Tuesday, May 15, 2012

ना, प्लीज़, लिजलिजी भावुकता तो रहने ही दो!.............................घुघूती बासूती


जब हम स्त्रियों, बच्चियों, बेटियों, लड़कियों की बात करते हैं तो वैसे नहीं करते जैसे किसी सामान्य मानव की करते हैं जिसके अधिकार हैं, दुख हैं, सुख हैं, इच्छाएँ हैं, आकांक्षाएँ हैं, जो सही भी हैं, गलत भी, बुरी भी, भली भी। हम उन्हें या तो सारी समस्याओं की जड़ मान जन्म ही नहीं देना चाहते या फिर एक तो चलेगी या यदि बहुत ही भले हुए तो दो तो चलेंगी किन्तु उससे अधिक नहीं, ना, ना बाबा, क्या लड़कियों की लाइन लगानी है, जैसी बातें करते हैं, उनके दहेज की चिन्ता में दुबले हुए जाते हैं, उन्हें 'पराया धन', 'चिड़िया', 'मेहमान', 'पराई अमानत' कहते हैं या फिर 'बेटियों से ही घर की रौनक होती है', या उन्हें 'लक्ष्मी' कहते हैं, उन्हें 'पूजनीय' बनाने की चेष्टा करते हैं, उसे 'माँ' मानते हैं, उससे पैर नहीं छुआते, उसके पैर पूजते हैं। अर्थात वह सबकुछ करते हैं जो उसे सामान्य सहज न होने दे, उसे चेताता रहे कि वह अलग है, परिवार की सदस्य होते हुए भी या तो परिवार पर बोझ है या उसमें विशेष स्थान रखने वाली 'मेहमान' है जिसे जहाँ वह है वहाँ सदा नहीं रहना, जिसका घर परिवार दूर कहीं और है।

'साडा चिड़ियाँ दा चम्बा वे बाबुल असाँ उड़ जाणाँ', 'बाबुल की दुआएँ लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले' आदि गीत स्त्री का भला नहीं करते अपितु बचपन से ही ऐसे गीत व विभिन्न आशीर्वाद जैसे 'सौभाग्यवती भवः', 'पुत्रवती भवः', विभिन्न मुहावरे, लोकोक्तियाँ जैसे 'अबला तेरी यही कहानी आँचल में दूध आँख में पानी' आदि स्त्री को अपने को या तो कुछ 'कम मानव' या त्याग की मूर्ति टाइप कुछ 'अधिक मानव' मानने को प्रेरित करते हैं। यदि बच्ची अधिक सोचने विचारने वाली हुई तो ये बातें उसे उद्वेलित करती हैं, यदि नहीं तो वह इस यथास्थिति को स्वीकार कर अपने को एक 'बोझ' या 'परजीवी' मानती हुई जीती है, यदि एक और चतुर मानसिकता व बुद्धि की हुई तो 'इस परिवार' से जितना बटोर सकती है बटोरकर अपने 'असली घर' ले जाने को तत्पर रहती है, दहेज की माँग हो या न हो वह जितना हो सके जब जब हो सके 'उस घर' ले जाना चाहती है, जो देखा जाए तो तर्कसंगत है। 'यह घर' तो जब उसका है ही नहीं तो वह इससे क्यों जुड़े?

स्कूल में दसवीं में एक हिन्दी पुस्तक थी, शायद नाम था 'साहित्य श्री'। इसमें 'बिटिया की विदाई' जैसे नाम का एक पाठ था जो इतना लिजलिजा था कि इसे झेलना कठिन हो जाता था। मुझे लगभग सबकुछ पढ़ना पसन्द था, विज्ञान भी व भाषाएँ भी। किन्तु पूरे स्कूली जीवन में जो पढ़ना मुझे अंगारों पर चलने समान लगता था वह यही पाठ था। उसमें बेटी के विवाह, फेरों, 'अग्नि में अब तक के जीवन के जलकर राख होने', व 'पति की परिणीता के रूप में नए जन्म' की बात, विदाई के हृदयविदारक दृष्य का वर्णन था।  

लेखक का नाम मुझे याद नहीं किन्तु उस उम्र में भी यदि वह व्यक्ति मुझे मिल जाता तो वह मेरे शब्दबाणों से न बच पाता। किन्तु कहते हैं न कि जीवन का हर अनुभव कुछ न कुछ सिखा जाता है सो इस पाठ ने मुझे जीवन भर के लिए इन विदाई गीतों, बेटी के जन्म, विवाह, हर बार उनके घर से जाते समय की विदाई के रोने के प्रति प्रभावशून्य कर दिया। जब भी ऐसा कोई क्षण मेरे जीवन में आया, चाहे अपने विवाह के रूप में या बेटियों के विवाह के रूप में आँखें कभी गीली नहीं हुईं, मन ने कहा 'न घुघूती प्लीज़, लिजलिजी भावुकता तो रहने ही दो!' 


