Monday, May 16, 2011

अपना अपना दर्द, अपनी अपनी मजबूरी

चार दिन से पश्चिम की तरफ की सभी खिड़कियाँ बन्द कर रखी हैं। खिड़कियों पर परदे तान दिए हैं। समुद्र को न देख पाने का दुख मन को सालता है। ठंडी हवा न खा पाने का दुख भी कहता मैं पिछले दुख से बड़ा हूँ। ऐसे में कामवाली के न आने का दुख भी समय समय पर अपना सिर उठाकर 'स्पर्धा में हूँ' बताता रहता है। किन्तु एक और दुख भी है।

हैदराबाद से लौटी तो खिड़कियाँ खोलना असम्भव था। खोलते ही धूल बरसने लगती। जब से मुम्बई आई हूँ, जाली की खिड़कियाँ किराए के मकानों में लगवाकर उन्हें साफ करती रहती हूँ। प्रायः गीले कपड़े से करती हूँ। किन्तु लगता है कि किसी गाड़ी का इन्जिन साफ कर रही हूँ। चार वर्ग इंच साफ करने में कपड़ा काला हो जाता है। सो वैक्यूम क्लीनर का सहारा लिया और घर की हर खिड़की, खिड़की की रेल आदि साफ कर डाली। विजयी मुद्रा में यह सबकर जब कपड़े सुखाने को खिड़कियों के बाहर, पहुँच से बाहर वाली बाल्कनियों में लगी रस्सियों पर कपड़े फैलाने लगी तो देखा बाहर बाँस तन चुके हैं और दीवार पर ठोका ठोकी, दीवार की दरारों को बड़ा करा ( बाद में उनमें भराई का काम किया जाएगा) जा रहा है। यहाँ मैं कमर तोड़ मेहनत कर छः दीवार भर खिड़कियों को साफ कर नहा धोकर कपड़े फैलाने आई थी। सो यह दुख अन्य दुखों पर भारी पड़ रहा था।

जानती थी, वीरांगना बन जिद में ये सब काम कर बाद में फुरसत से पीठ दर्द को सहूँगी। पाँच दिन से घर की साफ सफाई व बर्तन आदि भी कर रही हूँ। सब तरफ से दीवार के पास रस्सी से बन्धे जुड़े बाँसों पर चढ़े लोग दीवार खुरच रहे हैं, भर रहे हैं। समझ नहीं आता कि मेरी पीठ का जरा भी हिलाने डुलाने पर होने वाला दर्द, लकड़ी की तरह जकड़ी हुई पीठ की परेशानी, ऐसे में ही काम करना, अधिक परेशान कर रहा है या रेशमा व उसके परिवार का बेघर होना। या फिर यह सोच कि पेट भरने के लिए कोई बन्दरों की तरह बाँसों पर चढ़कर कैसे काम कर सकता है।

उन्हें काम करते देखती हूँ, बतियाते देखती हूँ, हँसते हुए भी, एक को तो गुनगुनाते भी सुना। मैं अपने संसार को धूल व उनकी नजरों से बचाने को खिड़कियों व मोटे परदों में बन्द कर देती हूँ। आजकल तो परदों के पीछे लगे कपड़े को ब्लैक आउट कहा जाता है। सच में यह टँगे लोगों की मजबूरी भी आउट ही रख सकता है, हम आराम से अपने ए सी चला सबकुछ भूल सकते हैं, सिवाय अपनी पीठ के।

फिर से रेशमा को मोबाइल पर फोन किया। उसके भाई का फोन है। पहली बार जब उसका फोन आया था तो यह बताने को आया था कि रेशमा की तबीयत खराब है सो काम पर नहीं आएगी। मैं आभारी थी कि उसने संदेश तो भेजा। उसके भाई को धन्यवाद कहा तो उसने 'यू आर वेलकम' कहा।

इस बार भी फोन भाई ने उठाया और फिर अपनी माँ को दे दिया। मैं उसकी माँ को जानती नहीं। एक बार रेशमा लेकर आई थी और मैं उसके चेहरे को भूल गई शायद देखते से ही। उसकी माँ कह रही है कि बिल्डर ने उनकी खोली तोड़ दी है। सामान यूँ ही खुले में बिखरा है। जब से खोली तोड़ी गई है खाना नहीं पकाया है। पाव भाजी आदि खाकर काम चला रहे हैं। अब जब कहीं रहने का जुगाड़ होगा तभी रेशमा काम पर आएगी।

