मुम्बई की एक खबर है जो कई समाचार पत्रों में आई है। इस खबर के अनुसार एक ७३ वर्षीय स्त्री के पड़ोसियों ने पुलिस से शिकायत की कि वृद्धा के फ्लैट से दुर्गन्ध आ रही है व वह कई दिन से देखी नहीं गई है। पुलिस जब दरवाजा तोड़कर अन्दर गई तो बेहोश वृद्धा एक टूटी खाट पर पड़ी थी। उसके ऊपर कीड़े मकोड़े चल रहे थे। लगता था कि जमाने से घर की सफाई नहीं हुई थी।
वृद्धा को हस्पताल पहुँचाया गया। उनकी स्थिति देख कोई भी सहज ही सोचेगा कि वे गरीबी की मारी हुई थीं। किन्तु नहीं, उनकी खाट के नीचे से मिले एक बैग में ७ लाख रुपए पड़े थे। २ लाख के सेविंग सर्टिफिकेट थे। ९ सोने की चूड़ियाँ, एक चेन आदि भी थीं। बैंक में ७२ लाख रुपया पड़ा था। लाखों रुपए के शेयर सर्टिफिकेट घर पर पड़े थे। वह पहले एक डेयरी में काम करती थी और अब रिटायर होने के बाद उसे लगभग १५००० रुपए की पैन्शन हर महीने मिलती थी।
इससे पहले कि हम झटपट उसके बच्चों या परिवार को उसकी इस हालत का उत्तरदायी ठहराएँ, यह भी जान लें कि उसने विवाह नहीं किया था। पहले वह अपने तीन भाई बहनों के साथ यहीं रहती थी और वे सब एक दूसरे का ध्यान रखते थे। किन्तु उनके गुजर जाने के बाद वह अकेली रह गई और उसने किसी पर भी विश्वास करना बन्द कर दिया।
उसने कोई कामवाली भी नहीं रखी थी। वह किसी पड़ोसी से बातचीत नहीं करती थी। उसने अपने दूर के रिश्तेदारों से बभी मिलना बन्द कर दिया था।
बहुत से अकेले रहने वाले वृद्धों की यह स्थिति हो जाती है। दो तीन साल पहले भी एक वृद्ध की खबर समाचार पत्रों में पढ़ी थी। वह भी अकेला रहता था। विवाह नहीं किया था व भाई, बहनों से कभी सम्पर्क नहीं रखा था। जब उसकी तबीयत खराब रहने लगी तो अचानक एक भय ने उसे जकड़ लिया कि किसी दिन वह यूँ ही अकेला फ्लैट में मर जाएगा और उसका शव सड़ता रहेगा। बस फिर क्या था अच्छा खासा फ्लैट होने पर भी उसने घर छोड़ सड़क पर डेरा डाल दिया। किसी पड़ोसी ने उसको हस्पताल पहुँचाया और उसके भाई आदि का पता लगाया। किन्तु भाई उससे भी वृद्ध था और वह बोला कि मैं अपना ही ध्यान नहीं रख पाता तो उसका कैसे रखूँगा? कैसे अपने बच्चों से अपेक्षा करूँ कि वह मेरा, मेरी पत्नी का और उसका ध्यान रखें। घर छोड़ने के बाद से उसने परिवार से कभी कोई सम्पर्क या सम्बन्ध नहीं रखा सो अब हम उसका ध्यान क्यों रखें?
