाऊँ
    इस भय से घबराई इतना
    छिटक चाँदनी की बाँहों से
    रिश्ता अमावस से कर आई ।

    क्या बात कही है, वाह

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  2. और

    अमावस्या से ,
    उजली सी कविता रोशनाई :)

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  3. भावपूर्ण ....

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  4. कोई शब्द नहीं मेरे पास कहने को..

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  5. छिटक चाँदनी की बाँहों से
    रिश्ता अमावस से कर आई

    सच डर है ...जो जो न करवा दे.

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  6. Excellent job done.
    I am amazed and also grateful to you for your effort.

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  7. अति सुन्दर...वाह..
    नीरज

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  8. टाईम मशीन मिलेगी कहीं? आपकी कविताएं पढ़ पढ़ के तो मै आपका क्लासमेट होना चाहता हूं पिछले समय मे जाकर ;)

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  9. बहुत सुंदर और बहुत प्रभवशाली।

    वर्तमान के फैसले भविष्य में कैसे सता सकते हैं यह तो भूत बनने पर ही पता चल सकता है.....जब हाथ में कुछ भी ना रह जाये।

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  10. कहीं रात में दिख ना जाऊँ
    इस भय से घबराई इतना
    छिटक चाँदनी की बाँहों से
    रिश्ता अमावस से कर आई
    बहुत सुन्दर आपने तो संस्कृत साहित्य की नायिका मिलन सा दृश्य और प्रभाव पैदा कर दिया।

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  11. "तेरी हर बात मन के अपने
    किसी अनजान से कोने में
    पड़ी तिजोरी के भीतर रख
    जानबूझ चाभी मैं खो आई ।"

    कभी कभी यूं भी करना पड़ता है……सुंदर अभिव्यक्ति

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  12. वाह घुघुती जी बहुत ही भावपूर्ण कविता

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