कुछ पल फिर से जी लूँगी
हाल तुम्हारा सुन लूँगी
अपने मन की सब कह दूँगी
पलकें नहीं,
हृदय बिछाए बैठी हूँ
कब तुम आओगे?
खो रहा है चेहरा मेरा
तेरी आँखों में फिर देखूँगी
खो गया है नाम ही मेरा
तेरे मुख से सुन लूँगी
जब तुम आओगे।
शून्य होती भावनाओं को
नया वेग देने को
शिथिल हुए शरीर में
नई संवेदना फूँकने को
मुझे मुझसे मिलवाने को
कब तुम आओगे?
आस लगाए बैठी हूँ
संवेदनी जड़ी ले आओगे
जड़ फिर से चेतन होगा
पंखहीन पक्षी को पंख मिलेंगे
अंधियारे होंगे फिर आलोकित
जब तुम आओगे।
मंद पड़ रही है जीवन ज्योति
साँसें लगतीं चढ़ान पहाड़ की
नयन ढूँढते हैं उस तारे को
जो दिखाता दिशा जीवन की
बाँह पकड़ राह दिखाने
कब तुम आओगे?
घुघूती बासूती
सुंदर प्रस्तुति...
ReplyDeleteदिनांक 04/08/2014 की नयी पुरानी हलचल पर आप की रचना भी लिंक की गयी है...
हलचल में आप भी सादर आमंत्रित है...
हलचल में शामिल की गयी सभी रचनाओं पर अपनी प्रतिकृयाएं दें...
सादर...
कुलदीप ठाकुर
मेरी कविता की लिंक देने के लिए आभार kuldeep thakur जी.
ReplyDeleteघुघूतीबासूती
sundar prarthna
ReplyDeleteविरह में भी श्रृंगार रस । सुन्दर रचना ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर!!
ReplyDeleteदीर्घ प्रतीक्षित !!!!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और भावपूर्ण रचना...
ReplyDeleteआस का पंछी जब उड़ान भरने लगता है तो ऊंचाई को भूल जाता है , औए न जाने नभ में कहाँ कहाँ छलांग लगा लेता है ,सुन्दर ,
ReplyDeleteसुंदर
ReplyDeleteहृदयस्पर्शी ...
ReplyDeleteवाह्ह्ह्ह्ह बहुत सुन्दर
ReplyDeletewaah bahut khoob behat sunadr kavita
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