सबसे पहले तो आप सबको स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएँ !
ब्लॉगवाणी में अपना ब्लॉग देखकर मैं धर्मसंकट में पड़ जाती हूँ । वहाँ एक काउंटर है जो बताता है कि कितने लोगों ने आपका चिट्ठा पसन्द किया है । जब कोई और इस काउंटर को आगे नहीं सरकाता तो समस्या गम्भीर हो जाती है । अब क्या किया जाए ? स्वयं अपने काउंटर को आगे बढ़ाने का अर्थ है कि मुझे अपना लेख या कविता पसन्द है ? यदि यह ना कहें तो इसका अर्थ है कि मुझे अपना लिखा स्वयं पसन्द नहीं है ।यदि ऐसा है तो मैं औरों से इसे पढ़ने की आशा क्यों करती हूँ ? कम से कम संसार के एक व्यक्ति यानि लेखक या कवि को तो अपनी रचना पसन्द होनी ही चाहिये । यदि ऐसा नहीं है तो वह लिखता ही क्यों है ?
फिर भी मैं देखती हूँ कि बहुत से लेखक वहाँ शून्य को ही रहने देते हैं ।
क्या अपने काउंटर को स्वयं आगे बढ़ाने वाले और न बढ़ाने वाले कुछ अलग प्रकार के प्राणी हैं ?
कई बार लगता है कि मैं सबसे पहला काम सब शून्यों को १ बनाने का ही करूँ । आपकी राय क्या है ? क्या मुझे यह काम दूसरों के बलॉग में करना चाहिये ? या अपने में करना चाहिये?
कुछ अनिर्णय की स्थिति में ,
घुघूती बासूती
१५.०८.२००७
Wednesday, August 15, 2007
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घुघूति जी, कोई धर्म संकट नहीँ। दो कारण हैं इसके, मेरी राय में। पहला तो यह कि यह आवश्यक नहीं कि किसी ने कोई आलेख लिखा हो और वह स्वयं चिट्ठाकार को पसंद भी हो। इसलिये भी कोई लिख सकता है कि इसके लेखन, और चिट्ठाकरण मात्र से उसे संतोष और आनंद मिलता हो, न कि लेख के वास्तविक मसौदे से - वह उसे मात्र निरपेक्ष भाव से भी लिख सकता है। दूसरा यह कि अन्य कोई पढ़े, इसलिये भी चिट्ठाकर लिखे, या अनिवार्य रूप से यह अपेक्षा करे कि कोई उसे अवश्य ही पढ़े यह भी आवश्यक नहीँ। कोई स्वांत: सुखाय भी लिख सकता है।
ReplyDeleteतो आप बस स्वाभाविक रूप से चलने दें इनको। मेरी निगाह में यह कोई समस्या नहीँ।
घुघूती जी
ReplyDeleteआपको भी स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक बधाई, शुभकामनायें एवं अभिनन्दन.
कभी पढ़ता था निज सम्मान के विषय में. निज सम्मान का विज्ञान बहुत सरल लगा था, न कोई विवाद और न ही कोई जटिलता. आज आपको चिन्तन में डुबा देख उसी विज्ञान का ख्याल सहसा हो आया. मुझे लगता है कि आईंदा बाद जब भी आप पोस्ट लिखें, तब पब्लिश का बटन दबाने के बाद ब्लॉगवाणी पर पहली पसंद भी दर्ज कर आवें. यहाँ भी सतर्कता की आवश्यक्ता है कि लिंक पर भी जरुर चटका लगा लेवें. कहीं ऐसा न हो जाये कि पढ़ा शून्य ने और पसंद किया १ ने. ऐसा मैने देखा है इसलिये अनुभव के आधार पर चेता कर अपने महान होने के कर्तव्य की पूर्ति कर रहा हूँ.
अभी भी आपका कार्य पूरा नहीं हुआ है. नारद पर भी अपना हिट काउन्टर कम से कम एक पर लाकर ही अन्य कार्य शुरु करें.
पहले करके देख लो, अपना निज सम्मान
तभी मिलेगा आपको, इस जग में भी मान.
