Tuesday, April 10, 2012

भय और अधिक भय


हम साऊदी अरब में रहते थे। बब्बन मियाँ को पति पसन्द करते थे और वे मेरे बच्चों के प्रिय ड्राइवर थे व उनके मित्र भी। हम प्रायः उन्हें ही साथ लेकर खरीददारी के लिए पास के शहर जाते। हम दुकानों, सुपर मार्केट के अन्दर खरीददारी करते और बाहर बच्चे उनसे खेलते, बतियाते रहते।

उस दिन एक सहेली का फोन आया कि पॉटलक डिनर करेंगे। कौन क्या बना रहा है पर चर्चा हुई और मैंने रस मलाई बनाने का जिम्मा ले लिया। बनाने के लिए कुछ सामान की आवश्यकता हुई तो मैं उस सामान व कुछ अन्य सामान की सूची ले पास के शहर खरीददारी करने चली गई। एक दुकान में सामान माँगा तो सारा नहीं मिला। दो एक सामान जो नहीं मिले तो 'सर(वे मुझे भी सर ही कहते) मैं यह सामान दो एक दुकान से ढूँढकर लेकर आता हूँ तब तक आप यहीं बैठिए' कहकर बब्बन मियाँ पास की दुकान चले गए।

मैं एक बेंच पर बैठकर प्रतीक्षा करने लगी। तभी सामान लेकर एक छोटा ट्रक आकर दुकान के सामने रुका। हिन्दी बोलने वाला वह दुकानदार एकदम से बोला, 'मैडम अरबी लोग सामान देने आ रहे हैं अब आप यहाँ अकेली कैसे बैठ सकती हैं? और आप तो भारतीय हैं, आपको अकेली देखकर वे आपत्ति करेंगे।'

उस देश में आपत्ति का क्या अर्थ होता है, सूरता से कैसा भय लगता है, इकामा साथ न लेकर चलने पर क्या हो सकता है (वह वैसे ही आवश्यक होता है जैसे समुद्र की गहराई में गोताखोर के लिए औक्सीजन), घर से स्त्री के लिए बाहर निकलने का क्या अर्थ होता है, अकेली बाहर निकलने की सोचना बिना पेराशूट के विमान से छलाँग लगाने की सोचने जैसा मूर्खतापूर्ण है और उतना ही असम्भव व आपत्तिजनक है जितना भारत में शायद निर्वस्त्र बाहर निकलना।

मैं दुकानदार की बात सुन एकदम से स्तब्ध हूँ कि मैं पति के बिना घर से निकलने की मूर्खता कैसे कर गई। यहाँ तो पिता, भाई, पति, पुत्र के बिना स्त्री घर से बाहर कदम भी नहीं रख सकती। यह बात और है कि जहाँ पति काम करते हैं वहाँ कॉलोनी में ये सब नियम लागू नहीं होते। वहाँ तो हम स्पोर्ट्स क्लब में साथ साथ मिक्स्ड डबल्स तक खेलते हैं, पार्टी करते हैं, तम्बोला खेलते हैं किन्तु वह अनुमति वैसी ही है जैसी विदेशों में किसी भी अन्य देश के दूतावास को मिली होती है और उसके परिसर के बाहर आपको उस देश के नियम मानने होते हैं।

मैं भयभीत हो जाती हूँ। सोचती हूँ कि मैं कैसे भूल गई कि मैं कहाँ हूँ। अब क्या होगा? यह सोच कि कमसे कम अरबी यह तो न जान पाएँ कि मैं विदेशी हूँ और स्वदेशी सोच शायद ध्यान न दें, मैं अपना चेहरा दुपट्टे से ढकने लगती हूँ। जैसे ही दुपट्टा मेरे चेहरे को छूता है मैं चौंक जाती हूँ। दुपट्टा छिटक मैं खड़ी हो जाती हूँ। सोचती हूँ, यह मैं क्या कर रही हूँ? सतत्तर वर्ष पहले जो माँ ने न किया वह मैं करने जा रही हूँ? कायर हूँ क्या मैं? बारह वर्ष की माँ यदि पूरे गाँव व ससुराल से विद्रोह कर सकती थीं और कह सकती थीं कि वे घूँघट नहीं करेंगी तो क्या उनकी बेटी करेगी?

किन्तु यह अँधेरा क्यों है? मैं आँख मलती हूँ तो खिड़की के बाहर चाँद चमक रहा है। ठंडी समुद्री हवा मेरे गाल सहला रही है व बाल उड़ा रही है। यह तो अरबी हवा नहीं है। यह तो मेरे अरबसागर की ठेठ मुम्बइया हवा है। मुझे किसी सूरते का भय नहीं है। मैं स्वतन्त्र हूँ। कहीं भी आ जा सकती हूँ। यह सोच मैं नंगे पाँव फर्श पर खड़ी ही खिलखिला पड़ती हूँ। मैं बाहर आने जाने को स्वतन्त्र तो हूँ किन्तु अकेले जाने को ! पति के साथ नहीं ! क्योंकि माँ हमारे साथ हैं और वे इतनी वृद्धा हैं कि उन्हें अकेले नहीं छोड़ा जा सकता। सो या पति बाहर जा सकते हैं या मैं। साऊदी अरब में ऐसे में लोग क्या करते होंगे?