पिछले महीने बारी बारी दोनो बेटियाँ व जवाँई हमारे पास रहकर गए। हवाईयात्रा ने इतनी सुविधा कर दी है कि दो एक छुट्टी लेकर भी बच्चे हमसे मिलने आ सकते हैं। जब बिटिया जा रही थी तो माँ कुछ भावुक होकर शकुन्तला के जाते समय  कण्व ॠषि  द्वारा कहे शब्द दोहरा रही थीं, 'यदि मुझ जैसे वनवासी को बेटी(पाली हुई )के जाने पर इतना दुख हो रहा है तो गृहस्थों को कितना दुख होता होगा।' मैं बेटी जवाँई को छोड़ने नीचे कार तक गई और लौटकर आकर माँ से बात करने लगी। उन्हें बताया कि मेरे लिए उसका जाना जरा भी कष्टप्रद बात नहीं है।

उन्हें कहा कि बेटे या बेटी किसी का भी जाना दुखदायी नहीं है। दोनो बेटियों के विवाह में भी मैं न भावुक हुई न परेशान। जिनसे विवाह कर रही थीं उन्हें जानती थी। बेटियों पर विश्वास था, उनकी पसन्द पर विश्वास था। सो माँ को याद दिलाया कि कैसे हम निश्चिन्त थे। एक का विवाह तो रजिस्टर्ड था और हमने केवल उत्सव मनाया, कोई चिन्ता कोई परेशानी नहीं हुई। दूसरी का सप्तपदी वाला था और हमने तो विवाह की रस्म जरा लम्बी खिंच जाने पर कुछ झपकियाँ भी लीं थीं, केमरे ने जो दर्ज कर लिया। पति व मैं कई फोटो में मस्त सोते हुए पाए गए। चिन्ता, परेशानी रोना, उदास होना हमसे कोसों दूर था। एक दो मजाक हुए और माँ भी हँस पड़ीं।

बेटा हो या बेटी वे दोनों ही अपने घर जाएँगे ही। सन्तान जब बड़ी हो जाए तो वह हमसे अलग रहेगी ही। वे आए, हमारे साथ सुखद समय बिताया, बाबा (घुघूत ) का जन्मदिन मनाया अब अपना अपना काम देखेंगे अपने घर जाएँगे। शायद यह बेटियों शब्द के साथ 'आँसू चिपका देना' हमारी बचपन से कन्डिशनिंग का फल है। मैंने माँ को डीकन्डिशन कर दिया, न अपने लिए रोने दिया न बेटियों के लिए।

शायद बेटियों के जाने के साथ जो उदासी, आँसू या आँखें नम होना प्रचलित है उसका कारण एक प्रकार की असहायता है। माता पिता बेटी को दूसरे को सौंप उन दूसरों व उसके भाग्य के हवाले कर देते थे व आज भी करते हैं। बस यही कारण है कि बेटी का नाम लेते ही विदाई, आँसू शब्द भी साथ चले आते हैं। शायद इन आँसुओं के साथ माता पिता बेटी के प्रति अपना उत्तरदायित्व भी बहा देते हैं और भविष्य का कोई अपराधभाव भी।

जब बेटी विवाह से पहले व बाद में भी हमारे घर का वही हिस्सा बनी रहती है जो परिवार के अन्य सदस्य जैसे बेटे होते हैं तो पलकें भीगती नहीं, हँसी ठहाके गूँजते हैं, माँ जितना बेटी को जाते समय अपना ध्यान रखने को कहती है शायद बेटों की माएँ भी उन्हें कहती होंगी। यदि हम बेटियों को सक्षम बनाएँ, उनका साथ देने को सदा तत्पर रहें तो हम 'लिजलिजी भावुकता' को छोड़, अपनी व बेटी दोनों की आँखों में आँसुओं की जगह विश्वास व खुशी की चमक ला सकते हैं।

घुघूती बासूती

34 comments:

  1. जी.बी.,
    बेटियों / स्त्रियों के साथ चिपकाये जाने वाले विशेषणों / शब्दों का ख्याल तो है लेकिन मुझे नहीं लगता कि अपनी बिटिया के लिए मेरे मन में जो भी भावुकता है उसमें लेशमात्र भी लिजलिजापन होगा ! आप जो कह रही हैं वह समाज में बहुतायत के लिए सत्य हो सकता है पर सभी के लिए नहीं !