यह स्वामी समीरानन्द की सुक्ति सांसदों और विधायकों की आचार संहिता के प्रथम पृष्ठ पर स्वर्णाक्षरों में दर्ज है, तभी तो वो घर से ही तिलक लगा कर और माला पहन कर निकलते हैं, आपने देखा होगा.
आप तो स्वयं विवेकी है. कम कहा है, ज्यादा समझियेगा और उड़न तश्तरी पर भी पसंदीदा का चिटका लगा दिजियेगा.
आभार, आपने इतने ध्यान से सुना और प्रवचन को आत्मसात करने का प्रण लिया.
चिंता वाज़िब है आपकी!!
ReplyDeleteअब जब गुरु ने ही आपको उपाय बता दिया है तो ये चेला क्या कहे अब!!
आपको भी स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनायें।
ReplyDeleteसमीर जी अपनी बात इतनी अच्छी तरीके से कहते हैं कि उस पर असहमति जताना मुश्किल होता है पर फिर भी ..
अभिव्यक्ति अपने लिये, अपनी पसंद पर होती है। लिखा उस पर जात है जो आपको पसन्द हो - अच्छा लगता है कि कोई और पसन्द करे पर यदि कोई पसन्द नहीं करता है तो कोई बात नहीं।
मेरे विचार से किसी भी एग्रेगेटर पर जाकर अपनी या किसी की भी प्रविष्टियां देखना ठीक नहीं। RSS फीड लीजिये और कंप्यूटर पर प्रविष्टियां प्राप्त कीजिये।
अपनी प्रविष्टियों पर पसन्द का या फिर देखने के लिये चटका लगाना ठीक नहीं। यह अपने मियां मिट्ठू बनने के समान है।
सबसे पहले तो स्वतंत्रता दिवस की बहुत-बहुत बधाई !!
ReplyDeleteपर क्या इस सबसे कोई फर्क पड़ता है ?
उन्मुक्त जी के इसी शर्मीलेपन पर तो हम रीझ जाते हैं. :)
ReplyDeleteबहुत से लेखकों की इसी तरह की समस्या नारद में भी थी जब वह अकेला एग्रीगेटर था. इसी समस्या के चलते उसका काउंटर छिपा दिया गया था.
ReplyDeleteब्लॉगवाणी में भी इसे छिपाया ही जाना चाहिए.
यकीन मानिए, किसी भी रचना की उत्तमता से उसके पाठकों की संख्या से कोई लेना देना नहीं होता. नहीं तो जादूमंतर पर ऊटपटांग लिखा हैरीपुत्र सर्वोत्कृष्ट रचना मान लिया जाता :)
स्वतंत्रता दिवस की बधाई
ReplyDeleteक्या इस सबसे कोई फर्क पड़ता है ?
haan sameer ji nae jo kahaa hae mae bhi kar kae dekh chukii hun
स्वतन्त्रता दिवस की शुभकामनायें।
ReplyDeleteआप जागरूक ब्लॉगर हैं. मैं शुरु सॆ आपकॊ पढ़ता रहा हूं, क्यॊंकि पढना चाहता हूं. आप लिखिए क्योंकि आप लिखना चाहती हैं. शेष माया है.
ReplyDeleteare aap ko Bi cintaa hai...:)
ReplyDeleteमैने तो यही जाना है जीवन सार
ReplyDeleteदूर रहे प्रशंसा का कारोबार
जो है सच्चा मुरीद वह मौन रह मुसकाता
ये अलग बात है हमें पता नहीं पड़ पाता
शब्द वैभव भी तो एक तरह की माया
आज तक इसका मर्म कौन जान है पाया
प्रेमचंद,निराला,दिनकर,महादेवी थी जग जग की वाणी
तब कहाँ थे एग्रीगेटेर जो बताते कितना किया पसंद
वे तो लिखते रहे..लिखते गए स्वच्छंद
पसंद ना पसंद का छोड़ कर जंजाल
समय अपने आप लिखेगा यश गाथा समय के भाल
घुघूती जी,हमें मान-सम्मान की चिंता किये बिना ही अपने लेखन को आगे बढाना हॆ.सुधी पाठक अच्छी रचना को अवश्य पसंद करते हॆ.
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