Thursday, December 15, 2011
हमारे बच्चों का उत्तरदायित्व सब पर है, बस हम पर नहीं।
२३ नवम्बर को नौ वर्षीय विरज परमार की मुम्बई में मृत्यु हो गई। वह स्कूल बस से घर जा रहा था। जब उसने बस से सिर बाहर निकाला तो उसका सिर सड़क पर लगे एक धातु के बने विज्ञापन के होर्डिन्ग से टकरा गया। शायद यह मृत्यु टाली जा सकती थी यदि उसकी स्कूल बस की खिड़कियों के सींखचे इतने पास पास होते कि वह सिर बाहर न निकाल पाता। यदि बस का ड्राइवर व कन्डक्टर लगातार हर बच्चे का ध्यान रखते कि वे सुरक्षित हैं या नहीं, यदि होर्डिन्ग सही ऊँचाई पर होता। प्रायः कानून व नियमों का पालन करने भर से बहुत सी दुर्घटनाओं से बचा जा सकता है। किन्तु क्या धमाल मचाते ५० या ६० बच्चों पर लगातार ध्यान रखना किसी भी कंडक्टर के लिए सम्भव है? ड्राइवर बस चलाते समय बच्चों पर नजर रख ही नहीं सकता।
इस दुर्घटना के लिए स्कूल के ट्रस्टी, मुख्याध्यापिका, होर्डिन्ग लगाने वाले, ड्राइवर व कन्डक्टर व बस के मालिक को गिरफ्तार कर लिया गया। लगभग सबको जमानत मिल गई। यह जानकर सुकून मिलता है कि बच्चों का ध्यान न रखने वालों व नियमों का पालन न करने वालों गिरफ्तार किया गया।
किन्तु क्या बाहर के लोग ही हमारे बच्चों की सुरक्षा के लिए उत्तरदायी हैं? हम माता पिता जो इन बच्चों को इस संसार में लाते हैं का उत्तरदायित्व क्या व कितना है? कितने माता पिता हैं जो बच्चों को सुरक्षा के नियम सिखाते हैं?
जब हम बच्चे को जूता पहनाना शुरू करते हैं तो उसे पहनना व फीते बाँधना सिखाते हैं, टुथब्रश करवाना शुरू करते हैं तो भी उसे कैसे उपयोग करना है सिखाते हैं, चम्मच के उपयोग से लेकर कोल्ड ड्रिन्क की बोतल खोलना, टी वी चलाना, यहाँ तक कि कैसे पैरों का उपयोग कर चलना है यह तक हाथ पकड़ सिखाते हैं। फिर जब वह घर से बाहर जाना शुरू करता है तो सड़क पार करना, बस में जाना शुरू करता है तो बस में सुरक्षा के नियम जैसे हाथ, बाँह, सिर बाहर न निकालना सिखाना कैसे भूल जाते हैं?
जब मैं माता पिता को बच्चों को राम भरोसे छोड़, निश्चिन्त देखती हूँ तो उनके कलेजे की दाद देती रह जाती हूँ। मॉल्स में बच्चे एस्केलेटर पर अकेले जाते देखती हूँ, डूबने लायक गहरे पानी के आसपास खेलते देखती हूँ और चिन्तित व आश्चर्यचकित उन साहसी माता पिता को मन ही मन सलाम ठोकती हूँ।
एक बार हम एक बहुत ही रोचक कार्यक्रम को देखने गए। स्टेज पानी के ऊपर बना था। राजस्थान के नर्तक व कलाकार गजब की कला दिखा रहे थे किन्तु पानी के पास खड़ी लगभग दो ढाई साल की बच्ची को वहीं कभी पानी में झुकते तो कभी उसके चारों तरफ दौड़ते तो कभी हाथ ही अन्दर डालने का दृष्य मुझे स्टेज पर होते कार्यक्रम देखने ही नहीं दे रहा था। जबकि उसके माता पिता निश्चिन्त कार्यक्रम देख रहे थे।
घरों में लोग यहाँ वहाँ कहीं भी बाल्टी में पानी गरम करने को इमर्शन रॉड लगा देते हैं। उबले पानी का पतीला जमीन पर ठंडा होने को छोड़ देते हैं। जबकि पोछे की बाल्टी में पड़े पोछे के पानी में छोटे बच्चों के डूबकर मरने की खबर, गर्म पानी के पतीले में गिर जल जाने और मर जाने की खबर भी पढ़ने को मिलती हैं।