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  2. बहुत नाजुक विषय को आपने बड़े खूबसूरत ढंग से लिखा है. समाज की सोच बदलने के लिए ऐसे विचारोत्तेजक रचनाये प्रसंसनीय हैं.

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  3. बिल्कुल अली जी। कोई भी बात सब पर कैसे लागू हो सकती है? हर भावुकता लिजलिजी नहीं होती। किन्तु जिस भी भावुकता से हम बेटी को कमजोर करें वह न ही हो तो बेहतर।
    घुघूती बासूती

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  4. हाल के दिनों में पढ़े बेहतरीन लेखों मे एक है यह.. खासकर अपने भावों के कारण। यह आईना दिखाता है हमें। कोई भी जुड़ाव या लगाव चाहे मां-बाप और बच्चों का हो, या पति-पत्‍नी का या प्रेमी-प्रेमिका का, थोड़ी भावुकता को जन्म को देता ही है लेकिन आपने सच कहा कि यह लिजलिजी भावुकता हमारी सामाजिक कंडीशनिंग का असर है, हमारी अंदरूनी संवेदनाओं का नहीं।

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  5. भावुकता अपनी जगह सही है....बच्चा जब हॉस्टल भी जाता है..तब भी माँ का मन भावुक हो जाता है...दो सहेलियाँ भी बिछुड़ती हैं तो रो पड़ती हैं....

    पर हाँ, अक्सर बचपन से ही ऐसी कंडिशनिंग की जाती है कि स्टीरियो टाइप रिएक्शन होते हैं..वो सही नहीं है. 'लडकियाँ पराया धन हैं'....'किसी की अमानत हैं'....'ससुराल में डोली जाए तो अर्थी ही निकलनी चाहिए ' इस तरह के जुमले ,बचपन से ही उनके दिमाग में भरना...बहुत ही गलत है...वे भी खुद को असहाय समझने लगती हैं और अन्याय का प्रतिकार नहीं कर पातीं.

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  6. लड़कियों को लेकर ये लिजलिजी भावुकता तो होती ही है, लड़कियों को खूब 'इमोशनल ब्लैकमेल' भी किया जाता है.
    आपकी बातें मुझे हमेशा अपने पिताजी की याद दिलाती हैं. वो हमेशा लिजलिजी भावुकता के विरुद्ध रहते थे, विशेषकर लड़कियों के लिए. वो अक्सर मुझसे कहते थे कि तुम्हें बाहर निकलना है, रोओगी तो रोती ही रहोगी, इसलिए जितना हो सके खुद को मजबूत बनाओ.

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  7. आप ने बिलकुल सही कहा।

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  8. बहुत ही बेहतरीन और प्रशंसनीय प्रस्तुति....

    इंडिया दर्पण की ओर से आभार।

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  9. यह निर्भर करता है कि आप किस परिवेश में हैं और आप पर किस तरह के संस्कार पड़े हैं -आप अपवाद हो सकती हैं मगर बेटी की घर से विदाई एक आम माँ बाप को बेहद भावुक कर जाती हैं ....कभी कभी हम अपनी विशिष्टताओं का बखान करते नहीं अघाते और सोचते हैं एक उदाहरण समाज के सामने रख रहे हैं ....मगर आपका यह उदाहरण ज्यादा लोगों को भाव -प्रेरित नहीं करेगा ...
    दरअसल मनुष्य भावुक (या कथित लिजलिजी भावुकता ) तब होता है जब किसी घटना से खुद उसके मनोभाव जुड़ जाते हैं ..
    बेटी की विदाई है तो ज़ाहिर हैं माँ को अपनी भी विदाई और आगत की यादें आना सहज है ....पिता को यह कि पता नहीं इन लाज इसे कैसे रखेगें ? आदि आदि..यह सब बहुत सहज है ..भावनाएं मनुष्य की अमूल्य निधि हैं ....उन पर उपहास उचित नहीं !

