Saturday, August 18, 2007

तुम पूछते हो

तुम पूछते हो , कि मैं क्यों नहीं विचलित होती
जब मुझे कुछ करने से स्वयं को रोकना पड़ता है
जब मुझे स्वयं अपने पर लगाम लगानी पड़ती है
जब मैं कहती हूँ पल पल नहीं संभव यह या वह
तुम कहते हो मैं तो बहुत परेशान हो जाता हूँ जब
अपने मन जी ना सकूँ मैं, निर्णय ना ले सकूँ जब
तुम भूल जाते हो, मुझमें और तुममें है यह अन्तर
तुम युगों युगों से रहे हो अपने तन मन के मालिक
मैं युगों से जीती आई हूँ पहन अपने ही ये बन्धन
आज तुम और मैं ,मैं और तुम बिल्कुल हैं बराबर
किन्तु बेड़ियों के चिन्ह यूँ ही तो ना मिट जाएँगे
इतने गहरे पड़े हैं हृदय में ये चिन्ह कि मीत मेरे
तुझे भी मुझ संग लग इनको रगड़ छुटाना होगा
यदि चाह है तुझे इक बराबर के मुक्त साथी की
तो कानूनों से बाहर निकल लगा प्रहार बेड़ी पर
ला अपने व अपने इस समाज में कुछ परिवर्तन
उड़ने दे मुझे भी अपने सी मुक्त असीम गगन में
ना काट पर मेरे, खींच मत अदृष्य ये लक्ष्मण रेखा
फिर देख जीवन कैसे खिलखिलाता व मुस्कराता है
देख कैसे बिन बाँध नदिया मतवाली बन बहती है
ऐसा संगीत गूँजेगा कि जड़ सब चेतन हो जाएगी
तब देखना प्रकृति कैसे हँस तुझसे मिलने आएगी ।
घुघूती बासूती
१७.८.२००७

13 comments:

  1. घुघूती जी
    बहुत बढ़िया लिखा है..और एकदम सच..आपका लिखने का अन्दाज निराला है..दाद कबूल कीजिए

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  2. ह्म्म, सरल शब्दों ही बड़ी बात कह देना आपकी कला है!!

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  3. अच्छा है, हमेशा की तरह.

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  4. बहुत गहरा-बेहतरीन. जारी रहें.

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  5. अच्‍छा लिखा है।

    एक ब्‍लागर मीट में एक गैर ब्‍लागर से आपके बारें चर्चा सुनी थी। गैर ब्‍लागर में भी चर्चित होना निश्चित रूप से सम्‍मान की बात है बधाई

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  6. हमेशा की तरह बहुत अच्छी और सोचने को मजबूर करती हुई आपकी रचना।

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  7. फिर देख जीवन कैसे खिलखिलाता व मुस्कराता है
    देख कैसे बिन बाँध नदिया मतवाली बन बहती है
    ऐसा संगीत गूँजेगा कि जड़ सब चेतन हो जाएगी
    तब देखना प्रकृति कैसे हँस तुझसे मिलने आएगी ।

    बहुत अच्छी कविता और ये लाईने खास तौर पर

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  8. वाह, आमीन.

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  9. उड़ने दे मुझे भी अपने सी मुक्त असीम गगन में
    ना काट पर मेरे, खींच मत अदृष्य ये लक्ष्मण रेखा
    फिर देख जीवन कैसे खिलखिलाता व मुस्कराता है
    देख कैसे बिन बाँध नदिया मतवाली बन बहती है

    बहुत अच्छी कविता है बहुत ही सुंदर लिखा है आपने घुघूती जी दिल को छू गयी यह पंक्तियाँ:)

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  10. बहुत बढिया और बेहतरीन रचना है।


    उड़ने दे मुझे भी अपने सी मुक्त असीम गगन में
    ना काट पर मेरे, खींच मत अदृष्य ये लक्ष्मण रेखा
    फिर देख जीवन कैसे खिलखिलाता व मुस्कराता है
    देख कैसे बिन बाँध नदिया मतवाली बन बहती है

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  11. आपकी कविताएँ वाकई बहुत अच्छी हैं, जो कविताएँ हृदय से लिखीं जातीं हैं
    वही हृदयस्पर्शी होती हैं
    दीपक भारतदीप

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  12. what can i say but u have written really well
    &
    sorry for this non hindi comment

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  13. तुम भूल जाते हो, मुझमें और तुममें है यह अन्तर
    तुम युगों युगों से रहे हो अपने तन मन के मालिक
    मैं युगों से जीती आई हूँ पहन अपने ही ये बन्धन
    आज तुम और मैं ,मैं और तुम बिल्कुल हैं बराबर
    किन्तु बेड़ियों के चिन्ह यूँ ही तो ना मिट जाएँगे

    क्या कहूँ ! सत्य ! कठोर सत्य !

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