हाल ही में मुम्बई माथेरान के बीच चलने वाली छोटी गाड़ी में माता पिता के साथ यात्रा करते बच्चों के सिर, हाथ ही क्या आधे शरीर गाड़ी से बाहर लटके दिखाई दिए। किनारे लगे हर पेड़ की शाखाएँ पकड़ने का वे प्रयास कर रहे थे। टहनी या पत्ते तोड़ने तक में सफल हो रहे थे। रास्ते में मजदूर पटरियों के किनारे काम कर रहे थे, यदि उनके द्वारा काम आने वाली किसी वस्तु या किसी पेड़ की अचानक टूटी टहनी या किसी अधगिरे पेड़ से उनके गाड़ी से बाहर निकले शरीर को चोट लग जाती तो किसका उत्तरदायित्व होता? रेलवे का या बातचीत या फोटो खींचने में मस्त माता पिता का? याद आता है सी बी एस सी की तीसरी कक्षा का सुरक्षा पर लम्बा पाठ, जिसमें हर प्रकार की सुरक्षा की बात की गई थी। मुझे याद है कि इस पाठ को मैं सदा दीपावली से पहले सबसे अधिक समय लगा पढ़ाती थी व जब तक हर बच्चा सुरक्षा के नियम समझ न जाता था आगे नहीं बढ़ती थी।
आइए देखते हैं मुम्बई माथेरान टॉय ट्रेन के कुछ दृष्य जिनमें निश्चिन्त पिता फोटो खींचता देखा जा सकता है जबकि बच्ची की बाँह व सिर ट्रेन के अन्दर कम बाहर अधिक दिखाई देते हैं। क्या इन माता पिता के लिए भी किसी सजा का प्रावधान है या जन्म देने भर से वे उत्तरदायित्वमुक्त हो जाते हैं और शेष समाज उनके लिए उत्तरदायी हो जाता है?
घुघूती बासूती
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फिर लोग कहतें है freak accident था...
ReplyDeleteसचेत करते हैं ऐसे समाचार.
ReplyDeleteइस तरह की सावधानियाँ बहुत ही आवश्यक हो जाती हैं, हम सबके लिये।
ReplyDeleteकदम कदम पर सावधानी की ज़रुरत है , विशेषकर बच्चों के लिए ।
ReplyDeleteबेशक बच्चों का उत्तरदायित्त्व सभी का है , सबसे ज्यादा पेरेंट्स का ।
माता-पिता सावचेत तो करते हैं लेकिन कभी बेपरवाह भी दिखाई देते हैं। ज्यादा चिन्ता करते हैं तो कहते हैं कि आप हमें डरपोक बना रहे हो। लेकिन ऐसी दुर्घटनाओं में होर्डिंग और बस मालिक की अधिक अवयवस्था दिखायी पड़ती है।
ReplyDeleteHam bachhon ko bahutsi baaten nahee sikhate.Gharon me traffic niyam ya civic sense bilkul nahee sikhaya jata.
ReplyDeleteइस विषय पर मैं भी एक पोस्ट डालने की सोच रहा था, लेकिन इस कमी को आपने अपनी विचारणीय पोस्ट से पूरा कर दिया है। एक बात मैं खास तौर पर कहना चाहता हूँ। अभिभावक स्कूल कालेज जाने वाले बच्चों के लिए साइकिल स्कूटी वगैरह तो खरीद देते हैं, पर उन्हें यातयात के नियमों के बारे में कुछ भी नहीं बताते। मेरे एक परिचित हैं, उन्होंने बताया कि एक बार उन्हें किसी काम से अपने बच्चे की स्कूटी पर पीछे वाली सीट पर बैठकर जाना पड़ा। बच्चे को बायीं ओर से दूसरी बाइक को ओवरटेक करते देखकर उन्होंने डांटा कि दायीं ओर से ओवरटेक करना चाहिए, तो 16 वर्षीय बच्चे ने मासूमियत से पूछा, क्या ऐसा भी होता है।
ReplyDeletekya kahe bahut hi dukhad hai esi ghatanayen...yatra men savadhani ki jarurat hoti hai ... abhaar
ReplyDeleteमुझे भी अभिभावकों की ऐसी लापरवाहियों पर बहुत हैरानी होती है !