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  10. भावनात्मक परिपक्वता के बजाय जब भावुकता को ही बढावा दिया जाता है तो उसका लिजलिजा होते जाना स्वाभाविक है। शादी के बाद (या उसके पहले भी) बच्चे अपने पैरों पर खड़े होकर माँ-बाप से अलग रहते तो शायद यह भेद उत्पन्न न होता मगर केवल लड़की द्वारा (वह भी शादी होने पर ही) अपना घर छोड़ने की परम्परा ने आँसुओं को और जगह दी। जिन्होंने बेटियों के लिये वर ढूंढे हैं वे समय-समय पर ऐसे जंगली लोगों से मिले होंगे जिन्हें इंसान कहना भी शायद टू-मच हो। पुराने लोग तो वर को विष्णु का रूप सोचकर चरण पड़कर निश्चिंत हो जाते थे मगर आज के लोग मन मसोसकर ही बेटी देते हैं और बहुत से मामलों में वे बेटियाँ भी इस असमान परम्परा पर कुनमुनाती तो हैं लेकिन बदलाव की बात कहीं नहीं होती। आप तो माशा-अल्लाह बहुत प्रोग्रैसिव हैं, ये सद्विचार सामने आते रहें, सोच बदलेगी धीरे-धीरे।
    - बच्चे अधिक स्वतंत्र (और परिपक्व) हों
    - माँ बाप बच्चों को सम्पत्ति नही, व्यक्ति समझें
    - विवाह किसी एक जेंडर के त्याग से ऊपर उठे
    - बच्चे अपनी इच्छा से साथी चुनें (पर खरे-खोटे की समझ भी रखें)

    "साडा चिड़ियाँ दा चम्बा" और "अबके बरस भेज भैया को" आदि सुनकर मेरा दिल भी आद्र होता है मगर मैं बचपन से ही ऐसे गीत सुनकर आश्चर्यचकित भी होता था कि परिस्थितियाँ ऐसी क्यों हैं, इन्हें कैसे बदला जाये। वैसे भी आज की तकनीक में कौन किससे बिछड़ता है (जब तक ऐसी इच्छा न हो)

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  11. मै भी अपनी इक्लौती बेटी को बेटी समझ कर नहि पाल रहा हूं . और मुझे यकीन है वह किसिइ भि स्तर पर बेटे से कमतर नहि होगी .

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  12. बातें तो अच्छी-अच्छी कहीं हैं आपने लेकिन एक बात तो तय है कि बेटी की विदाई के वक्त कोई अपने आँसू नहीं रोक सकता। विदेह भी विचलित हुए थे।

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  13. भावुकता लिजलिजापन नहीं है , चाहे बेटा हो या बेटी , घर से दूर जा रहे हो तो माँ का भावुक होना एक स्वाभाविक क्रिया है . इसी प्रकार पति -पत्नी , प्रेमी -प्रेमिका , दोस्त जो प्रेम और स्नेह के रिश्तो में बांधे होते हैं , उनसे दूरियां आंसू की वजह बनते हैं .
    लड़कियों के मन में यह भरना कि "यह घर उनका नहीं है , उन्हें पराये घर जाना है, डोली में आई हैं तो अर्थी पर ही निकलेंगी "जैसी मानसिकता जरुर लिजलिजी हो सकती है !

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  14. @ बेटी को बेटी समझ कर नहीं पाल रहा हूँ ?? बेटी होना अपराध है ?? ...शायद आपका मंतव्य कुछ और रहा हो मगर शब्द कुछ और ध्वनित कर रहे हैं

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  15. mujhae to har samay striyon kaa rona , haay haay karna ki haay ham kyun stri huae badaa hi lij lijaa lagtaa haen

    har jagah aurat ko itna sehan sheel dikhaayaa jaataa haen jaese mitti kaa laundaa . paani daalo aur bahaa do

    par kyun dikhyaa jaataa haen kyuki har kissa kehani aurat kae isii swaroop sae aas paas bunaa jataa haen

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  16. बेटियों को सक्षम बनाएँ, उनका साथ देने को सदा तत्पर रहें तो हम 'लिजलिजी भावुकता' को छोड़, अपनी व बेटी दोनों की आँखों में आँसुओं की जगह विश्वास व खुशी की चमक ला सकते हैं..
    sateek nischkarsh... yahi sabki soch bane to kitna sundar hota ye jahan..
    bahut sundar prastuti..