वृद्धावस्था में यदि अपनी सन्तान न हो, या वह दूर रहती हो या वह उत्तरदायित्व न लेना चाहे तो प्रायः वृद्धों की स्थिति खराब हो जाती है। बहुत बार हम उनके सम्बन्धियों को दोष भी नहीं दे सकते। हर परिवार में ऐसे वृद्ध सदस्य या सम्बन्धी पाए जा सकते हैं जो हर किसी पर शक करते हैं। कोई भी उनके घर आए या खोज खबर ले तो वे चिन्तित हो जाते हैं कि इसकी नजर मेरी सम्पत्ति पर है। ऐसे में स्नेही स्वजन भी दूर रहना पसन्द करने लगते हैं।
ऐसे ही एक परिवार में वृद्ध पत्नी को पति के हर रिश्तेदार पर शक होता था कि वे उनका पैसा हड़पना चाहते हैं। एक भतीजे पर शक है यह वह दूसरे भतीजे या उसकी पत्नी से कहती दूसरे पर शक है यह पहले से कहती। जब तक उनके पति जीवित रहे भतीजे व उनके परिवार वाले आते रहे, देखभाल भी करते रहे। किन्तु जब वे गुजर गए तो सबने जाना छोड़ दिया कि वे तो हमपर शक करती हैं सो बुरा भला सुनने को क्यों जाएँ। जिनपर उन्हें विश्वास हो वे ही जाएँ।
यह भी सच है कि बहुधा कुछ रिश्तेदारों की नजर अमीर वृद्ध के पैसे पर हो सकती है। यदि समय रहते ही, याने बहुत अधिक बूढ़े, कमजोर व निर्णय लेने की क्षमता खोने से पहले ही वृद्ध अपने भविष्य के बारे में निर्णय ले लें, उसे सुरक्षित व्यवस्थित कर लें कि जब हाथ पैर नहीं चलेंगे तो जीवन कहाँ व कैसे गुजारना है, मरने के बाद अपनी सम्पत्ति किसके नाम करनी है या कहाँ दान करनी है, तो उनका जीवन काफी बेहतर हो सकता है।
बुढ़ापा जीवन का सबसे लम्बा काल खँड हो सकता है। प्रायः इसे काटना कठिन हो सकता है। यदि स्वतन्त्र रह जीवन गुजारना हो तो बुढ़ापे को हम कुछ हिस्सों में बाँट सकते हैं (वैसे यह हर व्यक्ति के स्वास्थ्य के अनुसार जल्दी या देर से आएगा) ....
१. सबसे पहले सेवा निवृत्ति के एकदम बाद का समय जो लगभग साठ वर्ष से शुरू होता है। प्रायः शरीर व मस्तिष्क ठीक व स्वस्थ होते हैं। यदि लगे कि इतना पैसा नहीं जमा हुआ कि लम्बा बुढ़ापा आराम से कटे तो नौकरी या अंशकालिक नौकरी कुछ वर्ष और की जा सकती है। वैसे नौकरी करते रहने या फिर किसी और व्यस्तता को अपनाने से स्वास्थ्य भी बेहतर रहता है।
इस समय वे अपने ही घर में आराम से रह सकते हैं। किसी सहायक, कुक आदि की सहायता ले सकते हैं। किन्तु अपनी आवश्यकताओं व जीवन को थोड़ा संकुचित भी करना चाहिए ताकि जीवन सरल व सहज बन सके। आगे के जीवन की योजना भी अभी ही बना लेनी चाहिए।
यह निर्णय भी कर लेना चाहिए कि मृत्यु के बाद शरीर के अंग दान देने हैं या नहीं। यदि अधिक बीमार हो गए तो क्या मशीनों की सहायता से जीवित रहना है या नहीं। ये सब बातें लिविंग विल में लिखी जा सकती हैं। इस विषय पर फिर कभी चर्चा करेंगे।
२. ६५ या ७० के आसपास की उम्र.... अकेले रहना कठिन हो जाता है किसी अपने के सहारे की आवश्यकता पड़ती है ताकि आवश्यकता पड़ने पर डॉक्टर के पास ले जा सके, समय समय पर आपकी सहायता कर सके।
इस समय यदि बच्चे हों तो उनके घर के पास ही एक छोटा व आरामदेह मकान खरीदना चाहिए। ताकि वे समय असमय आपकी सहायता कर सकें व आप उनके बच्चों के साथ भी समय गुजार सकें।
किसी सहायक, कुक आदि की सहायता आवश्यक हो जाती है। बच्चे या मित्र सम्बन्धी बीच बीच में आकर आपको सुरक्षा का आभास दिला सकते हैं।
अपनी आवश्यकताओं को और अधिक सुकोड़ना होगा। सामान कम करना होगा। जीवन और सरल बनाना होगा।
