Friday, June 03, 2011

आते आते आती है अक्ल आहिस्ता आहिस्ता.................................घुघूती बासूती

यही समझ आया मुझे कायदे कानूनों से। किन्तु अफ़सोस, मैं तो अभी तक बैठी हूँ पलकें बिछाए, अब आएगी, तब आएगी, किन्तु अक्ल है कि आने का नाम नहीं लेती। शायद मेरी अक्ल भी मेरी तरह है। रास्तों की उसे कोई समझ नहीं है। मेरी तरह ही वह मेरे द्वार का रास्ता भूल गई है। या शायद मेरी ही गलती है। जब तीस पार कर जाने के बाद अक्ल दाढ़ ने अन्ततः आने का मन बनाया तो डेन्टिस्ट महाशय बोले कि मुँह में उसके लिए जगह ही नहीं हैं। एक के लिए ही नहीं, चारों की चारों के लिए जगह नहीं थी। सो जैसे जैसे वे आने को तैयार हुईं मैंने वे, मसूड़े कटवा, फिर सिलवाकर, उखाड़ फिंकवाईं। अब, जब अक्ल से बचे रहने को इतना कुछ किया तो उसके ना आने की शिकायत क्या करनी?

खैर कायदे कानून तो यही बताते हैं कि जैसे ही आप किसी निश्चित उम्र पर पहुँचते हैं और फूँक मार, मोमबत्तियाँ बुझा, केक काटते हैं तो बस अक्ल अपने आप सीधे आपकी कठोर, मोटी खोपड़ी में छेदकर आपके मस्तिष्क में पहुँच जाती है। इस अक्ल को पाने को मैं इतनी उतावली रहती हूँ कि हमने परिवार में परम्परा बना ली है कि जैसे ही रात के बारह बजते हैं, तिथि बदलती है, हम केक काट डालते हैं। किन्तु अक्ल को न आना था सो न आई।

मैं यह सब क्यों कह रही हूँ? भाई, आज के समाचार पत्रों में पढ़ा कि महाराष्ट्र सरकार ने बालक बालिकाओं, ना, ना, युवाओं की दारू पीने के कानूनी अधिकार की उम्र २१ से बढ़ा कर २५ कर दी है। जिन लोगों को दारू पीकर कार, बाइक चलाने वाले युवाओं ने ठोककर स्वर्ग/नर्क पहुँचाया होगा उनकी आत्मा को इस खबर से काफी शान्ति मिलेगी। किन्तु मैं काफी कन्फ्युजियाई हुई हूँ। मैं समझ नहीं पा रही कि किस उम्र में अचानक से मनुष्य के मस्तिष्क में अक्ल का प्रवेश होता है।

हमारे जमाने में २१ की उम्र में स्त्री पुरुष यह निर्णय करने योग्य होते थे कि किसकी सरकार बनवाई जाए। स्त्रियाँ १८ की उम्र में विवाह करने की समझ प्राप्त करती थीं व पुरुष २१ की उम्र में। फिर अचानक सब १८ की उम्र में सरकार चुनने की समझ रखने लगे किन्तु दारू पीने की नहीं। सो क्या किसकी सरकार बनाई जाए का निर्णय किस ब्रान्ड की कितनी दारू पी जाए से अधिक सरल है? अर्थात दारू के निर्णय के लिए आपको अधिक परिपक्व होना होता है? सरकार चुनना बच्चों का खेल है? पता नहीं।

उससे भी अधिक कन्फ्युजियाने वाली जो बात है वह यह है कि एक स्त्री १८ वर्ष की होते ही विवाह कर बच्चों को जन्म देने का कार्यक्रम आरम्भ कर सकती है। २५ की होते होते चार पाँच बच्चों की माँ बन उनकी भाग्य विधाता बन सकती है। वे क्या खाएँ, क्या करें ना करें, किस स्कूल जाएँ या जाएँ ही नहीं का निर्णय ले सकती है, किन्तु वह यह निर्णय नहीं ले सकती कि दारू पिए या नहीं, या कहाँ कितनी व किस ब्रान्ड की पिए। सो दारू पीने ना पीने का निर्णय सरकार बनाने के निर्णय व बच्चे पैदा कर उनका भविष्य निर्धारित करने के निर्णय से अधिक कठिन है?

