यह बात हम हर समय देखते हैं। सबसे अधिक तब जब व्यक्ति को चोट लगे, बहुत पीड़ा हो। हमारे बचपन में हम ऐसे में हे राम, उई माँ, कुमाँऊनी में ओ इजा (माँ), ओ बौज्यू (पिता) सुनते थे। आजकल शिट, फ़... सुनते हैं।
स्कूली दिनों में एक बार बहुत कष्ट में हस्पताल के एमर्जेंसी वार्ड में रहना पड़ा था। एक व्यक्ति भद्दी गालियाँ दे रहा था, चीख चीख कर। सारा कमरा उसकी गालियों से गूँजायमान रहता था। एक बार उसने एक डॉक्टर को झन्नाटेदार थप्पड़ भी मारा जो सबको सुनाई दिया। मैंने डॉक्टर से इस विषय में पूछा तो उसने कहा कि वह एक सड़क दुर्घटना में घायल है। बचने की आशा नहीं है। बहुत दर्द है, इसलिए ऐसा कर रहा है। यह सामान्य है।
परिवार में मैंने तब तक कभी अपशब्द नहीं सुने थे। किन्तु मस्तिष्क में बैठ गया कि अति कष्ट में अपशब्द निकलना सामान्य है। एक भय भी कि कभी मैं भी ऐसा करूँगी।
तीन चार साल बाद पिताजी को स्ट्रेन्ग्युलेटेड हर्निया में दर्द से तड़पते हुए देखा, उन्हें रिक्शे में लाद हस्पताल ले गई। दर्द असह्य होने पर वे रिक्शे से उतर जमीन पर लेट तड़पने लगे। मृत्यु भूमि पर आए शायद और भूमि पर तड़पन अधिक सुविधाजनक था। मुझे भय था कि अब गालियाँ बरसेंगी किन्तु वे हे राम और ओ इजा, ओ बौज्यू ही कहते रहे। जब तक डॉक्टर ने हर्निया को ठीक नहीं किया वे राम और माता पिता को ही गुहार लगाते रहे।
जब बेटियों का जन्म होना था तो मुझे फिर भय था कि प्रसव पीड़ा में कहीं मुँह से गालियाँ ना बरसें। किन्तु ऐसा नहीं हुआ।
फिर कितने ही औपरेशन हुए, हर्निया हुआ, हर बार होश में आने पर पति से यही पूछा कि मैं बेहोशी में क्या बड़बड़ा रही थी। अपशब्द कभी नहीं थे।
पिताजी ने पूरी शक्ति से हे राम कहकर प्राण त्यागे।
सो कष्ट और अपशब्दों का सम्बन्ध हमारे भीतर क्या है से है ना कि पीड़ा से।
किन्तु अब बाहर, घर परिवार सब जगह ये ही शब्द सुनाई देते हैं। कोई इसे बुरा नहीं समझता, यदि समझता होता तो इसका इलाज करता। इलाज बहुत कठिन नहीं है। जिन शब्दों को हम बोल रहे हैं उनको कल्पना में देखो, सूँघो महसूस करो। शायद बोलने का मन ना करे।
राम या भगवान की जगह नास्तिक कुछ अन्य शब्द बोल सकते हैं, माँ, पिता, गुलाब, कमल, कार्ल मार्क्स, माओ, अमेरिका, चीन या कुछ भी। वे सब शिट और फ़... से तो बेहतर ही होंगे अपने भीतर संजोने को।
घुघूती बासूती
संस्कार जो मिलते है वही निकलते है।
ReplyDeleteमेरे बाबा मृत्यु शैया पर थे पापा से बोले गीता का 18 वाँ अध्याय पढ़ कर सुनाओ अस्पताल मर गीता मंगाई गई और आखिरी श्लोक के बाद उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए
सही कह रहे हैं. हम जीवन भर जो रहे मृत्यु के समय भी वही रहेंगे, बदलेंगे थोड़े ही. बाबा को नमन.
Deleteघुघूती बासूती
सही कहा जो भीतर होगा वही तो बाहर निकलेगा
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर लेख।
आभार.
Deleteघुघूती बासूती
बहुत सटीक। मेरा बस चले तो मैं इसे क्राइम की श्रेणी में डाल कर जेल का प्रावधान कर दूं।
ReplyDelete:) कितना अच्छा होता न!
Deleteघुघूती बासूती
बहुत सटीक। मेरा बस चले तो मैं इसे क्राइम की श्रेणी में डाल कर जेल का प्रावधान कर दूं।
ReplyDeleteसटीक प्रस्तुति
ReplyDeleteआभार.
ReplyDeleteघुघूती बासूती