Tuesday, December 16, 2014

वाह, बारहखड़ी!

बिटिया की कॉन्फ्रेन्स चल रही हैं। एक के बाद एक तीन हैं। देढ़ हो चुकीं। हर कॉन्फ्रेन्स कमसे कम चार दिन की।
जैसे तैयारी करती है, उसकी बारहवीं के दिनों की याद आ जाती है। बस अन्तर इतना है कि तब २२ महीने की बच्ची नहीं थी उसकी। हाँ यह अन्तर भी है कि तब तीन घंटे में परीक्षा खत्म हो जाती थी। रात के दस, ग्यारह, साढ़े ग्यारह न बजते थे लौटते हुए।
तन्वी और उसकी नानू दिन तो बिता लेते हैं। शाम होते होते मम्मा की याद आने लगती है। यदि मम्मा कॉन्फ्रेन्स में हुई तब तो मिल नहीं सकती, जब तैयारी कर रही होती है तब भी छिपी रहती है तन्वी से। अन्यथा जैसे वह मुझे कहती है, नानू लैपटॉप नहीं खोलो वैसे ही माँ को भी आदेश दे देती है।
कभी कहती है, मम्मा को बुलाओ। कभी कहती है मम्मा के पास चलो। ड्राइवर नहीं है कहने पर बोलती है छुकछुक गाड़ी से चलेंगे। मुझे मम्मा की लैब का रास्ता पता नहीं है कहने पर कहती है तन्नी रास्ता ढूँढ लेगी। छुकछुक गाड़ी मम्मा की लैब तक नहीं जाती कहने पर कहती है कि हम दोनो हाथ पकड़ कर वॉकी वॉकी जाएँगे। मम्मा के पास जाएँगे।
आज या वह आज कल बन चुका शायद, उसका ध्यान बटाने को जब हिन्दी अंग्रेजी की कई कहानियाँ सुना चुकी, ढेरों पज़ल्स सुलझा लीं, उसके फूल से आकार वाले ब्लॉक्स से एक बड़ा फूल बना चुके जो उसे सूरज लगा और नानू देखो तन्नी सूरज के चारों ओर घूम रही है कहकर उसकी बीसियों परिक्रमा लगा चुकी, पुस्तकें पढ़ चुके हम तो अचानक मुझे बारहखड़ी सूझी।
उसे कका ककी कुकू केकै कोकौ कंकः बहुत पसन्द आए। मम्मा भूलकर किलकारियाँ भरने लगी वह। सारे वर्ग तो ठीक रहे किन्तु प वर्ग पहुँचने से पहले खतरे की घंटियाँ बजने लगीं। पपा, अरे पापा की याद आ जाएगी। ममा मिमी, उफ़, यह शब्द तो बोला ही नहीं जा सकता। यह तो हैरी पॉटर के वोल्डेमौर्ट सा प्रतिबन्धित शब्द है। जो गाने, कविताएँ मम्मा सुनाती है, जो खेल वह खिलाती है, सब प्रतिबन्धित रहते हैं उसकी अनुपस्थिति में। उसका कमरा, उसका सामान सबसे दूर ही रखती हूँ। पति से भी फोन पर उसकी बात करती हूँ तो उसका नाम लिए बिना, नहीं तो मम्मा को बुलाओ राग आरम्भ।
कितना कठिन होता है माँ होकर अपने केरियर पर ध्यान देना। स्वाभाविक है कि वे अधिक आगे नहीं बढ़ पातीं। जो समय जमकर काम करने, अपने को अपने क्षेत्र में सिद्ध करने, कुछ उपलब्धि का होता है वही समय बच्चे को भी माँ चाहिए। एक समय ऐसा आता है जब माँ के पास समय रहता है, बच्चा अपने संसार में खो जाता है किन्तु केरियर बनाने का समय निकल चुका होता है।
विज्ञान के संसार में तो आप कुछ साल का ब्रेक लेने की सोच ही नहीं सकतीं। हर दिन कुछ नया खोजा जाता है, लिखा जाता है आपके क्षेत्र में, जिसे पढ़ना, गुनना आवश्यक है। उससे अनभिज्ञ रहकर अचानक एक दिन आप फिर से अपने क्षेत्र में नहीं कूद सकतीं। कोई आपके लौट आने की प्रतीक्षा भी नहीं करता।
आप काम करती हैं और पूरे मनोयोग से तो बच्चे के प्रति अपराध बोध। नहीं करतीं तो अपने काम के प्रति अपराध बोध।
बहुत कठिन है डगर मातृत्व की।
और हाँ, नानूगिरी की भी।
घुघूती बासूती

9 comments:

  1. आपकी लिखी रचना बुधवार 17 दिसम्बर 2014 को लिंक की जाएगी........... http://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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  2. कैरियर के ही कारण इन्दिरा नूई ने कहा कि मैं एक अच्छी मॉ नही बन पायी। घमासान है।

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    1. शायद इसीलिए अच्छे पिताओं की इतनी कमी है कि हम केवल अच्छा कमाने वाले, पिटाई न करने वाले, दारू पीकर पत्नी और बच्चों को न पीटने वाले को ही अच्छा पिता मान बैठते हैं. वह तो आज तक ढंग से परिभाषित भी नहीं हो पाया.
      घुघूती बासूती

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    2. Anonymous6:22 pm

      सिर्फ पूर्वी देशों मे ही परिभाषित नहीं हो पाया ... पचिमी देशों मे पिता अपने बच्चे और बच्चियों के साथ खेलते , पढ़ते , दौड़ना सीखाते हुए पार्कों मे देखे जा सकते हैं .

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    3. आजकल भारत में भी बदलाव आ रहा है. यहाँ भी कुछ ऐसे पुरुष मिल जाते हैं जो परिवार के प्रति अपना दायित्व अधिक बड़े स्तर पर देखने लगे हैं, विशेषकर जब उनकी पत्नी बाहर काम करती हो.
      घुघूती बासूती.

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  3. दोहरी भूमिका निभाना सच में बहुत कठिन होता है ....पोस्ट पढ़कर अपने दिन याद आने लगे है ..जब बच्चों और नौकरी दोनों को देखने दौड़ लगी रहती थी ....बच्चें अभी भी छोटे हैं एक ३ में और दूसरी ६ में लेकिन हम दोनों लोग बारी बारी से दिन में एक चक्कर लगा लेते हैं ....

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  4. माँ को नौकरी करना ....... बेहद कठिन !!
    देखता हूँ, हर दिन अपने पत्नी को परेशां होते हुए ........

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  5. बहुत ही शानदार
    http://puraneebastee.blogspot.in/
    @PuraneeBastee

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  6. सही बात है ----- कामकाजी मां के मन में अपराधबोध तो रह ही जाता है।

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