३. ७० के बाद... अब अकेला रहना बहुत कठिन हो जाता है। अपने ऊपर कोई उत्तरदायित्व जैसे खरीददारी, कामवाली से काम करवाने, घर चलाने आदि का उत्तरदायित्व लेना थका देता है। इस समय किसी पहले से ही ढूँढे रिटायरमेन्ट होम चले जाना बेहतर हो सकता है। जहाँ आपकी हर आवश्यकता का ध्यान रखा जाता है। होटल की तरह आपके कमरे की सफाई, कपड़ों की धुलाई, खाने का प्रबन्ध हो जाता है। आप बस अन्य वृद्धों के साथ खेलें, गप्पे मारें, पुस्तकें पढ़ें या जो मन आए करें। यहाँ डॉक्टर , हस्पताल ले जाने, एम्ब्युलेंस आदि का प्रबन्ध रहता है।
आपका परिवार आपसे मिलने आ सकता है या आप उनसे मिलने जा सकते हैं।
४. जीवन का आखिरी पड़ाव। विस्मृति, गिरता स्वास्थ्य, पार्किन्सन्स या अन्य रोग या फिर सीधा सादा बुढ़ापा जब आप अपना ही उत्तरदायित्व नहीं ले पाते। किन्तु यदि आपने समय रहते ही इस स्थिति का भी प्रबन्ध कर रखा है तो कोई समस्या नहीं। रिटायरमेंट होम में ही असिस्टेड लिविंग का भी प्रबन्ध होता है। यहाँ दिन रात आपके पास एक सहायक रहेगा जो आपकी हर आवश्यकता जैसे भोजन खिलाना, स्नान, शौच आदि में आपकी सहायता करेगा।
आपका परिवार आपसे मिलने आ सकता है। यह देख सकता है कि आपकी देखभाल ठीक से हो रही है।
अभी ऐसे रिटायरमेंट होम्स की संख्या काफी कम है किन्तु जैसे जैसे लोग आत्मनिर्भर हो, एकल परिवार में विश्वास कर, बच्चों से अलग अपना जीवन जीने में विश्वास करने लगेंगे इनकी संख्या बढ़ती जाएगी।
वैसे भी जिनका अपना कोई न हो उनके लिए भी ये रिटायरमेंट होम्स वरदान साबित हो सकते हैं।
यदि खबर वाली महिला ने भी समय रहते ऐसा कुछ जुगाड़ किया होता तो आज वह इतने पैसे होने पर भी ऐसा दयनीय जीवन जीने को बाध्य न रह पाती। अपनी पैन्शन व जमापूँजी के ब्याज से वह एक साफ सुथरी आरामदेह जीवन का जुगाड़ तो कर ही लेतीं।
पुनश्चः जो संयुक्त परिवारों में खुशी खुशी बिना किसी को कष्ट दिए एक दूसरे के काम आ, अपने बच्चों, नातियों, पोतियों, पोते आदि के साथ उनका ध्यान रखते हुए अपना रखवाते हुए रह रहे हों उन्हें कोई समस्या नहीं किन्तु उन्हें भी प्लैन बी के रूप में ऊपर दिए सुझाव व ऐसे रिटायरमेन्ट होम्स का पता रखना चाहिए।
वैसे कई बार सभी तैयारियाँ करने पर भी कुछ ऐसा हो जाता है कि सारी योजनाएँ धरी रह जाती हैं।
घुघूती बासूती
बहुत अच्छी पोस्ट। अच्छे सुझाव हैं, बिना संतान वाले वृद्धाश्रमों में जायें ये तो सही है लेकिन बाल-बच्चों वाले क्यों जायें। जो सन्तान अपने पालक माँ-बाप का बुढ़ापे में ध्यान नहीं रख सकती, उसे धिक्कार है।
ReplyDeleteधिक्कारना बहुत सरल है. आप जो बात कर रहे हैं वह तब सही थी जब लोग ९० -९५- १०० वर्ष नहीं जीते थे. अब तो संतान भी बूढी हो जाती है.
Deleteअच्छे सुझाव दिये हैं।
ReplyDeleteआभार. इस विषय पर और पोस्ट भी लिखूँगी.
DeleteSujhav bahut achhe hain,lekin bahutse boodhe log in halon ko sweekar nahee karte...jaise ki mere pitaji. Maa aur pitaji ekdam sunsaan khetpe rahte hain....18 ghante bijli katauti...phone kabhi chalta hai kabhi nahi. Pitaji wahan se hilne ko taiyyar nahee. Aise me kya kiya jaye? Meree bahan saara kaam dhaam chhod ke Mumbai se wahan daudti phirtee hai. Mai unhen apne paas to rakh sakti hun lekin sehat ke karan khetpe baar baar nahee ja sakti.
ReplyDeleteहाँ क्षमा, ऐसा बहुधा होता है. सबसे कठिन बात तो यह है की ऐसे में लोग प्राय: बेचारे बेटे बहू को दुष्ट घोषित कर देते हैं. बेटियों से तो अभी भी समाज माता पिता की देख रेख की अपेक्षा नहीं करता.
