जो हमसे टकराएगा चूर चूर हो जाएगा।
जो हमसे टकराएगा मिट्टी में मिल जाएगा।
मजदूर एकता जिन्दाबाद।
बचपन में जब ये नारे सुनती थी तो बालमन सिहर जाता था। कारखाने की लगभग सदा शान्त कॉलोनी में बड़े बड़े पार्क होते थे जहाँ बच्चे बड़े सब आते थे। खेलते कूदते, दौड़ते भागते हम कई बार किसी ना किसी से टकरा भी जाते थे। सॉरी चाचाजी, सॉरी मासीजी कहकर वापिस खेलने लगते थे। किन्तु मई दिवस के बाद एक दो महीने टकराने से बहुत डर लगता था। हर बार जिससे टकराए उसे व अपने अचूर, बिना मिट्टी में मिले शरीर को देख राहत होती थी कि सही व्यक्ति से ही टकराए।
पिताजी या उनके मित्रों को कभी इन जलूसों में जाते नहीं देखा। किन्तु कभी कभी अपने घर या स्कूल आने वाले, मिस्त्री, प्लम्बर, इलेक्ट्रिशियन आदि को जलूस में देखती थी और शेष दिन के शान्त चाचाजियों का वह उग्र रूप थोड़ा दहला देता था।
पूरे बचपन एक ही हड़ताल देखी। जब वह हुई तो पता चला कि दफ्तर में काम करने वाले प्रायः सभी कर्मचारी, वेजबोर्ड के अन्तर्गत आते हैं और मजदूर ही हैं। वे चाहे सफेद कमीज पहनते हों किन्तु हड़ताल होने पर वे भी काम पर नहीं जा सकते। उनके बच्चे चाहे हॉस्टल में रह इन्जीनियर बन रहे हों या पी एच डी कर रहे हों। वेतन का ३/५ वाँ हिस्सा चाहे फीस में जाता हो और अगली फीस का कोई जुगाड़ भी न हो (अंगीठी सुलगाने से भी बड़ी चिन्ता फीस ही होती थी ) तब भी उन्हें, पिताजी और उनके सहकर्मियों को घर बैठना पड़ा।
दी की सोशियोलॉजी में एम ए ( फिर पी एच डी ), बाद में स्वयं भी स्नातक स्तर में थोड़ी सोशियोलॉजी पढ़ना, दी की बुक शेल्फ में सबसे महत्वपूर्ण स्थान पाईं कार्ल मार्क्स की Das Kapital ... चार पुस्तकें, एक समय या शायद सदा उसका स्वयं को proletariat कहना, उसकी बहसें भी मुझे बचपन की उस सिहरन से मुक्त न कर पाईं और न उसके पाले में ले जा पाईं। मैं पिताजी के पाले में ही खड़ी रही। जब भी हम किसी अभाव या भेदभाव की बात करते तो वे कहते कि हर बार जब ऐसा लगे तो और भी पक्के निश्चय से आगे बढ़ो और वह सब पाने के लिए और अधिक मेहनत और लगन से पढ़ो।
हमें आगे बढ़ाने के लिए माँ और पिताजी उन्हीं पुराने कपड़ों में रहे, खाली खाली घर में रहे, कभी एक सायकिल, फ्रिज, टी वी नहीं खरीदा, बाहर खाना नहीं खाया, सिनेमा देखने, खरीददारी करने नहीं गए, कहीं घूमने नहीं गए, अपने पहाड़ भी सालों साल नहीं गए। घर का सबसे कीमती सामान पच्चीस वर्ष की नौकरी पूरा करने पर मिला रेडियो और मेरे जन्म के समय खरीदी गई सिलाई मशीन थे।
कॉलोनी के मकान में भाग्य से एक बगीचा था। पिताजी ने उसमें हर सब्जी और सब तरह के फल उगाए। कर्मचारियों के लिए बढ़िया क्लब होने पर और हर खेल खेलने की सुविधा होने पर भी वे क्लब न जाकर बगीचे में लगे रहते। उनके मित्र बैडमिन्टन, टैनिस, टेबल टैनिस नहीं तो ताश तो हर शाम खेलते। पिताजी बैडमिन्टन अच्छा खेल लेते थे, किन्तु वे क्यारी क्यारी ही खेलते रहे। उनकी जादुई उँगलियों, कड़ी मेहनत औेर अनुशासन (अपने लिए, हमारे लिए नहीं ) ने हमें हर दिन ताजी सब्जियाँ और फल उपलब्ध कराए। आज विश्वास नहीं होता कि इतनी सी धरती इतना सब उपजा सकती थी।
हर मई दिवस/ मज़दूर दिवस अपना वह गेट पर लटक कर जलूस देखना और उसे देख उत्पन्न अनुभूति याद आ जाती है।
और हाँ, पिताजी और उनका पाला भी। मैं दी की पक्की सहेली होते हुए भी आज भी पिताजी के पाले में ही स्वयं को पाती हूँ। दी, पिताजी क्या आपके उस संसार में भी पाले हैं? और क्या आज भी आप अलग अलग खड़े हैं?
