अजित गुप्ता जी का लेख 'बिटिया के बिना मन सूना जैसे मन की ईमेल को स्पेम में डाल दिया हो' पढ़ा। उसपर आई टिप्पणियाँ भी पढ़ीं। फिर प्रतिटिप्पणियाँ भी। रश्मि रवीजा व अजित जी की प्रतिटिप्पणियाँ पढ़ीं। कई लोगों के लम्बे समय से पाले विश्वास व हमारी संस्कृति में बार बार दोहराए विश्वास, विचारों को ठेस लगाकर, कुछ मित्रों को नाराज करने का खतरा मोल लेते हुए भी मैं अपनी बात कह रही हूँ।
बेटी माँ के लिए क्या होती है यह बात केवल बेटी की माँ ही समझ सकती है। सबसे बड़ी बात यह है कि यह रिश्ता अपेक्षाओं वाला कम होता है भावनाओं व मन के तारों वाला अधिक होता है। बेटा माँ के लिए क्या होता है यह शायद केवल बेटे की माँ समझ सकती है। बेटों के साथ शायद न चाहते हुए भी एक बैगेज़ अपने आप आ जाता है अपेक्षाओं का। वह, 'तू हो के बड़ा बन जाना अपनी माता का रखवाला जैसा।' जो मैं न कर पाया तू करना, जो मेरा पति न दे सका तू ला देना जैसा, मेरे जीवन की सब कमियों को दूर कर देना, बेटी नहीं है तो विवाह कर वह भी मेरे लिए ला देना ( आप शायद ही किसी को यह कहते सुनेंगी कि मेरा बेटा भी तो किसी अन्य के घर बड़ा हो रहा है, या बेटी से यह कहेंगी कि मुझे चाँद, सूरज या तारे या ऐसा या वैसा पुत्रवर लाकर देना। ) आदि आदि। पुत्रों के साथ समस्या यही है कि उनके पैदा होते से ही अपेक्षाओं का वृक्ष भी अपने आप उग आता है। अपेक्षाएँ न केवल उससे किन्तु उसकी भावी पत्नी से भी।
हम जब भी स्त्री पुरुष पर बहस करते हैं तो बड़ी सरलता से पुरुष के साथ जन्म से ही हुए इस अन्याय को भूल जाते हैं। यह बात और है कि स्त्री के मामले में सारी कसर विवाह के बाद पूरी हो जाती है। हम कैसे यह अपेक्षा करते हैं कि कोई स्त्री अपने माता पिता के सिवा किसी अन्य की बेटी बने? क्यों बने? यह स्वाभाविक नहीं है, सच नहीं है। यह अपेक्षा करना भी गलत है और इसे पूरा करने के लिए जी जान लगा देना भी गलत है। क्या बुरा है सास ससुर, बहू , जमाता होने में? हम इन रिश्तों को स्वीकार कर इनकी सीमाओं को समझते हुए इनमें ही स्नेह, सम्मान व मिठास क्यों नहीं ढूँढते?
अजित जी जो कह रही हैं वह सच है। जैसा कि अजित जी कह रही हैं.......
'एक अन्तर बहु और बेटी का बताती हूँ कि आप बेटी से कैसी भी मजाक कर लीजिए, उसके पति के बारे में, ससुराल के बारे में वो हँस देगी लेकिन बहु से भूलकर भी उसके पीहर की बात की तो समझिए शाम बेकार हो गयी।'
स्वाभाविक है कि ऐसा होगा ही। आप बताएँ कि यदि किसी जमाता से उसके माता पिता के बारे में कोई मजाक करेंगे तो क्या वह आपकी शाम को साकार कर देगा? मैं तो स्वप्न में भी नहीं सोच सकती कि ऐसा करूँ। फिर बहू से क्यों अपेक्षा करें कि वह अपने ही पीहर पर किया मजाक हँसते हुए ले? शायद आपका जमाता भी अपनी पत्नी के बारे में, अपने ससुराल के बारे में मजाक हँस कर ले लेगा वैसे ही जैसे आपकी बेटी। और वैसे ही अपने माता पिता के बारे में मजाक नहीं सहेगा जैसे आपकी बेटी अपने ससुराल वालों के मुँह से आपका मजाक बनते नहीं सुन सकेगी।
सोचने की बात है कि रक्त के सम्बन्ध स्थाई होते हैं। कुछ भी हो जाए उन्हें झुठलाया नहीं जा सकता। रूठ भी जाएँ तो देर सबेर क्षमा कर ही दिया जाता है। बेटी माँ को डाँट तक देती है, टोक देती है, कुछ भी कह देती है़, माँ गर्व करती है कि देखो मेरी हर बात पर कितना ध्यान देती है, मेरी न सलीके से पहनी साड़ी, न जँचने वाले गहने हर बात को नोट कर मुझे बता देती है। यही यदि बहू करे तो? या फिर यदि हम बिटिया से उलझ भी गए तो पल भर में ही उसकी गलती को भूल भी जाते हैं। किन्तु क्या यही जमाता वाले सम्बन्ध में नहीं होता? पिता बेटे, माँ बेटे में बहस होती है, ठनकती भी है किन्तु शाम तक सुबह की बात भुला दी जाती है। किन्तु सोचिए कि यदि जमाता कुछ बोल दे या आप उसे बोल दें तो क्या पल भर में भुला दिया जाएगा?
