कुछ मैंने की, कुछ तूने की
कुछ मिलकर हम दोनों ने की
इक सपने की हमने हत्या की ।
समझौतों का ये जीवन जीया
मिलकर गरल कुछ हमने पीया
जो करना था वह हमने न किया ।
थोड़ी तूने, थोड़ी मैंने ये दूरी बनाई
मिलकर हमने थी जो सेज सजाई
उसके बीचों बीच ये दीवार बनाई ।
कुछ तू ना समझा कुछ मैं न समझी
बातों बातों में कब जिन्दगी ही उलझी
मिल हमें जो सुलझानी थी ना सुलझी ।
अपनी अलग अलग राहें चुन लीं
मन की हमने ना बातें सुन लीं
अंधेरी हमने अपनी राहें कर लीं ।
कुछ तू आता कुछ मैं आती पास तेरे
मन से जो सुनता मन के बोल मेरे
मैं जीती तेरे लिये तू जीता लिये मेरे ।
पर ऐसा कभी कुछ भी हो ना सका
थोड़ा मैं थी थकी थोड़ा तू था थका
जीवन हमें कितना कुछ दे न सका ।
ध्येय हमारा हरदम इक ही था
संग जीना और संग मरना था
फिर सपने को क्यों यूँ मरना था ।
अब आ मिल कुछ संताप करें
सपने के मरने का विलाप करें
हम दोनों मिल पश्चात्ताप करें ।
घुघूती बासूती
कुछ मिलकर हम दोनों ने की
इक सपने की हमने हत्या की ।
समझौतों का ये जीवन जीया
मिलकर गरल कुछ हमने पीया
जो करना था वह हमने न किया ।
थोड़ी तूने, थोड़ी मैंने ये दूरी बनाई
मिलकर हमने थी जो सेज सजाई
उसके बीचों बीच ये दीवार बनाई ।
कुछ तू ना समझा कुछ मैं न समझी
बातों बातों में कब जिन्दगी ही उलझी
मिल हमें जो सुलझानी थी ना सुलझी ।
अपनी अलग अलग राहें चुन लीं
मन की हमने ना बातें सुन लीं
अंधेरी हमने अपनी राहें कर लीं ।
कुछ तू आता कुछ मैं आती पास तेरे
मन से जो सुनता मन के बोल मेरे
मैं जीती तेरे लिये तू जीता लिये मेरे ।
पर ऐसा कभी कुछ भी हो ना सका
थोड़ा मैं थी थकी थोड़ा तू था थका
जीवन हमें कितना कुछ दे न सका ।
ध्येय हमारा हरदम इक ही था
संग जीना और संग मरना था
फिर सपने को क्यों यूँ मरना था ।
अब आ मिल कुछ संताप करें
सपने के मरने का विलाप करें
हम दोनों मिल पश्चात्ताप करें ।
घुघूती बासूती
बहुत खूब, घुघूती बासूती । एक तुक मिलाप का भी बैठता
ReplyDeleteबहुत अच्छी लगी।
ReplyDeleteकुछ मरे सपनों से ही नये अंकुरित हो जाते हैं।
चलो इसको पढकर आपकी इतनी लंबी छुट्टी तो मान्य हो गई..पर अब जल्दी जल्दी लिखती रहियेगा...:)
ReplyDeleteबहुत खूब!!!
ReplyDeleteअच्छा लगा इसे पढ़कर!!
अच्छी पंक्तियां हैं.
ReplyDeleteआपकी कविता पढ़ने के बाद हमने भी आपका अवकाश स्वीकृत कर दिया.
सुधार की मंज़िल बरास्ता संताप ही है . प्रेरक कविता .
ReplyDeleteबहुत बढ़िया. वापसी पर पुनः स्वागत.
ReplyDeleteअपनी अलग अलग राहें चुन लीं
ReplyDeleteमन की हमने ना बातें सुन लीं
अंधेरी हमने अपनी राहें कर लीं ।
बहुत खूब....बहुत अच्छा लगा इसको पढ़ना ..
बहुत सुन्दर....
ReplyDeleteध्येय हमारा हरदम इक ही था
संग जीना और संग मरना था
फिर सपने को क्यों यूँ मरना था ।........शानदार
धन्यवाद.
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (08-05-2017) को "घर दिलों में बनाओ" " (चर्चा अंक-2964) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Deleteरूपचन्द्र शास्त्री मयंक जी, बहुत धन्यवाद.
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteधन्यवाद हर्षवर्धन.
Deleteहत्या भी ऐसी कि कोई एफ आई आर किसी थाने में ना हो पाये।।
ReplyDeleteसुन्दर।
ये सपना मरेगा तो ही
ReplyDeleteहकीकत की धरा पर कुछ उपजेगा...
पश्चाताप व वीरानी के भाव से भरी
सुंदर रचना
संगम के लिये मिलन आवश्यक है।
ReplyDeleteकितना खोया कितना पाया, उसका क्या हिसाब करें
ReplyDeleteदर्पण पर जो धूल जमा है, उसको ही अब साफ करें
भूल चूक और लेना देना, कर्ज उधारी माफ करें
नश्वर सृष्टि नष्ट हुई तो, नूतन जग निर्माण करें
सपने मरते हैं पर रूप बदल कर दूसरे सपने में ढ़ल जाते हैं...
ReplyDeleteहाँ, संसार में बदलाव ही तो सबसे बड़ा सत्य है.
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