ReplyDeleteसबके लिये इस तरह की सावधानियाँ बहुत ही आवश्यक हो जाती हैं|
ReplyDeleteइन मामलों में सजगता बहुत जरुरी है हर स्तर पर
ReplyDeletebilkul maa baap ka daayitva hai..
ReplyDeleteबहुत सटीक और शिक्षाप्रद!
ReplyDeleteसच में सिहर उठती हूँ ऐसी घटनाओं के बारे में जानकर ..... अभिभावक होना एक बड़ी जिम्मेदारी है ...बच्चों की संभाल करने और उन्हें शिक्षित करने की......मैंने जब माँ बनने की सोची तभी यह निर्णय किया था अपना पूरा समय बच्चे को देना है ...... आपके विचार बहुत कुछ सिखाते हैं .....
ReplyDeleteबहुत ही चिंताजनक बात है यह....सचमुच माता-पिता काफी लापरवाही बरतते हैं...माथेरान के टॉय ट्रेन से सम्बंधित एक बहुत ही दर्दनाक घटना याद आ गयी...पिछले साल ही हमारी कॉलोनी के ही एक स्कूल के टेंथ के बच्चों को पिकनिक के लिए ले जया गया था...और इस ट्रेन से रेस लगाता एक बच्चा पता नहीं कैसे ट्रैक पर गिर कर इस बुरी तरह जख्मी हुआ कि जान से हाथ धो बैठा...
ReplyDeleteबच्चे भी आजकल बहुत ही शरारती हो गए हैं....आये दिन दुर्घटना की ख़बरें सुनने को मिलती हैं...इस विषय पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है.
यद्यपि मुंबई '९९ से लगभग प्रति वर्ष आ रहा हूँ, माथेरान तो नहीं गया, किन्तु तस्वीरें देख अपनी साठ के दशक के आरम्भ में की गयी पहली रेल यात्रा कालका से (अपने भाई और उनके एक मित्र के साथ अपने जन्म-स्थान, पिता कि वहाँ पोस्टिंग के कारण) शिमला तक की यात्रा की याद आगई...
ReplyDeleteएक इन्जिनीरिंग कॉलेज के कुछ लड़के भी उस में सवार थे और उन्होंने इतना शोर मचाया हुआ था कि सब अन्य यात्री परेशान हो गए थे... वो डब्बे से उतर फिर दौड़ कर, ट्रेन का पीछा कर, चढ़ जा रहे थे, क्यूंकि रेल कि गति पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण अधिक नहीं थी... उस मार्ग में १०३ सुरंगें भी पड़ती हैं, जिनके कारण सुरंग में उनकी आवाजें और भी गूँज उठती थी...
फिर इंजन ड्राइवर को ही एक स्थान पर गाडी रोक, उतर कर, उनको डांट लगान पडा कि दुर्घटना भी हो सकती है और उनके शोर के कारण उसको पता भी नहीं चलेगा... उसी के बाद शान्ति हुई...
सिनेमा में भी हीरो को रेल के साथ, अथवा पटरी के बीच ही दौड़ते दिखाया जाता है, और इस तरह कि फिल्मों का भी असर होता है बच्चों के मन पर...
आजकल बाइक पर स्टंट करते हैं बच्चे और दुर्घटनाएं भी होती रहती हैं... माता-पिता के पास आज समय ही नहीं है :(
माता-पिता के साथ साथ यह जिम्मेदारी हम सभी की है . यदि कोई बच्छा अज्ञानतावश कुछ कर रहा है तो हम उसे रोकें और ज़रूरी बातें समझाएं !लेकिन अफ़सोस तो ये हियो की हर कोई पता नहीं किस दुनिया में व्यस्त रहता है की उसे बच्चों के लिए वक़्त ही नहीं है! पहले बच्चे पाले जाते थे. आजकल बस पल जाते हैं ! भगवान् भरोसे !