मैं रेशमा से बात भी करना चाहती हूँ और यह भी नहीं जानती कि क्या बात करूँगी। मन का एक कोना पिछली शोभा बाई को कोस रहा है जिसे मैंने खोली लेने को उधार दिया था और जिसकी बेटी ने सिलाई सीखी थी तो मैंने सिलाई मशीन भी दी थी। किन्तु जिसने हमारे मकान बदलने की बात सुनते ही काम पर आना छोड़ दिया था। हर धोखा हमें अगले जरुरतमंद के प्रति और अधिक सजग कर देता है। मैं रेशमा को जानती भी कितना हूँ? एक माह की जान पहचान है। कैसे सहायता करूँ?

एक और कामवाली काम माँगने आई थी। कह रही थी कि, अस्थाई काम नहीं करेगी। उसे पैसा एकदम समय पर चाहिए। उसे प्रतीक्षा न कराई जाए, टालमटोल न की जाए। कह रही थी कि वह जरुरतमंद है। सोचती हूँ कि क्या कोई बिनजरुरतमंद भी दूसरों के घर महरी का काम ढूँढेगी? कहती हूँ कि निश्चित दिन बस माँग लेना। मैं भूल जाती हूँ। उसे रेशमा का काम नहीं दे सकती। केवल बर्तन करवा रही हूँ। रेशमा आएगी तो उससे कुछ भी और, जैसे डस्टिंग करवा लूँगी व पूरा पैसा दे दूँगी। तब तक झाड़ू पोछा स्वयं ही करूँगी। एक डंडी में रूई लगाकर उसपर मूव लगाकर पीठ पर लगाई है। काम चलाना है, चलेगा।

घर फिर से धूल से भर गया है। हर सतह पर दीवार की खुरचन है। खिड़कियाँ, परदे व ब्लैक आउट भी उसे बाहर न रख सके। फिर से सफाई करनी होगी। अन्यथा पति दफ्तर से आकर हाथ में जो भी कपड़ा आएगा,जैसे कमीज, ब्लाउज़ या तौलिया, उसे लेकर झाड़ना आरम्भ कर देंगे और फिर से मैं वैक्यूम क्लीनर उठा चल पड़ूँगी। खिड़कियाँ, परदे व ब्लैक आउट न तो धूल बाहर रख पाते हें न रेशमा का बेघर होने का दुख, न बाँस पर चढ़े मानवों की मजबूरी। सब घुलमिल जाते हैं, उसी में कहीं मेरा रेशमा के प्रति मोह, उसे निकाल नई कामवाली न रख पाने की मजबूरी व मेरा पीठ दर्द भी। शायद र् यूमोटॉलॉजिस्ट की सम्भावित डाँट भी।

घुघूती बासूती

20 comments:

  1. सोचती हूँ कि क्या कोई बिनजरुरतमंद भी दूसरों के घर महरी का काम ढूँढेगी?

    क्या बात कही है...कामवालियों के साथ इन अनुभवों से तो दो-चार होना ही पड़ता है...थोड़ा आराम कर लीजिए....

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  2. दुबई की एक फिलिपीनो सेक्रेटरी याद आ गई..हाई हील... मेनिक्योरड पैडिक्योरड और हाई हील में आई उस लड़की को देख कर पल भर के लिए यकीन नहीं हुआ कि घर का काम करने आई है.. आधे दिन के ऑफ़िस के बाद एकस्ट्रा पैसे के लिए घर का काम करना उनके लिए बुरा नही है...वह अलग किस्सा है कि परिवार और बच्चों के लिए उनके देश में नौकरी से गुज़ारा नही है...