मैं खड़े खड़े सोच रही थी कि साऊदी अरब छोड़े छब्बीस वर्ष बीत गए और यह विदेशी भूमि में होने का, राजशाही या तानाशाही में रहने का, विशेषकर ऐसी जगह जहाँ स्त्री के समान अधिकार न हों, में स्त्री होने का भय आजतक मेरे मस्तिष्क में घर बनाए चुपके से बना हुआ है। जो आज इस दुःस्वप्न के रूप में बाहर आया। मैं जब वहाँ गई थी तो युवती थी और आज उम्र के उस मोड़ पर हूँ जहाँ स्त्री होने के लिए कम ही टोका जाता है। फिर भी वह भय मेरे साथ साथ यहाँ तक चला आया! मैं वहाँ की रेत को तो पीछे छोड़ आई किन्तु मस्तिष्क में छिपे उस भय को आज तक ढो रही हूँ।

मैं वापिस बिस्तरे पर लेट जाती हूँ। नींद नहीं आ रही। विचारों की श्रृंखला का कोई अन्त नहीं। मैं अपने अवचेतन मन को समझने की कोशिश करती हूँ। सपना भयानक था, किन्तु मैं सूरते द्वारा पकड़े जाने से भयभीत थी किन्तु नींद नहीं टूटी। मैं कब जागी? चेहरा ढकने के प्रयास पर! अर्थात चेहरा ढकने के विरुद्ध मेरी दृढ धारणा के चलते मैं स्वप्न में भी स्वयं को ढके चेहरे में न देख पाई और छलांग लगाकर उठकर खड़ी हो गई।

अर्थात, घुघूती सब ठीकठाक है, तुम्हारी मान्यताएँ, धारणाएँ तुम्हारे अवचेतन मन में भी वे ही हैं जो चेतन में। भय की कोई बात नहीं।

शब्दार्थः
इकामा= निवास व काम करने का अनुमति पत्र, वर्क परमिट
सूरता= पुलिस

नोटः शब्द चर्चा व उसके सदस्यों का आभार जहाँ मैं कनविक्शन के लिए हिन्दी शब्द पूछ पाई।

घुघूती बासूती

19 comments:

  1. ''घुघूती,सब ठीक ठाक है' से याद आया चौकीदारों की पुकार-'जागते रहो,सब ठीक है'
    अन्तराल के बाद कुछ पढने को मिला,बधाई ।

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  2. सब ठीकठाक है, तुम्हारी मान्यताएँ, धारणाएँ तुम्हारे अवचेतन मन में भी वे ही हैं जो चेतन में। भय की कोई बात नहीं।

    कितना बड़ा सुकून है कि कोई छद्म रूप नहीं है...जो अंदर है वही बाहर है...लोगो को दिखाने के लिए रूप नहीं धरना पड़े... ..अपने आँखों के सामने लज्जित ना होना पड़े....आइने में खुद से नज़रें मिला सको तो जीना सार्थक
    बहुत बढ़िया पोस्ट

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  3. जब भी बसना हो, अपनी स्वतन्त्रता की शर्तों पर..

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  4. सच - विचारों की श्रृंखला का कोई अन्त नहीं.... अंत में खुद को समझाना और भयरहित सोचना ही सही होता है

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  5. मेरी एक मित्र भी रहीं है कुछ दिनों वहाँ.....
    भय और अधिक भय.......ऐसा ही कुछ अनुभव उनका भी रहा.........

    सादर
    अनु

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  6. अवचेतन मन मॆ बैठी बात ने आपके निश्चय को डिगनें नही दिया...बहुत बड़ी बात है...।मनोभावों ओ अभिव्यक्त करती बहुत सुन्दर पोस्ट है।बधाई।

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  7. मैं इस पोस्ट पर कुछ और कहना चाहता हूँ. जो लोग शरई कानूनों के लिए उचित ठहराते हैं यदि वे महिला होते तो उन्हें कैसा लगता. समानता के नाम पर ये कैसी समानता है.

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  8. जो उचित समझती हैं उस पर जमे रहने का निश्चय और ऊपर से लादे गये क़ानूनों की बेबसी का द्वंद्व -स्वप्न में व्यक्त हो गया !

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  9. बहुत ही सहजता से आपने व्यक्त कर दिया कि अवचेतन में अवांछित भय स्थान बनाते है तो हमारी प्रबल धारणाएँ भी अविचल स्थायी रहती है।

    सार्थक मनोविश्लेषण!!