अरे भाई, संतान से आपका सम्बन्ध वृक्ष बन चुका है किन्तु बहू व जमाता के साथ नाजुक नया गमले में रोपा पौधा है। वृक्ष को महीनों पानी न दोगे तो भी यदि फलदार होगा तो फल दे ही देगा और पानी के लिए वर्षा की प्रतीक्षा कर लेगा। किन्तु गमले में लगाए पौधे को एक दिन भी पानी न दो या कड़कती धूप में रख दो तो वह मुरझा जाता है। इसका यह अर्थ नहीं कि गमले में पौधा लगाया ही न जाए। वृक्ष अपने स्थान पर है और गमले का पौधा अपने स्थान पर। दोनो महत्वपूर्ण हैं किन्तु गमले का पौधा दुर्भाग्य से या हमारी लापरवाही या हमारे विषैले पानी देने से यदि सूख जाए तो प्रायः कुछ दिन रो पीटकर उसे बदल गमले में नया पौधा रोप ही दिया जाता है किन्तु वृक्ष कभी बदले नहीं जाते। (एक कड़वा किन्तु प्रत्येक के अपने घर या मौसी या चाचा या सहेली के घर में घटा सत्य! )
तो फिर आप गमले के पौधे से वृक्ष के से व्यवहार की अपेक्षा भी क्यों करते हैं? बहू या जमाता को एक विशेष प्रकार का आदर देना, हर प्रकार की उनसे छूट न लेना, न केवल अपेक्षित है किन्तु स्वाभाविक भी है। यदि हम एक बार इस सच को समझ जाएँ और बहू को बहू का सम्मान व प्रेम दें और जमाता को जमाता का व उनसे पुत्री या पुत्र बनने की अस्वाभाविक अपेक्षा न करें तो शायद एक स्वाभाविक स्नेह व सौहार्द का वातावरण भी अपने आप बन जाए। किसी से इतनी अपेक्षाएँ भी न करिए कि वह इस बोझ के तले दब जाए व इससे बचने को आपसे दूर भागे।
संसार में हम प्रायः यह अपेक्षा करते हैं कि ,'Love me, love my dog.' यह अपेक्षा संसार का नियम है। पुत्र से प्यार व सम्मान लगातार पाना चाहते हो तो उसकी प्रिय पत्नी को सम्मान व प्यार देना होगा, पुत्री से चाहोगे तो उसके पति को देना होगा। पति या पत्नी से चाहोगे तो उसके माता पिता को सम्मान देना होगा। मैं तो जानती हूँ कि बेटियों को मैं कुछ कह लूँ तो वे सुन लेंगी या प्रतिवाद कर लेंगी किन्तु उनके पतियों के विषय में कुछ कहा तो शायद ही कभी क्षमा कर पाएँगी। ठीक वैसे ही जैसे मैं अपने पति के विषय में कुछ भी कहना केवल अपना अधिकार मानती हूँ कोई अन्य कहे यह सहन नहीं करूँगी।
मैं तो बिटिया को बार बार याद दिलाती रहती हूँ कि उम्र बढ़ने के साथ खड़ूस हो रही हूँ, बातें दोहराने लगी हूँ, अतार्किक बातें भी करने लगी हूँ, सो बिटिया प्लीज़, प्लीज़ मुझे टोक दिया करो, मुझे उस राह पर आगे बढ़ने से पहले ही रोक लेना। एक बार अधिक आगे बढ़ गई तो लौटना कठिन होता है। तुम्हारे जीवन में हस्तक्षेप अपने माँ होने का अधिकार समझ करने लगूँ तो टोक देना। यहाँ भी, किसी भी सम्बन्ध में, वह डाकू व उसकी माँ वाली कहानी जैसा ही हो सकता है। बचपन में जब वह सूई उठाकर लाया, पैन्सिल चुराकर लाया तो माँ ने टोका नहीं, सो वह डाकू बन गया। बच्चे, वयस्क संतान, भी प्रायः आरम्भ में हमारे अति हस्तक्षेप का विरोध नहीं करते और फिर स्थिति ऐसी आती है कि हम महसूस ही नहीं करते कि हम गलत कर रहे हें और वे समझ नहीं पाते कि हमें कैसे रोकें।
