कुछ दिन पहले एक स्त्री को उसके कार्यालय में उसके बच्चे के क्रेश/ डे केयर से फ़ोन आया , 'आपका बच्चा सम्भाले नहीं सम्भल रहा है, तोड़ फोड़ कर रहा है, आकर उसे ले जाइए.' स्त्री की नई नई नौकरी है और वह भी अपनी सोसाइटी, जहाँ बच्चे का क्रेश भी है, से बहुत अधिक दूर. बच्चे को लेने पहुँचने में डेढ़ घंटा आराम से लग सकता था. उसने क्रेश संचालिका से कहा, 'आप मेरी बात मेरे बच्चे से करवा दीजिए.' संचालिका बोली , 'नहीं, मैं बात नहीं करवा सकती ,वह मेरा फोन भी तोड़ देगा. ' असहाय माँ बोली,' मेरी बात तो करवाइए. फोन तोड़ देगा तो मैं नया खरीद दूँगी .' बहुत बार कहने पर संचालिका बच्चे से बात करवाने को तैयार हो गयी.
बच्चे से बात करने पर पता चला कि सब बच्चे रंग बिरंगे कागजों पर चित्रकारी कर रहे हैं. बच्चे को गुलाबी रंग का कागज दिया गया. उसे बदलने को कहने पर जामुनी रंग का कागज दिया गया. ये दोनों रंग वह पसंद नहीं करता क्योंकि वे लडकियों के रंग हैं. कागज न बदलने पर उसे इतना गुस्सा आया कि उसने कागज फाड़ दिया. रंग फेंक दिए. रोकने पर और भी अधिक उत्पात करने लगा.
माँ के बहुत समझाने और कल उसकी पसन्द के रंग का कागज देने के आश्वासन पर वह शांत हुआ.
वह बच्चा इतना विचलित, क्रोधित क्यों हुआ होगा? क्यों उसे ऐसा लगा कि गुलाबी या जामुनी रंग लेने से उसका जेंडर ही बदल जाएगा? वे लोग कुछ समय पहले ही अमेरिका से भारत रहने आए हैं. अमेरिका में रंगों को लड़के लडकियों के रंगों में बाँट दिया गया है. कोई भी लड़का गुलाबी या जामुनी रंग पहनना या उपयोग करना नहीं चाहता. कोई भी लड़की नीला रंग पसंद करती है या नहीं कहना कठिन है किन्तु लड़की के लिए उपहार आदि लोग गुलाबी या जामुनी रंग में ही लेते हैं. आप गुब्बारा खरीदने जायेंगे तो गुब्बारे वाला लडकी को गुलाबी या जामुनी रंग का गुब्बारा ही देगा.
अब यह समस्या भारत में भी होने लगी है. स्त्रियों के लिए विशेष टैक्सी हो या लोकल ट्रेन के डिब्बे का रंग सुनिश्चित करना हो तो वह गुलाबी या जामुनी ही होगा. इससे सुविधा तो हो सकती है किन्तु रंगों को भी स्त्री पुरुष के रंगों में बाँट देना कहाँ तक सही है?
पता नहीं हमारा समाज कहाँ जा रहा है? कुछ वर्ष पहले हमने आतंक के रंग निश्चित किए. वह रंग जो हमारी संस्कृति में त्याग , बलिदान, ज्ञान, सेवा व शुद्धता का प्रतीक है उसे राजनीति ने आतंक से जोड़ दिया. तब भी मुझे रंगों का यह विभाजन सही नहीं लगा था. मैंने एक लेख 'रंग हो जाने चाहिए बेरंग'
http://ghughutibasuti.blogspot.in/2009/06/blog-post_04.html लिखा था.
आज भी मुझे नन्हें बच्चों के मन में इस तरह रंगों का विभाजन करना बिलकुल नहीं भाया. क्या इस तरह हम बच्चों से रंगों में अपनी पसंद निर्धारित करने का अवसर नहीं छीन रहे? क्या हम रंगों के प्रति बच्चों को सहज नहीं रहने दे सकते? विशेष रंग उनपर थोप कर हम उनका पसंद करने का अधिकार ही उनसे छीन ले रहे हैं.
