अपेक्षाओं के पेड़
अपेक्षाओं के पेड़ उथले छोटे गमले में उगाना
उन्हें अधिक खाद पानी न खिलाना पिलाना
न अधिक धूप दिखाना व धूप से ही बचाना
उन्हें कमरे की खिड़की के आले पर न रखना.
उन्हें नजरों से बहुत दूर किसी बालकनी या
छत के इक कोने पर ही कुछ स्थान दिलाना
उन्हें इक दूजे के बहुत पास भी न सजाना
न ही पड़ोसी के घने बड़े पेड़ के पास रखना.
ये अपेक्षाएँ इक दूजे से चुगली करती हैं
ये अपेक्षाएँ तो महामारी सी फैलती हैं
गाजर घास सी बढ़ती, बुद्धि ढकती हैं
बरगद के पेड़ सी इनकी जड़ जटाओं सी
इक बार जो निकलती हैं तो धरती फोड़
इक नया पेड़ रच ही कुछ पल ठहरती हैं.
बेहतर है कि इन्हें बहुत न पालो न पोसो
न निर्मल जल से न आंसुओं की धारा से
इन्हें तो बस समय समय पर, बार बार
नई कोपलों के फूटने से ही बहुत पहले
कलियां खिलने, फलों में बदलने से पहले
काट छाँट कर वापिस सही आकार दे दो.
गमले की मिट्टी से इसकी जड़ो को निकालो
उचित आकार में उन्हें भी काटो, और छाँटो
नहीं फैलने दो कभी उन्हें जरा भी असीमित
अपेक्षाओं का पेड़ है ,उसकी बोन्साई बनाओ
छायादार, फलदार वृक्ष न उसको कभी बनाओ
अपेक्षाओं के पेड़ उथले छोटे गमलों में उगाओ.
घुघूती बासूती
अपेक्षाओं के पेड़ उथले छोटे गमले में उगाना
उन्हें अधिक खाद पानी न खिलाना पिलाना
न अधिक धूप दिखाना व धूप से ही बचाना
उन्हें कमरे की खिड़की के आले पर न रखना.
उन्हें नजरों से बहुत दूर किसी बालकनी या
छत के इक कोने पर ही कुछ स्थान दिलाना
उन्हें इक दूजे के बहुत पास भी न सजाना
न ही पड़ोसी के घने बड़े पेड़ के पास रखना.
ये अपेक्षाएँ इक दूजे से चुगली करती हैं
ये अपेक्षाएँ तो महामारी सी फैलती हैं
गाजर घास सी बढ़ती, बुद्धि ढकती हैं
बरगद के पेड़ सी इनकी जड़ जटाओं सी
इक बार जो निकलती हैं तो धरती फोड़
इक नया पेड़ रच ही कुछ पल ठहरती हैं.
बेहतर है कि इन्हें बहुत न पालो न पोसो
न निर्मल जल से न आंसुओं की धारा से
इन्हें तो बस समय समय पर, बार बार
नई कोपलों के फूटने से ही बहुत पहले
कलियां खिलने, फलों में बदलने से पहले
काट छाँट कर वापिस सही आकार दे दो.
गमले की मिट्टी से इसकी जड़ो को निकालो
उचित आकार में उन्हें भी काटो, और छाँटो
नहीं फैलने दो कभी उन्हें जरा भी असीमित
अपेक्षाओं का पेड़ है ,उसकी बोन्साई बनाओ
छायादार, फलदार वृक्ष न उसको कभी बनाओ
अपेक्षाओं के पेड़ उथले छोटे गमलों में उगाओ.
घुघूती बासूती
माया महाठगिनी हम जानी ...
ReplyDeleteअपेक्षाएं इतनी न बढ़ जाएँ कि दुःख देने लगें .
ReplyDeleteअपेक्षा का वृक्ष , बिम्ब और उसका प्रयोग अत्युत्तम है !
आभार राजेंद्र कुमार जी.
ReplyDeleteहमारी अपेक्षाएं बौंजाई ही बनी रहे, तभी हम और परिवार सुखी रहता है। अच्छा सार्थक चिंतन।
ReplyDeleteअपेक्षाएं स्व:स्फूर्त हैं
ReplyDeleteअपेक्षाएं स्वत: भी उग आती हैं ....
ReplyDeleteछोटी रहें तो भी पनपने के लिए रिस्क ही होती है
वाकई। उम्मीद दुख की जननी है
ReplyDeleteअपेक्षा बोन्साई ही रखूंगा
ReplyDeleteअच्छे प्रतीकों के साथ सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteकई बार पढ़ा और हर बार एक अजब सी मीठी वेदना तैर पड़ी.
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteअपेक्षाओं का पेड़ है, उसकी बोन्साई बनाओ..
ReplyDeleteसहज सार युक्त रचना...बहुत खूब....