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  17. जब तक मोह विजय का गम्भीर सामर्थ्य नहीं आता, भावनाएँ निष्क्रिय नहीं होती। गम्भीर चिंतन के पूर्व भावनाओं को निष्क्रिय करना सम्वेदनाओं की अकाल मृत्यु के समान है। किन्तु विवेकपूर्वक अनावश्यक भावुकता का त्याग निश्चित ही मोह-नियंत्रण का सार्थक पुरूषार्थ है।

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  18. वाणी गीत से सहमत. बहुत अच्छी पोस्ट. एक दिन में अपनी बेटी से ज्यादा ही खुश होकर बोली "तू मेरी बेटी नहीं, बेटा है". उसने हँसते हुए पलटकर पुछा "बेटा क्यों, बेटी क्यों नहीं, क्या आप भैया को कभी इसका उलट बोल पाएंगी". यकीन मानिये, उसका जवाब सुनकर मुझे अपने मानसिक दिवालियेपन पर कोफ़्त ही हुई.

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  19. ...क्या संवेदनशील होना लिजलिजापन है ?
    हम आज भी सिनेमाई दृश्यों को देखकर द्रवित हो उठते हैं तो अपनी संतान के बिछड़ने पर आंसुओं को भी न आने दें ? ऐसे ही चलता रहा तो धीरे-धीरे सब कुछ सामान्य हो जायेगा और हम किसी भी बात या वजह पर स्पंदित नहीं होंगे !

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  20. यह लिजलिजी भावुकता सदियों पुरानी है और माता पिता की ओर से स्त्री की झोली में डाली गई थोड़ी सी वस्तुओं में से सबसे बहुमूल्य मानी जाती है और यही लिजलिजी भावुकता स्त्रियों को बेड़ी की तरह पहना दी जाती है और फिर जीवन भर हमें इससे मुक्ति नहीं मिलती और यही हम अपनी बेटियों को अपनी थाती की तरह उपहार में दे देती हैं इसलिए इससे बचना, विशेषकर स्त्रियों बेटियों के मामले में, बहुत आवश्यक है।

    इसीलिए रश्मि स्त्रियों के लिए इससे बचना आवश्यक है। हॉस्टेल जाने मे स्थाई जाना नहीं होता जबकि प्रायः लोग बहुत यत्न कर बेटी को विदा करने का जुगाड़ बैठा पाते हैं और उसके स्थाई होने की जी जान से कामना करते हैं। वह बेटे के हॉस्टेल या नौकरी करने जाने सा नहीं होता। बेटी की विदाई स्कूल से स्कूल लीविंग सर्टिफिकेट लेने जैसी होती है। मायके के रजिस्टर, नाम, जाति, गोत्र, राशन कार्ड से नाम कटवाकर नई जगह दाखिले के लिए प्रार्थनापत्र देने जैसी। और यह प्रार्थनापत्र देने के बाद स्वीकृति की मोहर लग जाएगी या नहीं इस भय से अभिभावक बेहाल होते हैं। क्योंकि समाज की दृष्टि में मायके के रजिस्टर से तो नाम कट चुका और यदि वहाँ के रजिस्टर में न लिखा गया तो बेटी न यहाँ की न वहाँ की रहेगी। यह बात तो कल्पनातीत है कि वह अपना नया रजिस्टर चालू कर सकती है!
    घुघूती बासूती

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  21. मुक्ति, तुम्हारे पिता सही कहते थे। मैं भी इस भावुकता से बचने को इसीलिए कह रही हूँ क्योंकि यह हमें कमजोर बनाती है। अन्यथा बाल्टी सामने रख सिनेमा देखने में मुझे कोई बुराई नजर नहीं आती। :D
    घुघूती बासूती