ReplyDeleteसावधानी जरूरी है लेकिन इस विचार में सिक्के का दूसरा पहलू यह भी है कि जिस बच्चे को माता-पिता अधिक सावधान करते रहते हैं वह बच्चा स्वतः अनुभव से सीखने की योग्यता खो देता है। दब्बू और माता-पिता का अनुयायी ही बना रहता है। शरारतों का रोमांच और अनूठे अनुभव से कुछ नया सीख पाना..महसूस कर पाने का अनुभव, नहीं कर पाता। इसलीए सिखाने में भी सावधानी जरूरी है।
ReplyDeleteसबसे पहले हमारे ब्लॉग 'जज्बात....दिल से दिल तक' पर आपकी टिप्पणी का तहेदिल से शुक्रिया.........आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ...........पहली ही पोस्ट दिल को छू गयी.......बहुत सटीक बात कही है आपने ..........बहुत खूब...........आज ही आपको फॉलो कर रहा हूँ ताकि आगे भी साथ बना रहे|
ReplyDeleteकभी फुर्सत में हमारे ब्लॉग पर भी आयिए- (अरे हाँ भई, सन्डे को भी)
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एक गुज़ारिश है ...... अगर आपको कोई ब्लॉग पसंद आया हो तो कृपया उसे फॉलो करके उत्साह बढ़ाये|
और हाँ ये 'घुघूती बासूती' का क्या अर्थ है कृपया बताएं|
सच कह रही हैं आप, मैं भी हैरान होती हूँ | उससे भी अधिक हैरानी तब होती है - जब जो माता पिता सावधान रहने का प्रयास करते हैं - उनका मज़ाक उड़ाया जाता है - और सीख दी जाती है - की आप overprotective हो रहे हैं !!!
ReplyDeleteएक सादा सा उदाहरण - कानून के अनुसार भी, और सहजबुद्धि के अनुसार भी - १८ वर्ष से कम आयु में driving licence नहीं मिलता - और नहीं मिलना चाहिय - क्योंकि इतनी परिपक्वता होती ही नहीं | चकित होती हूँ जब अपने बेटे की उम्र के बच्चों को धड़ल्ले से स्कूटी आदि चलाते देखती हूँ - जबकि यहाँ mines lorries के आये दिन accidents के चलते कितनी ही जानें जाती हैं | बहुत नजदीकी पहचान में भी इतने वर्षों में कई अनावश्यक accidental मौतें देखि हैं - वयस्क drivers की भी :( |
फिर जब मैं मेरे बेटे को drive करनेको मना करूँ - न सिखाऊँ - तो उलाहना मिलते है की अप उसकी "growth" में व्यवधान दे रहे हैं | कभी कभी सोचती हूँ की क्या सच मच ही मैं ही गलत तो नहीं ? अजीब सी situation है समाज में - की हम जान बूझ कर अपने बच्चों की ज़िन्दगी से खेलें, तो अच्छे अभिभावक सिद्ध होंगे - क्योंकि हम उन्हें "freedom " दे रहे हैं , न खेलें - तो हम उनकी development में बाधक हैं !!!
उस दिन प्रतिक्रिया देने के ख्याल से आया था पर आपका ब्लॉग गायब होकर मेरा मनोबल तोड़ गया !
ReplyDeleteआपकी सारी दुश्चिंताओं के साथ एक दुश्चिन्ता , जंगल की आग की तर्ज पर ! हेडर चित्र में दिख रही ट्रेन के दोनों तरफ की सूखी घास पर अगर कोई यात्री जलती हुई सिगरेट फेंक दे तो...?