हम जब कॉलेज के समय हॉस्टेल में रहते थे तो हमसे इतनी समझ की अपेक्षा नहीं की जाती थी कि हम कब कहाँ कितना घूमें के निर्णय ले सकें। लगभग कैद में रहते थे। १८ के तो कबके हो चुके थे। बी एस सी करके विवाह कर लिया और अचानक अपने निर्णय लेने की बुद्धि आ गई। बच्चे होने पर उनके लिए भी निर्णय लेने की समझ आ गई। वहीं एम एस सी करती हमारी सहपाठियों को अपना ध्यान रखने तक की बुद्धि नहीं आ पाई थी। जबकि वे हमसे भी अधिक पढ़ चुकीं थीं।

दीदी ने एम ए किया तब भी, पी एच डी करते हुए भी वे एक निश्चित समय के बाद हॉस्टेल नहीं लौट सकती थीं, चाहे उनके रिसर्च के काम में बाधा ही क्यों न आए, लाइब्रेरी में और काम क्यों न बचा हो। वहीं उनकी वे सहपाठिनें जो बी एस सी, या एम ए करके पढ़ाने लगीं थीं वे अपने साथ साथ अपनी छात्राओं का भी उत्तरदायित्व सम्भाल पाती थीं। १८ की उम्र में ब्याही सहेलियाँ तो दो तीन बच्चों की माँ बन सारे परिवार के निर्णय लेने में सक्षम हो गईं थीं।

शायद पढ़ते रहने से मनुष्य, विशेषकर स्त्री की बुद्धि, समझ, सही गलत का अन्तर कर निर्णय लेने की क्षमता के विकास में बाधा होती है। वहीं यदि वह बालिका वधु भी बन जाए तो शायद इस क्षमता का विकास चरम पर पहुँच जाता है।

शराब पीने पर रोक लगाने से युवा पीकर गाड़ी नहीं चला पाएँगे। दुर्घटनाएँ कम होंगी। वैसे दुर्घटनाएँ अधिकतर इसलिए होती हैं कि हम नियम तोड़ते हैं। नियम तोड़ने के लिए गाड़ी चलाना आवश्यक नहीं है। न ही उम्र का इससे कुछ लेना देना है। यह तो केवल दो बातों पर निर्भर करता है, एक आपके जीवन मूल्य क्या हैं और दो नियम तोड़ने पर प्रायः सजा मिलती है या नहीं। मैं जब सैर को जाती हूँ तो अस्सी साल के बूढ़ों को भी ज़ीब्रा क्रॉसिंग पर पैदल लोगों के लिए लाल बत्ती होने पर भी सड़क पार करते देखती हूँ। सोचिए यदि दुर्घटना घट जाए तो दोष गाड़ी वाले का ही माना जाएगा। सबसे सरल तो यह है कि हर नियम तोड़ने वाले, नशे में गाड़ी चलाने वाले का लाइसेंस जब्त कर लिया जाए, जुर्माना लगाया जाए, सौ में से एक पर नहीं कमसे कम ५०प्रतिशत दोषी पकड़े जाएँ तो बात बने।

सो कानून तोड़ने, अपने व अन्य के जीवन को दाँव पर लगाने की आदत उम्र पर निर्भर न होकर हमारे सामाजिक व राष्ट्रीय चरित्र पर निर्भर होती है। यह चरित्र बनता है हमारी 'सब चलता है' के मूल मन्त्र के कारण। सरकार कानून तो बना सकती है किन्तु सही उम्र पर हमें कानून पर चलने की अक्ल आ ही जाएगी इस बात की गारन्टी तो नहीं दे सकती।

उम्र के सभी मील के पत्थर पार करने पर भी मैं बुद्धि की राह ही तक सकती हूँ। अब तो यही आशा है कि शायद साठवाँ जन्मदिन ज्ञान चक्षु खोल मस्तिष्क में ज्ञान का प्रकाश प्रदीप्त कर ही जाए। शायद महाराष्ट्र सरकार को भी साठ पार करने पर ही नागरिकों को परमिट उपहार में देना चाहिए। वैसे कोई गारन्टी नहीं कि ६० की उम्र समझदारी साथ लेकर आए।

घुघूती बासूती

25 comments:

  1. उससे भी अधिक कन्फ्युजियाने वाली जो बात है वह यह है कि एक स्त्री १८ वर्ष की होते ही विवाह कर बच्चों को जन्म देने का कार्यक्रम आरम्भ कर सकती है। २५ की होते होते चार पाँच बच्चों की माँ बन उनकी भाग्य विधाता बन सकती है। वे क्या खाएँ, क्या करें ना करें, किस स्कूल जाएँ या जाएँ ही नहीं का निर्णय ले सकती है, किन्तु वह यह निर्णय नहीं ले सकती कि दारू पिए या नहीं, या कहाँ कितनी व किस ब्रान्ड की पिए।

    सही है.. छब्बीस साल के होते ही आपको दारु पीकर गाडी ठोकने का लायसेंस सरकार दे रही है! जय हो सरकार की बुद्धि की!