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  3. आपकी लेखनी से जो निकलता है वह दिल और दिमाग के बीच खींचतान पैदा करता है।

    इसमें एक दर्शन और जीने के हठ का संकेत है। क्रूर और आततायी समय में आपके सच्चे मन की आवाज़ है यह रचना। लेख विचारोतेजक और आंतरिक करूणा से भरा है साथ ही हृदय फलक पर गहरी छाप छोड़ता है ।

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  4. नयी जीवन शैली में न जाने कितने नये व्यवसाय जन्म ले रहे हैं।

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  5. हर धोखा हमें अगले जरुरतमंद के प्रति और अधिक सजग कर देता है।

    -यही होता है कि किसी की करनी का फल कोई भुगतता है.

    शुभकामना ही दे सकते हैं आपको...

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  6. "ठंडी हवा न खा पाने का दुख भी कहता मैं पिछले दुख से बड़ा हूँ।"

    वास्तव में हर दुख पिछले दुख से बड़ा ही भासित होता है।

    यथार्थ का सहज चित्रण!!

    शहरी जिन्दगी के तनाव, एक ही कुण्डली में उलझे से अनेक सांप!!

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  7. भांति-भांति के दर्द! कठिन है कह पाना कि किससे कैसे निबटें।

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  8. हम भी आजकल इसी दौर से गुजर रहे हैं। सभी के अपने जीवन हैं, समस्‍याएं हैं, उन्‍हें हम सुन तो सकते हैं लेकिन दूर नहीं कर पाते। दूर करना भी चाहें तो वे अपनी समस्‍याओं में हमें भागीदार भी नहीं बनाना चाहते। मैं भी अपनी केयर-टेकर की दुविधा दूर करने में लगी हूँ लेकिन उन्‍हें लगता है कि हम लोग उनकी समस्‍याएं समझ ही नहीं सकते तो दूर कैसे करेंगे? देखें क्‍या कर सकते हैं?

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  9. आवश्यकतायें और समस्याएं निरंतर जन्म लेती रहती हैं एवं उनका निदान करना ही जीवन चक्र है

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  10. यही है ज़िन्दगी।

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  11. महानगरीयय जीवन की अपनी तरह की अलग समस्‍याएं होती हैं। रोजमर्रा की जिन्‍दगी की एक झलक दिखाती हुई बेहतरीन पोस्‍ट।

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  12. महानगरीयय जीवन की अपनी तरह की अलग समस्‍याएं होती हैं। रोजमर्रा की जिन्‍दगी की एक झलक दिखाती हुई बेहतरीन पोस्‍ट।

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  13. इन सब बातों पर भी पोस्ट लिखी जा सकती है और इतने सुन्दर तरीके से...लाज़बाब...हर गृहणी को अपने हिस्से के दुख दिख गए.

    रेशमा और घर की सफाई के साथ-साथ अपने पीठ-दर्द का भी ख्याल रखिए....झेलना अकेले पड़ेगा...

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  14. हर परेशानी दूसरी परेशानी से बड़ी है।
    वो दिन अब दूर नहीं जब भारत में भी ’डोमैस्टिक हैल्प’ के रूप में काम करना किसी भी तरह से घाटे का सौदा रहेगा।

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  15. यथार्थ का सहज चित्रण| धन्यवाद|

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  16. हरेक गृहणी को इनसे दो चार होना ही पड़ता है किन्तु इनके दर्दो को को समझने के बाद भी दूर करना भी एक चुनोती होता है |"नेकी कर दरिया में डाल "वाली कहावत अपनाये तो उलझन शायद दूर हो ?अत्यधिक सफाई के साथ अपना ध्यान अवश्य रखे |क्योकि मै इसका खामियाजा भुगत रही हूँ |

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  17. ' पति दफ्तर से आकर हाथ में जो भी कपड़ा आएगा,जैसे कमीज, ब्लाउज़ या तौलिया, उसे लेकर झाड़ना आरम्भ कर देंगे और फिर से मैं वैक्यूम क्लीनर उठा चल पड़ूँगी।'
    - ऐसा क्यों होता है कि पति को काम करते देख पत्नियां अपने कमर दर्द को भी भूल जाती हैं और यह भी भूल जाती हैं कि वे भी स्वयम ऑफिस से थकी हारी आयी हैं |
    क्या यही भारतीय संस्कृति है ?

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  18. अपने स्वास्थ्य का ख्याल जरूर रखिये...

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  19. और प्रायरिटी पर... क्योंकि यह पूरे घर का सवाल है..

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