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  22. अरविन्द मिश्रा जी, उपहास करने का मेरा कोई उद्देश्य नहीं। आप सही कह रहे हैं कि लोग क्यों रोते हैं। विदाई का अर्थ ही स्थाई तौर पर जाना होता है। हॉस्टेल जाने मे स्थाई जाना नहीं होता जबकि प्रायः लोग बहुत यत्न कर बेटी को विदा करने का जुगाड़ बैठा पाते हैं और उसके स्थाई होने की जी जान से कामना करते हैं। वह बेटे के हॉस्टेल या नौकरी करने जाने सा नहीं होता। बेटी की विदाई स्कूल से स्कूल लीविंग सर्टिफिकेट लेने जैसी होती है। मायके के रजिस्टर, नाम, जाति, गोत्र, राशन कार्ड से नाम कटवाकर नई जगह दाखिले के लिए प्रार्थनापत्र देने जैसी। और यह प्रार्थनापत्र देने के बाद स्वीकृति की मोहर लग जाएगी या नहीं इस भय से अभिभावक बेहाल होते हैं। क्योंकि समाज की दृष्टि में मायके के रजिस्टर से तो नाम कट चुका और यदि वहाँ के रजिस्टर में न लिखा गया तो बेटी न यहाँ की न वहाँ की रहेगी। यह बात तो कल्पनातीत है कि वह अपना नया रजिस्टर चालू कर सकती है! सो रोना स्वाभाविक है।
    किन्तु वे जो नया रजिस्टर चालू करने का साहस रखती हैं, या बिना रजिस्टर हुए भी जी सकती हैं, वे क्यों रोएँगी? मेरे मामले में जिसे वह छोड़ रही हैं वह उनका था ही कब? जो नाम, पता, गोत्र, जाति, लोग आपके अस्थाई अपने थे उनके लिए क्यों क्रन्दन?(गीता,धार्मिक ग्रन्थों व धार्मिक वातावरण में अधार्मिकों ने भी जिया व जीवन मूल्य गढ़े होते हैं! ) धान की रोप क्या उखाड़कर खेत पर लगाए जाने के लिए रो सकती है? इस विषय में आगत की यादें नहीं रुलातीं क्योंकि मुझे गाय की तरह इस खूँटे से उस खूँटे नहीं बाँधा गया था। यदि वह खूँटा था ही तो मेरी अपनी पसन्द का, अपने द्वारा प्रबन्धित विवाह व उसकी तैयारियाँ थीं। बारह वर्ष की माँ भी खूँटा बदला जा रहा है यह जाने बिना हाथ में कल्याण उठा पढ़ते पढ़ते मायके के भीड़ भरे शहर से पहाड़ के जंगल से गाँव में आँसू बहाए बिना पहुँच गईं थीं। इस बार जो उनकी पलकें भीगीं वे शायद किस्से कहानियों या समाज या टी वी सीरियल्स का प्रभाव था जो याद दिलाते ही गायब हो गया।
    मैं अब भी कहूँगी यदि बेटियों का अस्तित्व बचाना चाहते हैं तो उन्हें सशक्त, सक्षम बनाइए। उनके साथ ये कमजोर करने वाले विशेषण न लगाइए, न उन्हें रोने को प्रेरित कीजिए। अपने पर एक विश्वास के साथ किन्तु सजग होकर उन्हें नया वैवाहिक जीवन आरम्भ करने की प्रेरणा मिले तो बेहतर है। वैसे ये मेरे विचार हैं (स्वाभाविक है अपने लेख में मेरे विचार ही तो होंगे ) जो अन्य पर लागू नहीं हो सकते।
    घुघूती बासूती

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  23. कई बार बात सोच पर निर्भर करती है ! काश आप जैसी समझदार माँ हर किसी को मिले , ताकि बेटी का जीवन संवर सके ! सुन्दर एवं उम्दा पोस्ट के लिए बधाई !

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  24. भावुकता लिजलिजी नही होती सोच होती है बस उसे बदलने की जरूरत है बाकि आँसू का आना तो समय और परिस्थिति पर निर्भर करता है ………फिर चाहे कोई भी हो पति, बेटा या बेटी या दूसरा कोई भी रिश्ता आंसू लिजलिजेपन के द्योतक नही।

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  25. धीरू जी, यह बेटी को बेटा समझना, बहू को बेटी, सास को माँ, ससुर को पिता, समझ नहीं आता कि बेटी, बहू, सास, ससुर होने में क्या बुराई है? ये क्यों दोयम दर्जे के प्राणी हैं? बेटी को बेटी ही मानिए और संतान के सब अधिकार दीजिए।
    शायद आप कुछ और कहना चाह रहे हैं जो हम ठीक से समझ न पाएँ हैं।
    घुघूती बासूती