किन्तु क्या यह टोकने का अधिकार मैं अपने प्रिय जमाताओं को सरलता से दे पाऊँगी? आप बहुओं को दे पाएँगी। सो, जलेबी से बर्फी का स्वाद देने व लड्डू से पेड़े का स्वाद देने की अपेक्षा करेंगे तो किसी के भी स्वाद का आनन्द नहीं ले सकेंगे। जिन्हें जलेबी में बर्फी ढूँढनी हो और लड्डू में पेड़ा उन्हें शायद जो नहीं है, बेटा या बेटी समय रहते ही गोद ले लेने चाहिए। बचपन में गोद लिया बालक /बालिका आपका बेटा/ बेटी अवश्य बन सकता है।
हाँ, मैं यहाँ एक सहज स्वाभाविक, प्राकृतिक मानव स्वभाव की बात कर रही हूँ, इच्छित क्या है या यूटोपिया क्या है, की बात नहीं कर रही।
एक और बात, 'बेटी के बिना घर घर नहीं है, हर घर में एक बेटी होनी चाहिए' कहने वालों पर हम टूट नहीं पड़े। यदि कोई बेटों पर लिखता और बिन बेटे वालों को बेचारा बताता तो क्या हाल होता? यह कुछ वैसा है जैसे धर्मनिरपेक्षता के नाम पर बहुसंख्यक को कुछ भी कहा जा सकता है, वर्ग न्याय के नाम पर उच्च वर्ग को, वर्णव्यवस्था के अन्याय के कारण आज सवर्ण को गाली दी जा सकती है। गलत गलत ही रहेगा, अन्याय अन्याय ही कहलाएगा चाहे वह किसी पर भी हो। सो केवल बेटी की चाहत उतनी ही गलत है जितनी केवल बेटे की। और ये कोई मूली गाजर तो हैं नहीं कि जो पसन्द हो उसे बाजार से ले आए। मेरी बेटियाँ हैं तो मैं उनके बिना जीवन की कल्पना नहीं कर सकती। बेटों वालों का भी यही हाल होगा।
घुघूती बासूती
Friday, May 06, 2011
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वाह! यकीन मानिये, मैं खड़े होकर तालियाँ बजा रही हूँ.
ReplyDeleteकितनी सरलता से आपने सारी बातें कह दी और एक एक बात मेरे दिल की भी .
Excellent one...
ReplyDeleteआप निरुत्तर कर डालती हैं, प्रतिक्रिया देने लायक भी नहीं छोड़तीं… :)
बहुत उम्दा एवं विचारणीय आलेख....अपनी ही एक कविता की पंक्तियाँ दोहराना चाहूँगा:
ReplyDeleteरिश्तों को मर्यादा अपनी अर्जित है..
उन्हें लाँधना हर हालत में वर्जित है....
-सभी रिश्तों की अपनी अलग अलग मर्यादायें हैं. यदि उसका सम्मान किया जाये तो सब ठीक ठाक एवं मधुर रहता है.
बस ऐसा लिखा है कि मेरी जबां की बातें हैं, बहुत ही करीब से छू दिया आपने दिल के तार को, ये रिश्तों की बातें इतनी गहराई से लिखीं कि बस, तभी तो आपको एकदम फ़ोन लगाने से अपने को रोक नहीं पाया।
ReplyDeleteरिश्तों में मर्यादा होनी ही चाहिये और उससे ज्यादा अपनापन कि कोई बात बुरी न लगे।
आलेख अच्छा लगा।
ReplyDeleteविषय को एक अलग नज़र से देखा गया।
इसी विषय को कोई पुरुष लिखे तो हो सकता है एक और कोण दिखे।
बात यह भी सही है कि हर रिश्ते की अपनी मर्यादा होती है, अपनी सीमाएं भी। कोई एक दूसरे की जगह भी नहीं ले सकता।
पर कई बार ऐसा भी देखने में आता है कि बहू बेटी हो जाती है और दामाद बेटा लगने लगता है।
बहुत तर्कसम्मत लेख ...सहजता से बता दिया कि हर रिश्ते की अपनी मर्यादा है ...
ReplyDeleteबहुत व्यवहारिक बातें कही हैं आपने और वो भी बड़ी सरलता से...
ReplyDeleteसीधी, सच्ची, खरी बात।
ReplyDelete...कृपया मेरी पूर्ण सहमति/बधाई स्वीकार करें।
क्या आप बता सकती हैं कि मैं आपसे कभी असहमत क्यों नहीं हो पाता हूँ?
ReplyDeleteविचारपूर्ण और तार्किक.