घुघूती बासूती
बच्चे से बात करने पर पता चला कि सब बच्चे रंग बिरंगे कागजों पर चित्रकारी कर रहे हैं. बच्चे को गुलाबी रंग का कागज दिया गया. उसे बदलने को कहने पर जामुनी रंग का कागज दिया गया. ये दोनों रंग वह पसंद नहीं करता क्योंकि वे लडकियों के रंग हैं. कागज न बदलने पर उसे इतना गुस्सा आया कि उसने कागज फाड़ दिया. रंग फेंक दिए. रोकने पर और भी अधिक उत्पात करने लगा.
माँ के बहुत समझाने और कल उसकी पसन्द के रंग का कागज देने के आश्वासन पर वह शांत हुआ.
वह बच्चा इतना विचलित, क्रोधित क्यों हुआ होगा? क्यों उसे ऐसा लगा कि गुलाबी या जामुनी रंग लेने से उसका जेंडर ही बदल जाएगा? वे लोग कुछ समय पहले ही अमेरिका से भारत रहने आए हैं. अमेरिका में रंगों को लड़के लडकियों के रंगों में बाँट दिया गया है. कोई भी लड़का गुलाबी या जामुनी रंग पहनना या उपयोग करना नहीं चाहता. कोई भी लड़की नीला रंग पसंद करती है या नहीं कहना कठिन है किन्तु लड़की के लिए उपहार आदि लोग गुलाबी या जामुनी रंग में ही लेते हैं. आप गुब्बारा खरीदने जायेंगे तो गुब्बारे वाला लडकी को गुलाबी या जामुनी रंग का गुब्बारा ही देगा.
अब यह समस्या भारत में भी होने लगी है. स्त्रियों के लिए विशेष टैक्सी हो या लोकल ट्रेन के डिब्बे का रंग सुनिश्चित करना हो तो वह गुलाबी या जामुनी ही होगा. इससे सुविधा तो हो सकती है किन्तु रंगों को भी स्त्री पुरुष के रंगों में बाँट देना कहाँ तक सही है?
पता नहीं हमारा समाज कहाँ जा रहा है? कुछ वर्ष पहले हमने आतंक के रंग निश्चित किए. वह रंग जो हमारी संस्कृति में त्याग , बलिदान, ज्ञान, सेवा व शुद्धता का प्रतीक है उसे राजनीति ने आतंक से जोड़ दिया. तब भी मुझे रंगों का यह विभाजन सही नहीं लगा था. मैंने एक लेख 'रंग हो जाने चाहिए बेरंग'
http://ghughutibasuti.blogspot.in/2009/06/blog-post_04.html लिखा था.
आज भी मुझे नन्हें बच्चों के मन में इस तरह रंगों का विभाजन करना बिलकुल नहीं भाया. क्या इस तरह हम बच्चों से रंगों में अपनी पसंद निर्धारित करने का अवसर नहीं छीन रहे? क्या हम रंगों के प्रति बच्चों को सहज नहीं रहने दे सकते? विशेष रंग उनपर थोप कर हम उनका पसंद करने का अधिकार ही उनसे छीन ले रहे हैं.
घुघूती बासूती
बहुत जरूरी मुद्दा।
ReplyDeleteधन्यवाद.
Deleteविचारणीय है.......
ReplyDeleteप्रणाम स्वीकार करें
नमस्ते. बहुत आभार.
Deleteआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteधन्यवाद हर्षवर्धन.
Deleteरंगों का विभाजन जीवन के विभाजन के समान है। ये न्यायोचित नही है। (लम्बे समय बाद आपकी उपस्तिथि अच्छी लगी।)
ReplyDeleteआपका यहाँ आना और टिप्पणी करना भला लगा.धन्यवाद.
Deleteमुझे भी नहीं भाता इस तरह रंगों को बाँटना...
ReplyDeleteहरा, केसरिया था अब तो एक नया रंग नीला भी !!
बहुत दुखद है.रंगों से जीवन रंगीन ही बनना चाहिए.
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