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  10. भय ऐसी ही चीज है, उस की स्मृति उस से भी अधिक भयावह। लेकिन कन्विक्शन इन सब से पार पाने का मार्ग भी है।
    अपराधिक मुकदमों में गवाह सबूत हो जाने और दोनों पक्षों की बहस हो जाने के बाद जब न्यायाधीश यह निर्णय करता है कि अभियुक्त उस पर लगाए गए अपराध के आरोप का दोषी पाया गया है तो ऐसे निर्णय को कन्विक्शन कहते हैं। कन्विक्शन के उपरान्त दंड कितना दिया जाना चाहिए इस पर दोनों पक्षों को सुना जाता है तब दंडादेश पारित किया जाता है।
    इस तरह कन्विक्शन को हम कह सकते हैं कि वह किसी विवादास्पद मामले में लिया गया पुख्ता निर्णय है। जैसे हम निश्चय पूर्वक एक रास्ते से मंजिल की ओर बढ़ रहे हो और उसी समय कोई तिराहा आ जाए। हमें असमंजस हो जाता है कि इधर जाएँ या उधर जाएँ। फिर हम निर्णय करते हैं कि हमें किस मार्ग पर जाना है (भले ही वह मंजिल तक न ले जाए। हम ऐसे निर्णय को कन्विक्शन कह सकते हैं। इस के लिए संस्कृत शब्द है 'समञ्जस'।

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  11. :) तो आपने सऊदी भूमि भी देखी है! ऐंड यू सर्वाइव्ड! :)
    एक स्वप्न के सहारे एक बड़ी अच्छी बात याद दिलाई आपने। वह यह कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता और आत्म-गौरव ऐसी मूलभूत मानवीय आवश्यकतायें हैं, जिन्हें सूरता, तानाशाही, अत्याचार करके या मज़हब, राजनीतिक/धार्मिक परिवर्तन, इकामा आदि जैसे बहानों से अल्पकाल के लिया दबा भले ही दिया जाय, मिटाया कभी नहीं जा सकता।

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  12. हमारे अन्‍दर का भय ही हमें सतर्क करता रहता है। आपने वह सभ्‍यता देखी है इसलिए महिलाओं के लिए इतनी फिक्रमन्‍द रहती हैं, हमने एक सहज समाज देखा है तो लगाता है कि अनावश्‍यक संरक्षण क्‍यों?

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  13. हम इन चीजों को बहुत ही अच्छे से समझ पा रहे हैं, क्योंकि आजकल हम वहीं के एक प्रोजेक्ट पर काम कर रहे हैं और आने जाने वालों से यह सब सुनते ही रहते हैं। बस अच्छा यह है कि हमें ना जाना पड़े हम तो इसे बड़ी जेल ही कहते हैं।

    पराये देश में नियम तो मानना ही पड़ते हैं फ़िर भले ही वे आपको पसंद हो या ना हों, तो भय लगना भी तय है।

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  14. अजित गुप्ता जी, समाज उतना सहज भी नहीं जितना आप सोच रही हैं। मेरी खिड़की से सागर व उसकी लहरें दिखती हैं। यदि इससे मैं यह निष्कर्ष निकाल लूँ कि भारत में खिड़की खोलो तो सागर दिखता है या कि हम सब सागर से घिरे हैं तो क्या सही होगा? मैं समुद्री ठंडी हवा के चलते पंखे के बिना अधिकतम समय काफी आराम से जी सकती हूँ तो यदि मैं कहूँ कि भारत में लोग पंखे के बिना काफी आराम से जी सकते हैं तो लू सहते हुए लोग क्या मुझसे सहमत होंगे?
    भारत में क्या होता है जानने के लिए हमें भारत के विभिन्न हिस्सों में रहना पड़ेगा, विभिन्न तबकों से किसी ना किसी रूप से जुड़ना होगा। सबसे महत्वपूर्ण बात है कि हमारी रुचि अन्य लोगों व उनके जीवन में होनी पड़ेगी।
    घुघूती बासूती

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  15. कुछ अनकहे, थोपे गए नियम हमारे अन्दर कब घर कर जाते हैं पता ही नहीं चलता और मन की शक्ति भी क्षीण हो जाती है यह तय कर पाने में कि वह सही है या गलत..
    आज़ादी हमारा हक़ है पर कभी-कभी इसके लिए दृढ-निश्चय की भी ज़रूरत होती है.. और जब वह जागृत हो जाती है तो हम भीतर और बाहर, दोनों से आज़ाद हो जाते हैं..

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  16. padhte padhte aisa laga jaise koi bhayanak sapna dekh rahe hain aur dar gaye

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  17. चलिए सपना ही था! परन्तु एकदम सहज.

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  18. घुघुती जी, मैं यह नहीं कह रही हूँ कि हमारे समाज में ऐसा नहीं होता। मैं कह रही हूँ कि जिसने जैसा देखा होता है, वैसा ही उसके मन पर अंकित हो जाता है। हमने सौभाग्‍य से अभी तक ऐसा क्रूर समाज नहीं देखा है। इसलिए ऐसी अभिव्‍यक्ति नहीं होती है। रही बात भारत को देखने की, तो विगत 25 वर्षों से यही कार्य कर रही हूँ।

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  19. अजित जी, सही कह रही हैं। अपने व अपने आसपास के अनुभवों का हम पर बहुत प्रभाव पड़ता है।
    घुघूती बासूती

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