अपने पर विश्वास नहीं था
कि मिल ना लूँ कहीं तुझसे
जीवन की किन्हीं गलियों में
सो नाम पता सब खो आई ,
सुन ना लूँ आवाज तुम्हारी ,
सो बन्द हथेली में मैं तेरा
कच्ची स्याही से ही लिखकर
फोन का नम्बर ले आई ।
अब धुले अंकों को पढ़ने का
प्रयास ये मेरा हास्यास्पद है
इतना, कि खुद पर हँस हँस
है आँख मेरी अब भर आई,
तेरी हर बात मन के अपने
किसी अनजान से कोने में
पड़ी तिजोरी के भीतर रख
जानबूझ चाभी मैं खो आई ।
तेरी छाया से डर इतना था
पकड़ ना ले मेरी छाया को
कि हाथ छुड़ा जा अन्धेरों में
मैं अपनी छाया भी खो आई ,
निज अन्तः के तूफान से डर
तुझसे बचती और छिपती मैं
इस सन्नाटों के मरघट में
कितनी दूर हूँ निकल आई ।
रंग ना लूँ कहीं मैं भी अपने
तन मन को तेरे ही रंग में
इस डर से मैं खुद ही जाकर
कालिमा बादल की ले आई,
कहीं रात में दिख ना जाऊँ
इस भय से घबराई इतना
छिटक चाँदनी की बाँहों से
रिश्ता अमावस से कर आई ।
घुघूती बासूती
Friday, January 25, 2008
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कहीं रात में दिख ना जाऊँ
ReplyDeleteइस भय से घबराई इतना
छिटक चाँदनी की बाँहों से
रिश्ता अमावस से कर आई ।
क्या बात कही है, वाह
और
ReplyDeleteअमावस्या से ,
उजली सी कविता रोशनाई :)
भावपूर्ण ....
ReplyDeleteकोई शब्द नहीं मेरे पास कहने को..
ReplyDeleteछिटक चाँदनी की बाँहों से
ReplyDeleteरिश्ता अमावस से कर आई
सच डर है ...जो जो न करवा दे.
Excellent job done.
ReplyDeleteI am amazed and also grateful to you for your effort.
अति सुन्दर...वाह..
ReplyDeleteनीरज
टाईम मशीन मिलेगी कहीं? आपकी कविताएं पढ़ पढ़ के तो मै आपका क्लासमेट होना चाहता हूं पिछले समय मे जाकर ;)
ReplyDeleteबहुत सुंदर और बहुत प्रभवशाली।
ReplyDeleteवर्तमान के फैसले भविष्य में कैसे सता सकते हैं यह तो भूत बनने पर ही पता चल सकता है.....जब हाथ में कुछ भी ना रह जाये।
कहीं रात में दिख ना जाऊँ
ReplyDeleteइस भय से घबराई इतना
छिटक चाँदनी की बाँहों से
रिश्ता अमावस से कर आई
बहुत सुन्दर आपने तो संस्कृत साहित्य की नायिका मिलन सा दृश्य और प्रभाव पैदा कर दिया।
"तेरी हर बात मन के अपने
ReplyDeleteकिसी अनजान से कोने में
पड़ी तिजोरी के भीतर रख
जानबूझ चाभी मैं खो आई ।"
कभी कभी यूं भी करना पड़ता है……सुंदर अभिव्यक्ति
वाह घुघुती जी बहुत ही भावपूर्ण कविता
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