हम वह काटते हैं
जो हमने बोया था
और वह भी
जो बेशर्मी से
अपने आप उग आया हो
बिन बुलाए मेहमान सा
जिसे हम देख न पाएँ हों
गुड़ाई के समय
या निकालने में अलसा गए हों
या फिर सहिष्णुता दिखाते हुए
छोड़ दिया हो उसके हाल
और वह भी जिसके बीज
किसी षणयंत्र के अन्तर्गत
छिड़क दिए गए हों
हमारे खेत में
कोयल के अंडों की तरह
जो पैदा हुए और पलते रहे
हमारी फसल के बीच।
अब पक चुकी है फसल
और हम काट रहे हैं,
जो बोया सो काट रहे हैं
सोचते हुए,
हैरान और परेशान से
कभी अपने बीजों के नमूने
और कभी फसल का
मिलान करते हुए,
किंकर्तव्यविमूढ़ कुछ पल
फिर लग जाते हैं
अनाज की बिनाई के
असाध्य से काम में।
घुघूती बासूती
सामान्य शब्दों में, एक दैनन्दिन घटना के माध्यम से गूढ़ अर्थों को जिस प्रकार आपने उजागर किया है, वह कमाल का है! बहुत ही उम्दा रचना!
ReplyDeleteधन्यवाद. भयंकर अवसाद में लिखी रचना.
Deleteसारे जीवन का सार ...बोवाई...जुताई...और बिनाई ....सतत चलने वाला क्रम
ReplyDeleteआभार.
Deleteआपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति मेजर ध्यानचन्द और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।
ReplyDeleteधन्यवाद हर्षवर्धन.
Deleteलाजवाब!
ReplyDeleteसुन्दर ।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर और प्रभावी
ReplyDeleteबहुत सुन्दर .....
ReplyDeleteआज कश्मीर में भी तो यही हो रहा है। बीज भी और खरपतवार भी हमने ही तो बोये। नेहरू दर्शन, असल में खरपतवार उगा गया।
ReplyDeleteभयंकर अवसाद में सच ही निकलता है ।
ReplyDeleteसुंदर रचना |
ReplyDelete- ख्यालरखे.com
सही और सच्ची बात है.
ReplyDeleteअब पक चुकी है फसल
ReplyDeleteऔर हम काट रहे हैं,
जो बोया सो काट रहे हैं
,... भुगतना तो पड़ता ही है .
बहुत सुन्दर
काटना तो पड़ता है सभी कुछ नहीं तो जो बोया है वो भी खोने लगता है ... फिर चाहे न चाहे भविष्य कर्म भी तो देखना होता है ...
ReplyDeleteHeartfelt words.True and beautifully said.
ReplyDeleteअपने आप उगने वाला कष्टकारी होता है।
ReplyDeleteये खर-पतवार होती है बड़ी बेशर्म ,जहाँ मौका लगे जमने लगती है .
ReplyDeleteखर-पतवार कितनी भी हटाते रहो ,फसल पर अपना असर डाल ही देती है.
ReplyDeleteKavita bahut der se pari par parkar bara acha laga
ReplyDeleteआभार
DeleteManmohan Partap Singh Gill.
आपको जन्मदिन की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएं!
ReplyDeleteबहुत सार्थक और समसामयिक रचना।लिखय फिर शुरू की जिए।हमें प्रतीक्षा है।
ReplyDeleteशुरू तो करना चाहती हूँ किन्तु शब्द खो गए हैं.
Deletenice one
ReplyDeletemam do you wish to self publish book
आपकी इस कविता में मुझे उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन के बाद उपजे हालातों का अक्स नजर आ रहा है । इसे पढ़ने बाद पता नही क्यों एक अजीब सी बैचैनी हो रही है । सोच रहा हूँ आखिर क्यों बनाया होगा ये निगोड़ा उत्तराखण्ड ?
ReplyDeleteसच में. क्या आन्दोलन के समय लोगों ने इस दुर्दशा के लिए इतने कष्ट सहे थे!
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