याद दिलाने के लिये आभार। मातृत्व-पितृत्व की विविधता देखते हुए, मेरा दृढ विश्वास है कि ऐसी बातें स्कूली शिक्षा का अटूट अंग होनी चाहिये।
ReplyDeleteइन मामलों में औसत भारतीयों को देखकर लगता है मानो हमने गड्ढे में खुद गिरे बिना आँखें न खोलने की कसम खा रखी हो। अर्जित अपंगता का बड़ा प्रतिशत देखकर भी हम यह समझने को तैयार नहीं होते कि इनमें से अधिकांश दुर्घटनायें रोकी जा सकती हैं। और उस पर दोहरी चोट इस बात की है कि लोग पीड़ित/घायल को सहायता देने से भी कन्नी काटते हैं। "चलता है" दृष्टिकोण से जितनी जल्द छुटकारा मिले, बेहतर है।
सच लापरवाही और असावधानी किस तरह अभिशाप बन जाती है यह बात बहुत देर से समझ आती है....
ReplyDeleteबहुत अच्छी जागरूकता भरी प्रस्तुति..आभार
मेरी बेटी दो साल की है, बाइक पर चलते समय दोनों बाहें पसार देती है, डरती हूं, समझाने की कोशिश करती हूं, फिर जबरन उसके हाथ पकड़ती हूं।
ReplyDeleteदरअसल हाथ-सिर बाहर निकालना ऐसी आकांक्षाएं हैं जिन्हें बच्चा खुद समझ सके, तभी रोका जा सकता है, ऐसा नहीं कि अभिवावक कोशिश नहीं करते। अपना बचपन भी याद है मुझे। बाहर हाथ निकालने को मना करते थे, पर जैसे ही मौका लगता, बस से हाथ बाहर निकाल जैसे हवा को छू रहे हों।
पर कहने का मतलब ये नहीं कि बच्चों को सचेत नहीं किया जाना चाहिए। करना तो चाहिए ही।
सच तो यह है कि हम न तो बच्चों को ऐसी सावधानियों के बारे में बताते हैं,न स्वयं ऐसे उदाहरण प्रस्तुत करते हैं.
ReplyDeleteऐसी सावधानियों के बारे में बच्चों को न तो स्कूल में न ही घर में जानकारी दी जाती है. न शिक्षा ,न ही उदाहरण से. क्षमा की टिप्पणी से सहमत हूँ कि हमारे यहां सिविक सेंस के बारे में कोई बात नहीं करता .
ReplyDeleteबच्चे स्वभाव से रोमांच प्रिय होते हैं।यह माता-पिता का दायित्तव है कि उन्हें रोमांच और लापरवाही के मध्य निहित अंतर समझाएं।तरस आता है उन अभिभावकों पर भी जो लाड-प्यार के नाम पर बच्चों को महँगी तेज रफ़्तार गाड़ियाँ(यानि दुर्घटनाओं को निमन्त्र्ण पत्र)सोंप देते हैं।
ReplyDeleteकोई सचेत नहीं हो रहा है. बदस्तूर वहीँ सब की पुनरावृत्ति होती चली जा रही है और होती रहेगी. बहरहाल एक सार्थक आलेख.
ReplyDeleteएक बहुत मशहूर अफ्रीकन कहावत है, It takes a village to raise a child. दुर्भाग्यवश हम जहां, जिस माहौल और जैसी परिस्थितियों में जी रहे हैं, वहां ये मुमकिन नहीं हो पाता। लेकिन सजग होना और सजग बने रहने को लेकर अपने बच्चों को सजग बनाना, ये हमारी ज़िम्मेदारियों का अनिवार्य अंग है।
ReplyDeleteनया साल मुबारक
ReplyDeleteअनछुए पहलू को आपने छेड़ा है.. ज्यादातर घटनाएं घरों में ही होती हैं और इसके लिए बच्चों को होने वाले नुक्सान के लिए काफी बार बड़े ही जिम्मेवार होते हैं..
ReplyDeleteपर बाहर होने वाले घटनाओं के लिए हम तुरंत स्कूल या सरकार को दोषी करार ठहरा देते हैं जबकि कई बार खुद ही की गलती होती है..
मेरे ख्याल से इस विषय पर कहीं भी ज्यादा चर्चा नहीं होती है इसलिए ऐसी घटनाओं में कमी नहीं आई है..
प्यार में फर्क पर अपने विचार ज़रूर दें...
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