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  26. देवेन्द्र जी, मुझे या मेरे पति को आँसू बहाने का कोई कारण नहीं मिला। विचलित होने का भी नहीं। क्योंकि पहले बेटी अकेली रहती थी अब दुकेली रहने वाली थी सो चिन्ता के कारण और भी कम थे।
    दो बहनों, दो बेटियों, कई सारी भतीजियों के विवाह हुए और मेरा अपना भी, किन्तु आँसू तो किसी भी विवाह में नहीं बहे। कुछ विवाह सफल हुए कुछ असफल। यही शायद संसार का नियम है। सबकुछ सदा आनन्दमय तो होता नहीं। किन्तु अपनी तरफ से ठोकपीट कर बनाए गए सम्बन्ध कुछ तो विश्वास उपजाते ही हैं।
    घुघूती बासूती

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  27. @घुघूती जी,
    आपका कांटेक्स्ट भिन्न है ,,मगर जरा अनुराग जी की टिप्पणी में देखें -भारत का एक आम पिता किस तरह के लोगों परिवारों को खोजता फिरता है बेटी के व्याह के लिए -वह बेटी की विदाई के समय उन आशंकाओं से भी ग्रस्त रहता है कि बेटी पता नहीं खुद को कैसे एक नए परिवार में ढालेगी-परिवार सचमुच अच्छा मिला या नहीं यह तो काफी बाद में पता चलता है !

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  28. अधिक भावुकता में हम चीजें सही से नहीं देख पाते हैं।

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  29. मृत्यु से जुडी एक और लोक परम्परा है और इसे भी सदियों से समाज ने एक अनुष्ठान का रूप दे दिया है .....किसी स्वजन के मृत्यु के उपरान्त बड़े विस्तृत और लम्बे समय तक स्त्रियों के रोने के प्रदर्शन का ....इसे हमारे यहाँ 'कारण कर कर के रोना' कहते हैं और यह बड़े अंचल में प्रचलित है ....स्त्रियाँ बहुत सी संगत असंगत बातों को रोते हुए कहती जाती हैं -मृतक को कई उलाहने भी देती है जो मृतक के प्रति उनकी घनिष्टता के स्तर को दर्शाती हैं ....ऐसा रुदन अनुष्ठान दूसरे विछोह के अवसरों पर भी होता है ..जैसे जब कोई लडकी विवाहोपरांत पिता का घर छोड़ के पहली बार विदाई पर ससुराल जाती है -तब भी वह जिस किसी को देखती है कई कई बातें कहकर एक ख़ास रोने की शैली अपनाती है ..कई बार तो मुझे यह बड़ा हास्य मूलक भी लगता है...अब जैसे विदाई के वक्त किसी भी अड़ोसी पड़ोसी को देखकर रोजमर्रा की दिनचर्या का कोई प्रसंग छेड़ देना ..अब कब कौन गाय को भूसा देगा या भैंस का दूध दुहने में उसकी मां या बापू का मदद करेगा अदि आदि ....मगर ये लोक प्रथाएं है और किंचित भी किसी तरह की अपसंस्कृति नहीं ....इसलिए हमें इनके प्रति एक सहिष्णु भाव रखना पड़ता है भले ही इनको लेकर थोड़ी हंसी ठिठोली हो जाय!

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    जो दूसरो की भावनाओं का उपहास उड़ाते हैं वो आप को सीख दे रहे हैं जी बी

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  30. काश यह सब कुछ करना इतना सहज होता अपने समाज के लिये।

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  31. बधाई हो,आपकी यह पोस्ट आज के 'हिंदुस्तान' में !

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  32. अच्छा लेख है.....लेकिन नितांत एक-पक्षीय ...
    ठीक है बेटियों को सक्षम बनाइये....लेकिन लिजलिजी भावुकता क्या चीज है.....संवेदना को गलत नाम न दें....ये संवेदना केवल स्त्री में ही नहीं पुरुषों में भी उतनी ही पाई जाती है.....जैसे आप अपनी लड़की की विदाई में दुखी होते हैं(आप की लिजलिजी भावुकता ) ठीक वैसे ही तब भी दुखी होते हैं जब आप का लड़का कई हजार किलोमीटर दूर कहीं नौकरी करने जाता है, और आप को मालूम है की दिन-रात आप के साथ रहने वाला शक्श अब कभी-कभी ही आप के पास होगा.....ये संवेदना ही इस मानवीय सृष्टी का आधार है.....वर्ना हममे और रोबोट में क्या अंतर........

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  33. mujhe aapki email id chahiye .... rasprabha@gmail.com per

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  34. बेटी हो या बेटा संस्कारवान बनाये जाने चाहिए. उनकी उचाई के आगे नत मस्तक

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