    ReplyDelete
  2. सचमुच है ही कन्फ्यूजियाने वाली बात :)
    चोरी चोरी पियेंगें और क़ानून की मखौल उडेगी सो अलग ...

    ReplyDelete
  3. "अब तो यही आशा है कि शायद साठवाँ जन्मदिन ज्ञान चक्षु खोल मस्तिष्क में ज्ञान का प्रकाश प्रदीप्त कर ही जाए।" ----पचास तक तो अक्ल का 'अ' भी नही सीखा हमने...अब आगे क्या आशा रखें...

    ReplyDelete
  4. ये साठ के ठाठ का फ़ंडा पुरुषों के लिये भी रहेगा या यहाँ भी विवाह की तरह तीनसाला भेदभाद बरता जायेगा, ये भी एक क्न्फ़्यूज़न है।
    आने वाले समय में सरकार का यह कदम स्वर्णिम उप्लब्धियों में शुमार होगा। कागजी कानूनी कार्रवाईयां करने में माहिर हैं जनसेवक।

    ReplyDelete
  5. और कभी तो आ ही नहीं पाती है।

    ReplyDelete
  6. जिन्हें नहीं पीना उन्हें कानून की जरुरत नहीं, जिन्हें पीना है कानून उनका कुछ नहीं बिगाड़ पायेगा.
    प्रतीकात्मक ही हैं ये कानून तो.

    ReplyDelete
  7. कानून के रखवालों के लिए अघोषित आय का एक और स्त्रोत खड़ा कर लिया...अन्य वस्तुएँ यथावत रहेंगी. जय हो!!!

    ReplyDelete
  8. कानून के रखवालों के लिए अघोषित आय का एक और स्त्रोत खड़ा कर लिया...अन्य वस्तुएँ यथावत रहेंगी. जय हो!!!

    ReplyDelete
  9. कानून के रखवालों के लिए अघोषित आय का एक और स्त्रोत खड़ा कर लिया...अन्य वस्तुएँ यथावत रहेंगी. जय हो!!!

    ReplyDelete
  10. साठ तो सठियाने की उम्र मानी जाती है.
    सीनियर सिटीजन के आयकर और रेलयात्रा पर सरकार सोचती रहती है.
    उम्र का मामला व्‍यक्ति की स्थिति और उसकी भूमिका पर, विभिन्‍न प्रयोजनों के लिए अलग-अलग निर्धारित होता है, क्‍योंकि तय करने का आधार शारीरिक, मानसिक, सामाजिक होता है, इन्‍हें आपस में मिला कर देखें तो गड्ड-मड्ड लगेगा.

    ReplyDelete
  11. आज फिर एक महत्वपूर्ण विषय पर एकदम अलग ही दृष्टिकोण से सामना हुआ। कानून में आयु की कोई सीमा तो रखनी ही पडेगी परंतु विवेक की एक बहुमान्य आयु का निर्धारण और उसके प्रति कमिटमैंट दोनों ही हो सकें तो बेहतर हो।

    आपके विचार जानने का आभार!

    ReplyDelete
  12. साठ साल होने पर बधाई दे रही हूँ और हम भी आपके पीछे-पीछे ही आ रहे हैं। अक्‍ल का खेल देखना हो तो छोटे बच्‍चे को देखो उस जैसा अक्‍लवान कोई दूसरा नहीं होता है। सारे ही गुर जानता है अपनी मांग मनवाने का।

    ReplyDelete
  13. ८ साल के बूढ़े और ८० साल के बच्चे अक्ल के खेल में रेल पेल होते रहते हैं

    ReplyDelete
  14. सच मे कन्फ़्यूज़न है।

    ReplyDelete
  15. यानी २६ के बाद आप पी कर बह्केगे नहीं.....कित्ती इंटेली जेंटनिकली सरकार तो !.