ReplyDeleteऐसी घटनाएं बड़े शहरों में ज्यादा बढ़ रही हैं| आपके दिए सुझाव सभी बेहद अच्छे हैं, मुझे ध्यान है 5-6 साल पहल जब 'अहा जिन्दगी' पत्रिका का शायद पहला ही अंक आया था, उसमं 'आशियाना होम्स' क नाम से एक ऐसी ही हाऊसिंग टाऊनशिप का विज्ञापन था जिसमें वृद्ध नागरिकों को ही कस्टमर टार्गेट ग्रुप में रखा गया था| कांसेप्ट मुझे भी बहुत पसंद आया था और देखते ही देखते उन फ्लैट्स की कीमत बहुत ज्यादा हो गई| नर्मदा के किनारे भे ऐसा ही एक प्रोजेक्ट जानकारी में आया था और हरिद्वार ऋषिकेश में भी ऐसी हाऊसिंग सोसायटीज़ हैं| पैसे की उपलब्धता बढ़ने से भातिक सुख सुविधाएं भी बढी हैं लेकिन सामाजिकता कम हुई है| जहां तक हो सके उम्र बढ़ने के साथ समाज में सक्रियता भी बढनी चाहिए, ऐसा होने से समाज व व्यक्ति, दोनों को लाभ होगा|
ReplyDeleteशेष तो जैसा आपने अंत में कहा भी है, सब ठाठ पडा रह जाता है, जब लाद चले है बंजारा - ऐसा भी होता ही है|
संजय जी,
Deleteमैंने मुम्बई के बाहरी हिस्से में ऐसा एक सुन्दर रिटायरमेंट होम देखा। वहाँ कुछ समय भी बिताया। वहाँ रहने वालों से भी मिली। वह एक घंटा काफी यादगार रहा। हमने सोचा था कि दो दिन रात वहाँ बिताकर भी देखेंगे। वहाँ के जिन लोगों से मिले वे अति उत्साहित थे कि आओ मिलकर मस्ती करेंगे। किन्तु कुछ ऐसी स्थितियाँ बनीं कि चाहकर भी अभी तक नहीं जा पाई हूँ।
मुझे लगता है कि उपलब्ध विकल्पों को जाँच परख लेना चाहिए ताकि बाद का समय आराम से गुजरे।
रिटायरमेंट होम व वृद्धाश्रमों की जो छवि है उसमें अन्तर है। रिटायरमेंट होम साधन सम्पन्न लोग स्वेच्छा से जाते हैं। मुझे इसमें कोई बुराई नहीं लगती।
वैसे, सच में यत्न करना अपना काम है और जो होना है उसपर हमारा पूरा नियन्त्रण नहीं है।
छोटे परिवार, बढती स्वास्थ्य चेतना और सुविधा तथा बदलते आर्थिक-सामाजिक परिदृश्य में ऐसी घटनायें बढने की ही आशंका है। ऐसे में रिटायरमेंट होम्स, वृद्धाश्रम, और वरिष्ठ समुदायों की और उनके नियमीकरण दोनों की ही आवश्यकता बढेगी। आपका मनन-चिंतन सही दिशा में है। हमें भी इन बातों पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
ReplyDeleteयह घटना बहुत अधिक प्रश्न खड़े करती है..सब तथ्यों को ढंग से समझना होगा इसके लिये।
ReplyDeleteसमय रहते आखिरी पड़ाव ढूँढ ही लेना चाहिए। बढ़िया लगी पोस्ट।
ReplyDeleteबहुत सामयिक और सुविचारित सुझाव हैं !
ReplyDeleteएक बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दे पर एक विचारणीय लेख -मेरा भी पचपन इसी दिसम्बर में आ रहा है -मैंने कुछ प्वायंट नोट कर लिए हैं -सीरियस्ली!बहुत लोग वृद्धों की संपत्ति हडपने को भी गृद्ध दृष्टि लगाये रहते हैं -आपने सही कहा !
ReplyDeleteज़रूरी हैं ऐसे आलेख ..... आभार
ReplyDeleteसच है हमारा सामाजिक तानाबाना ही कहीं न कहीं ऐसी समस्याओं का हल खोज सकता है | स्वयं बुजुर्गों को भी उम्र के इस पड़ाव के लिए योजना बनानी चाहिए
बहुत ही खूबसूरती से आपने वृद्धावस्था की समस्याओं पर अपने विचार और महत्वपूर्ण सुझाव दिए हैं. उस वृद्धा की ही तरह कई अन्य मामले भी हमने देखे हैं. मुझे तो उन्हें किसी मनोरोग से ग्रसित होने का एहसास होता है. आपके बहुमूल्य सुझावों को ध्यान में रखते हुए हमने भी मानसिक मंथन की प्रक्रिया प्रारंभ कर दी है.
ReplyDeleteआप अगर दूसरों के काम आते रहिये तो दूसरे भी आपके काम आयेंगे.शायद यही प्रकृति का नियम है.
