Saturday, August 08, 2015

मानव जिजीविषा

बदली अर्थात ट्रान्सफर वाली नौकरी के कई लाभ हैं तो बहुत सी हानियाँ। लाभ यह है कि आप और आपका परिवार कूपमंडूप नहीं बना रहता। हर दो या तीन साल के बाद, एक नई जगह, नया प्रदेश, नई भाषा, नए लोग, नया खानपान, नई संस्कृति देखने समझने को मिलती है। बच्चे भी जीवन में कहीं भी, किसी भी वातावरण में अपने को ढालना सीख जाते हैं। सबसे बड़ी बात, कितनी भी बड़ी असुविधा हो यह जान कि यह अस्थाई है सहन हो जाती है।
हानियों में सबसे बड़ी यह है कि पति पत्नी दोनो के लिए नौकरी कर पाना असम्भव सा हो जाता है। अन्यथा जीवन भर अलग अलग रहने को अभिशप्त हो जाते हैं। प्रायः पत्नी को ही पति को इंजन मान पीछे का डिब्बा बन साथ साथ जाना पड़ता है। यदि कहीं नौकरी की सुविधा मिल जाए तो कर लो अन्यथा अगली बदली की प्रतीक्षा करो। उस पर भी यदि ये बदलियाँ एक छोटी बस्ती से दूसरी में हों तो नौकरी के अवसर होते ही नहीं।
हर समय सामान बाँधने को तैयार रहना होता है। किसी जगह, प्रान्त को अपना नहीं कह सकते। मन बहलाने को कह भी लो तो वह अपना हो नहीं सकता। आप यह निश्चय भी नहीं कर पाते कि अन्त में कहाँ बसेंगे।
सबसे बड़ी बात यह है कि उम्र के जिस पड़ाव में भाग दौड़ करना कठिन होता है उस समय आप नए सिरे से गृहस्थी बसाते हैं, बिल्कुल अनजान लोगों के बीच। हम भी आजकल यही कर रहे हैं। उम्र रोज याद दिलाती है कि अब आप पेड़ पर लगी मंजरी नहीं, लगभग पक चुके फल हैं, टपकने की प्रतीक्षा में। उसपर भी भगवान पर विश्वास न हो तो यह भी पता होता है कि टपकने पर कोई हाथ लपकेगा नहीं, बस धरती ही पर टपक धरती का ही हिस्सा बनना है। फिर भी इतनी दौड़ भाग!
पिछले साल मेरे ही नाम और सरनेम वाली, घुघूती बासूती नहीं, वह तो मेरा अपने को दिया नाम है, मेरी एक सहेली, जिसने बिल्कुल ऐसा ही बंजारा जीवन बिताया, अन्त में पति के रिटायर होने पर बसने को इसी शहर हैदराबाद में, मेरे घर से दो सौ मीटर दूर बसने आई। उसे और मुझे दोनो को खुशी थी कि घर आसपास हैं तो बरसों बाद मिलना होगा। खूब मन से उसने नए फ्लैट में अपने मन के बदलाव कराए। खूब तोड़ फोड़ करा अपने मन का नीड़ बनाना शुरू किया। अभी तो ढंग से घर व्यवस्थित भी न कर पाई थी कि अपने अन्तिम पड़ाव पर चल पड़ी। सब कुछ धरा का धरा रह गया। अभी तो और्डर किया नया सोफा घर भी नहीं पहुँचा था कि दो बाँस पर वह चली गई।
मिलने की इच्छा भी दम तोड़ गई। हाँ, उसके घर जा उसके पति और पुत्र को अपना शोक प्रकट कर आई।
वाह रे जीवन और वाह री मानव जिजीविषा! सबकुछ जानते हुए भी इतना तामझाम यह जिजीविषा ही करवा सकती है।
घुघूती बासूती

10 comments:

  1. आपने सही कहा है -
    उम्र रोज याद दिलाती है कि अब आप पेड़ पर लगी मंजरी नहीं, लगभग पक चुके फल हैं, टपकने की प्रतीक्षा में। उसपर भी भगवान पर विश्वास न हो तो यह भी पता होता है कि टपकने पर कोई हाथ लपकेगा नहीं, बस धरती ही पर टपक धरती का ही हिस्सा बनना है। फिर भी इतनी दौड़ भाग!

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  2. लगता है- आज की रात आखरी हो सकती है ...फिर भी कल का सूरज कितना सुन्दर होगा सोचकर सोना अच्छा लगता है ....

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  3. सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार..
    मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार...

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  4. बहुत मार्मिक. श्रधांजलि.

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  5. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, काकोरी काण्ड की ९० वीं वर्षगांठ - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  6. सुंदर और सार्थक...सच कहा जिजीविषा ही मानव को उसके अन्तिम लक्ष्य तक ले जाती है.

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  7. हर चीज़ की अति बुरी होती है वर्ना जिजीविषा तो आदमी को एएगे बढने के लिये प्रेरित करती है अगर मानवता इन्सानियत एाउर समाज के भले के लिये हो1

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  8. उफ्फ बेहद दुख हुआ, पर क्या करें जीवन का कोई भरोसा भी नहीं ।

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  9. मार्मिक। नौकरी पेशा लोगांे के साथ अक्सर ऐसा हो जाता है। परन्तु क्या करें। जीवन शायद यही है।......
    भगवान भी बड़ा निर्दयी होता है। आदमी जिन्दगी भर संघर्ष करता है और जब आराम से रहने का, परिवार के साथ जिन्दगी बिताने का समय आता है तो वह बुला लेता है। मैंने ऐसे बहुत से देख लिये जो उम्र भर यही कहते रहते हैं कि रिटायरमेण्ट के बाद आराम से रहेंगे। किन्तु हाय रे विधाता !

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