    ReplyDelete
  16. अक्ल किसी की गुलाम नहीं। आने वाले के पास बहुत छोटी उम्र में आ जाती है। नहीं आना हो तो उम्र भर नहीं आती। सरकार को कानून बनाना आता है उस का पालन कराना नहीं आता। उस के लिए तामझाम खड़ा करना पड़ता है, जिस में धन लगता है। जिस के लिए हर बार पेट्रोल, डीजल और गैस के दाम बढ़ाने पड़ते हैं। लम्बा चक्कर है जी ......

    ReplyDelete
  17. घुघूती जी,
    अखबारों में आप भी पढ़ रही होंगी..आए दिन...कॉलेज स्टुडेंट्स , ड्रिंक करके ,अपने मित्रों को कार में बैठा रेसिंग करते हैं...और परिणाम होता है..दुर्घटना...अभी हाल में ही हुई ,उस दुर्घटना ग्रस्त कार की तस्वीर आँखों के सामने है...जिसमे नौ बच्चे सवार थे...२१,२२ की उम्र थी ,सबकी....सब एक रेस्टोरेंट से ड्रिंक्स और डिनर लेकर निकले थे और १३० की स्पीड से भागती कार अपना संतुलन खो बैठी.

    दरअसल इस तरह की घटनाएं कैसे रोकी जाएँ...किसी की समझ में नहीं आ रहा...महाराष्ट्र सरकार की शायद यही मंशा होगी कि कम से कम स्टुडेंट्स दारु ना पियें....उन्हें रेस्टोरेंट-पब में शराब ना सर्व की जाए...मुंबई में अक्सर पच्चीस साल की उम्र तक युवा नौकरी में लग जाते हैं...

    अब शराब की दुकान का तो नहीं मालूम लेकिन....थियेटर में यहाँ बहुत सख्ती है....अगर एडल्ट फिल्म है तो १८ साल से कम उम्र के बच्चों को एंट्री नहीं मिलती...अगर इतनी सख्ती शराब पीने पर भी लागू हो जाए...और कुछ जानें बच जाएँ....तो इसमें कोई हर्ज़ नहीं.

    ReplyDelete
  18. आपने आलेख में काफ़ी तार्किक ढ़ंग से बात रखी गई है।

    रश्मि जी की बातों से सहमत।

    पर सबसे अच्छा हो कि इसे बंद ही कर दिया जाए।

    ReplyDelete
  19. हो सकता है, कुछ लोगों को लगता हो कि कम से कम पहली बार वोटिंग बिना दारू बांटे ही करवा ली जाए... वर्ना बाद में तो बोतलें बांटनी ही पड़ती हैं न :)

    ReplyDelete
  20. महाराष्‍ट्र सरकार की यह कोशिश बचकानी लगती है। उम्र बढ़ाने के कानून बनाने की बजाय शराबी हुड़दंगियों और शराब पीकर गाड़ी चलाने वालों के विरुद्ध सख्‍त कार्रवाई ज्‍यादा कारगर साबित होगी। आपकी बातों सहमत हूँ कि शराब पीने की उम्र 25 साल कैसे हो सकती है जबकि सरकार चुनने के लिए 21 साल की उम्र ही पर्याप्‍त है?

    ReplyDelete
  21. अजित गुप्ता की साठ साल वाली बधाई स्वीकार कर ली आपने :)


    बहरहाल मेरी तरफ से बधाई के लिए कुछ बरस इंतज़ार कीजियेगा :)

    ReplyDelete
  22. apne aapko rokenge kaise :P

    ReplyDelete
  23. अनुपम अभिव्यक्ति..!!

    ReplyDelete
  24. Anonymous7:20 am

    आपके पास तो तर्क है अक्ल(दाढ) के ना आने का.वो तो आने ही वाली थी अब स्पेस ना होने के कारन आपने ही उखड़वा फिंकवाई तो कोई क्या करे? यहाँ देखिये समय पर आ गई दाढे पर अक्ल साथ नही लाइ.हा हा हा चलेगा.
    शराब के कारन ज्यादातर युवाओं का ही दुर्घटनाग्रस्त होना या उनकी मौत होना बेहद दुखद बात है.ये नही जानते कि उनके जाने से कितने लोग जीते जी मर जाते हैं.कानून में सख्ती के अलावा सेल्फ-डिसिप्लिन होना बहुत जरूरी है इनमे.पेरेंट्स नही सिखाते गलत काम करना.घर के बाहर जा कर बच्चे क्या कर रहे हैं प्रेक्टिकली इन सब पर नजर रखना इतना आसान भी नही.

    ReplyDelete