ReplyDeleteआपने ऐसे मुद्दे पर पोस्ट लिखी है जिससे हम में से हरेक को गुजरना ही है...
ReplyDeleteमैं कनाडा से साल में २ से ३ बार आती हूँ भारत, सिर्फ़ माँ की देख भाल के लिए, मेरी माँ कनाडा जाना नहीं चाहती, हर बुजुर्ग की तरह, उसे भी अपने घर-द्वार से बहुत लगाव है..और अगर ले भी जाऊं, तो वहाँ वो ख़ुद को खोया हुआ ही पाएंगी, और मैं नहीं चाहती जीवन के इस अंतिम पड़ाव में उसे जरा सी भी मानसिक तकलीफ हो, क्योंकि शारीरिक कष्ट तो उम्र के साथ मिल ही रहा है उसे, इसलिए यही एक चारा बचता है मेरे पास, मेरा भारत आना...
ये महंगा भी पड़ता है, और मुझे बच्चों को लम्बे समय तक अकेले छोड़ना भी पड़ता है...ऐसे में ये बहुत अच्छा विकल्प लगा है मुझे, बात करुँगी मैं भी माँ से....
ये अलग बात है कि समाज के लोग इसमें भी कोई न कोई खामी निकाल ही लेंगे, कि देखो कैसे बच्चे हैं माँ को वृधा-आश्रम में रख दिया...लेकिन दूर बैठ कर जजमेंट देना सबसे आसान काम है, जिसे ये सब करना पड़ता है वही जानता है, ये जिम्मेदारी इतनी आसान नहीं है...
जहाँ तक मेरे बुढ़ापे का सवाल है, मैं तो ऐसी ही जगह रहना पसंद करुँगी.... क्यूँ किसी पर बोझ बनना...
बहुत ही ज्वलंत समस्या पर आपने ऊँगली रखी है, आपका आभार..
मुझे भी अब तक ऐसा ही लगता था..वृद्धाश्रम में रहना बहुत ही दुखदायी है...जो बच्चे अपने माता-पिता की देखभाल नहीं करते ,उन्हें ही वृद्धाश्रम जाना पड़ता है.
ReplyDeleteपर रिटायरमेंट होम का आइडिया तो सचमुच बहुत अच्छा है...और आनेवाले दिनों में इसकी सार्थकता बढ़ने ही वाली है. एकल परिवार की संख्या बढ़ रही है...बच्चे माता-पिता को हर सुख-सुविधा मुहैया करवा भी दें, पर समय नहीं दे पायेंगे ..और माता-पिता की जिंदगी बहुत ही बोरियत भरी हो जायेगी. ऐसे में रिटायरमेंट होम काफी उपयोगी साबित होंगे .
वृद्धावस्था की एक समस्या और है...एक मेरे परिचित की माँ बहुत सारी काल्पनिक बीमारियों से परेशान रहती हैं. बार बार डॉक्टर के आश्वस्त करने पर भी कि सब ठीक है..उन्हें लगता है, वे बीमार हैं. उन वृद्धा की बहन एक 'नन' हैं...उन्होंने सलाह दी कि इन्हें कुछ दिन ओल्ड एज होम में रखें तो शायद अपने जैसों को देखकर वे अच्छा महसूस करेंगी. अपने आस-पास युवा लोग..उन्हें तेजी से हर काम करते देख वे frustrated हो जाती हैं क्यूंकि वे अब पहले की तरह हर काम नहीं कर पातीं और इसलिए खुद को बीमार जैसा महसूस करने लगती हैं.
वृद्ध हर काल में, हर घर में उपेक्षित होते रहे है चाहे आर्थिक हो सामाजिक रूप में हो |किन्तु पहले पूरी तरह से परिवार पर आश्रित रहते थे ,आज बहुत कुछ बदल गया है औ साथ साथ उम्र का ओसत भी \किन्तु आर्थिक द्रष्टि से आज के वृद्ध ज्यादा समर्द्धहै ऐसे में आपके द्वारा बताये गये सुझाव जिन्दगी की शाम को रौशनी दे सकते है |
ReplyDeleteसमस्या का समाधान अच्छा है पर बहुत वृध्द इसके लिये तैयार नही होते । उन्हें युवा व्यक्तियों के साथ रहना ज्यादा अचचा लगता है बनिस्बत अपने हमउम्र लोगों के . शायद इसलिये कि वहां जिंदगी जीने की उसके लिये जद्दोजहद करने की तमन्ना और माद्दा दोनो ही हैं ।
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