( पिताजी का पक्की नौकरी वाला सुरक्षित संसार था और जानती समझती हूँ कि वैसा संसार, वातावरण सबको नहीं मिलता और न मिलता था। आज वैसी कम ही नौकरियाँ हैं और न वैसे सद्भावपूर्ण एम्प्लॉइअर और न पिताजी जैसे लोग। ये उद्गार आज के कम बचपन में उपजे अधिक हैं। बचपन, पिताजी व दी की यादें भी समेटें हैं। पिताजी होते तो शतक पूरा करने ही वाले होते और दी अपने जीवन के ६४ वर्ष। आप दोनों अजब बहानों से याद आते हो।
असहमत मित्रों के विचारों का सम्मान करती हूँ। इस लेख के द्वारा किसी के विचारों, धारणाओं को ठेस नहीं पहुँचाना चाहती। )
घुघूती बासूती
Ekdam sapaat. Keral ke shramik kuch jyada hi sanghatit hain. Yahan tak bola jaata hai ki jab bachha paida hota hai to uske haat mein laal jhanda hota hai. Aye din Hadtaal se sab oob gaye hain.
ReplyDeleteThe disclaimer is not needed. You have as much right to your opinions as any of us. This apologetic tone ill becomes you gb...
ReplyDeleteShilpa, no one knows everything, least of all me. I find it foolish to think that I am always correct. My opinions are born out of my experiences. I am not that learned either that I can claim to know more than what I experienced which was v limited. I have no shame in apologizing ever.
Delete:)
Deleteजब लिखा गया 'ठोस' हो तो किसी को 'ठेस' नहीं पहुंच सकती । बिना लाग लपेट के एक सच्चा सच , और अगली पोस्ट फिर जल्दी से |
ReplyDeleteईमानदार स्वीकारोक्तियाँ सभी को प्रभावित करती है !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज शुक्रवार (02-05-2014) को "क्यों गाती हो कोयल" (चर्चा मंच-1600) में अद्यतन लिंक पर भी है!
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बिलकुल मेरे पिता लगे ...अनुशासन में ..पुराने लोग एक से होते थे न! हर जगह -मेहनती ,अनुशासित ...
ReplyDeleteजीबी,
ReplyDeleteबालमन का अनुभव आगे (बड़ी उम्र में) नहीं बना रहना चाहिए था, अंततः आपके पिता जी भी एक मजदूर थे, भले ही वे दूसरे मजदूरों की तुलना में सुरक्षित दशाओं में श्रम (काम) करते थे ! वैसे आपके पिता जी ही क्यों मैं खुद भी एक मजदूर हूं ! उनका पाला अलग नहीं था और अगर वे ऐसा समझते थे या आप भी...तो यह उचित नहीं है ! आपकी दीदी ने नि:संदेह अपने छात्रों को बेहतर शिक्षा दी होगी ! उन्हें सैल्यूट !
उनका पाला अपनी हर दशा के लिए अन्य को उत्तरदायी न मानने का था. प्रयत्नशील रहने का था. अपनी दशा सुधारते हुए आने वाली पीढ़ी को जी जान से आगे बढाने का था, आत्म त्याग का था. उन्होंने हम पर सबकुछ न्यौछावर कर एक बड़ा जुआ खेला. स्वयं के लिए बहुत कम किया. हमारा ही नहीं अपने कई नाते रिश्तेदारों व अन्य जिनकी भी वे सहायता कर सकते थे का भविष्य बनाया. सौभाग्य से सेवानिवृत्ति के बाद वह सब मिला जो उनके त्याग के कारण हमारे हिस्से आया. दी को मृत्यु ने अवसर ही कम दिया.उन्हों ने अपने छात्रों को क्या पढ़ाया सिखाया वे तो उनके छात्र ही बेहतर बता सकते हैं, उन्हें मैं जानती ही नहीं. आशा है कि बेहतर मनुष्य ही बनाया होगा.
Deleteहर मेहनतकश को दिल से सलाम !! बेहतरीन पोस्ट !! ईमानदार स्वीकारोक्ति !!
ReplyDeleteसबसे अधिक प्रभावित किया पिताजी के आत्मानुशासन और उनके परिश्रम की उपज फल और सब्ज़ियों की क्यारी ....
ReplyDeleteआपके पिता आपकी दी के ही पाले में थे, बाकायदा धरातल पर। दोनों के पाले की मूलभूत परिस्थितियां और उनके व्यवहार समान ही हैं, मूलाधार समान हो तो अधिरचनाएं भले ही अलग प्रतीत हों, संघर्ष एक ही दिशा में होता है।
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन अक्षय तृतीया और ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteपूरा आलेख पढने के बाद बस सिर झुकाकर पिता जी को श्रद्धांजलि अर्पित करने का जी चाहता है. आपके आचरण आपके सिद्धांतों के अनुरूप होने चाहिये. दोहरे मानदण्ड ही आज के राजनेताओं का स्वाभाविक गुण बन गया है. ऐसे में पिताजी जैसे लोग अलग खड़े दिखाई देते हैं और उनका अलग खड़ा होना ही उनकी पहचान है.
ReplyDeleteहम सब मज़दूर ही हैं. हम टाइम वैल्यू ऑफ मनी की बात करते हैं लेकिन मनी वैल्यू ऑफ टाइम कभी नहीं सोचते. लोग पसीना बहाते हैं, हम समय बहा रहे हैं अपने परिवार वालों के हिस्से का!
एक सार्थक आलेख मई दिवस पर!!
Simply effective.. :)
ReplyDeleteSimply effective.. :)
ReplyDelete