तुम पूछते हो , कि मैं क्यों नहीं विचलित होती
जब मुझे कुछ करने से स्वयं को रोकना पड़ता है
जब मुझे स्वयं अपने पर लगाम लगानी पड़ती है
जब मैं कहती हूँ पल पल नहीं संभव यह या वह
तुम कहते हो मैं तो बहुत परेशान हो जाता हूँ जब
अपने मन जी ना सकूँ मैं, निर्णय ना ले सकूँ जब
तुम भूल जाते हो, मुझमें और तुममें है यह अन्तर
तुम युगों युगों से रहे हो अपने तन मन के मालिक
मैं युगों से जीती आई हूँ पहन अपने ही ये बन्धन
आज तुम और मैं ,मैं और तुम बिल्कुल हैं बराबर
किन्तु बेड़ियों के चिन्ह यूँ ही तो ना मिट जाएँगे
इतने गहरे पड़े हैं हृदय में ये चिन्ह कि मीत मेरे
तुझे भी मुझ संग लग इनको रगड़ छुटाना होगा
यदि चाह है तुझे इक बराबर के मुक्त साथी की
तो कानूनों से बाहर निकल लगा प्रहार बेड़ी पर
ला अपने व अपने इस समाज में कुछ परिवर्तन
उड़ने दे मुझे भी अपने सी मुक्त असीम गगन में
ना काट पर मेरे, खींच मत अदृष्य ये लक्ष्मण रेखा
फिर देख जीवन कैसे खिलखिलाता व मुस्कराता है
देख कैसे बिन बाँध नदिया मतवाली बन बहती है
ऐसा संगीत गूँजेगा कि जड़ सब चेतन हो जाएगी
तब देखना प्रकृति कैसे हँस तुझसे मिलने आएगी ।
घुघूती बासूती
१७.८.२००७
Saturday, August 18, 2007
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घुघूती जी
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लिखा है..और एकदम सच..आपका लिखने का अन्दाज निराला है..दाद कबूल कीजिए
ह्म्म, सरल शब्दों ही बड़ी बात कह देना आपकी कला है!!
ReplyDeleteअच्छा है, हमेशा की तरह.
ReplyDeleteबहुत गहरा-बेहतरीन. जारी रहें.
ReplyDeleteअच्छा लिखा है।
ReplyDeleteएक ब्लागर मीट में एक गैर ब्लागर से आपके बारें चर्चा सुनी थी। गैर ब्लागर में भी चर्चित होना निश्चित रूप से सम्मान की बात है बधाई
हमेशा की तरह बहुत अच्छी और सोचने को मजबूर करती हुई आपकी रचना।
ReplyDeleteफिर देख जीवन कैसे खिलखिलाता व मुस्कराता है
ReplyDeleteदेख कैसे बिन बाँध नदिया मतवाली बन बहती है
ऐसा संगीत गूँजेगा कि जड़ सब चेतन हो जाएगी
तब देखना प्रकृति कैसे हँस तुझसे मिलने आएगी ।
बहुत अच्छी कविता और ये लाईने खास तौर पर
वाह, आमीन.
ReplyDeleteउड़ने दे मुझे भी अपने सी मुक्त असीम गगन में
ReplyDeleteना काट पर मेरे, खींच मत अदृष्य ये लक्ष्मण रेखा
फिर देख जीवन कैसे खिलखिलाता व मुस्कराता है
देख कैसे बिन बाँध नदिया मतवाली बन बहती है
बहुत अच्छी कविता है बहुत ही सुंदर लिखा है आपने घुघूती जी दिल को छू गयी यह पंक्तियाँ:)
बहुत बढिया और बेहतरीन रचना है।
ReplyDeleteउड़ने दे मुझे भी अपने सी मुक्त असीम गगन में
ना काट पर मेरे, खींच मत अदृष्य ये लक्ष्मण रेखा
फिर देख जीवन कैसे खिलखिलाता व मुस्कराता है
देख कैसे बिन बाँध नदिया मतवाली बन बहती है
आपकी कविताएँ वाकई बहुत अच्छी हैं, जो कविताएँ हृदय से लिखीं जातीं हैं
ReplyDeleteवही हृदयस्पर्शी होती हैं
दीपक भारतदीप
what can i say but u have written really well
ReplyDelete&
sorry for this non hindi comment
तुम भूल जाते हो, मुझमें और तुममें है यह अन्तर
ReplyDeleteतुम युगों युगों से रहे हो अपने तन मन के मालिक
मैं युगों से जीती आई हूँ पहन अपने ही ये बन्धन
आज तुम और मैं ,मैं और तुम बिल्कुल हैं बराबर
किन्तु बेड़ियों के चिन्ह यूँ ही तो ना मिट जाएँगे
क्या कहूँ ! सत्य ! कठोर सत्य !