ReplyDelete@यह कुछ वैसा है जैसे धर्मनिरपेक्षता के नाम पर बहुसंख्यक को कुछ भी कहा जा सकता है, वर्ग न्याय के नाम पर उच्च वर्ग को, वर्णव्यवस्था के अन्याय के कारण आज सवर्ण को गाली दी जा सकती है। गलत गलत ही रहेगा, अन्याय अन्याय ही कहलाएगा चाहे वह किसी पर भी हो। सो केवल बेटी की चाहत उतनी ही गलत है जितनी केवल बेटे की। और ये कोई मूली गाजर तो हैं नहीं कि जो पसन्द हो उसे बाजार से ले आए। मेरी बेटियाँ हैं तो मैं उनके बिना जीवन की कल्पना नहीं कर सकती। बेटों वालों का भी यही हाल होगा।...........
ReplyDelete....बहुत ही विचारणीय.
सधा हुआ विचारशील लेख।
ReplyDeleteso mam you ultimately posted it
ReplyDeletegreat
पोस्ट पढ़ने के बाद एक ही बात मुंह से निकलती है ,वाह
ReplyDeleteआप ने तो सारी बाते कह दी हम लोगो को प्रतिक्रिया देने के लिए भी कुछ नहीं छोड़ा और आखिर की वो लाइने भी अच्छी लगी जिसमे आप अपनी बेटियों को खुद अनजाने में, गलती से की जा रही गलती बताने को कह रही है | मै तो आप की ये पोस्ट आपनी माँ को भी पढ़ने के लिए भेज रही हूँ |
घूघुती जी आपका आभार, इस चर्चा को आगे बढ़ाने का। असल में यह बहस का मुद्दा ही नहीं है यह केवल भावना का विषय है। बेटी के बिना घर सूना है यह बात मुझे भी समझ नहीं आती थी क्योंकि मेरे बेटी भी है। लेकिन जब मेरी मित्र ने मुझे कहा, क्योंकि उनके बेटी नहीं है, तब लगा कि बेटी माँ के अधिक करीब होती है। एक माँ अपने मन की बात बेटी से सहजता से कर लेती है। क्योंकि मेरी मित्र ने ही साथ में यह कहा कि बहु से कितनी ही बात कर लो लेकिन मन में एक डर बना रहता है कि किसी बात को अलग ढंग से तो नहीं लिया जाएगा। इसलिए मैंने यह पोस्ट उसी आधार पर लिखी थी कि जिस माँ के पास बेटी नहीं है वह क्या सोचती है।
ReplyDeleteआपकी यह बात बिल्कुल सत्य है कि प्रत्येक रिश्ते की अपनी गरिमा और महत्व है इसलिए उसे वैसे ही रहने देना चाहिए। बहु और जामाता तथा बेटा और बेटी के व्यवहार में अन्तर होता ही है। अपना रक्त बहुत दिनों तक नाराज नहीं रहता लेकिन दूसरा रक्त शीघ्र ही नाराज हो जाता है। कुछ मानवीय स्वभाव हैं, उन्हें स्वीकार करना ही चाहिए।
हर घर में बिटिया हो तो समाज का मानसिक संतुलन यथास्थान टिका रहता है।
ReplyDeleteलीजिये, कर ली ना हाइजैक, आपने मेरी पोस्ट :)....मैने भी कुछ ऐसी ही पोस्ट लिखने की सोची थी ..पर अपना तो बैकलौग ही ख़त्म नहीं होता...{बस जिंदगी का कोई बैकलौग ना रह जाए कहीं..:)} पर बहुत अच्छा किया जो आपने लिखा...मैं इतनी अच्छी तरह नहीं लिख पाती...I swear
ReplyDeleteअब जो पोस्ट में लिखने की सोची थी...यहीं लिख देती हूँ...लड़के लड़कियों का स्वभाव ही अलग होता है..लडकियाँ अगर caring होती हैं...तो लड़के protective.....दोनों ही गुण उनमे....उनके लालन -पालन के दौरान और अच्छी तरह विकसित हो जाते हैं. एक छोटी सी बात का उल्लेख करना चाहूंगी.{शायद PD blush कर जाए :)} buzz पे कितने अनजान लोग "Hiii Rashmi " कह के चले जाते हैं..PD मुझे दीदी कहता है...मेरे बेटे से थोड़ा ही बड़ा होगा ..पर एकदम protective हो गया...बोला.."इन्हें block कीजिए पहले"...कैसे block करते हैं..ये भी सिखाया...
जहाँ तक संवेदनशील होने की बात है....वे बेटे/बेटियाँ दोनों ही होते हैं...विचारशून्य जी ने आँखों में आँसू लिए अपनी तीन साल की बेटी की तस्वीर लगाई...कि वो विदाई का गाना देखते हुए भावुक हो जाती है...अब मैं क्या कहूँ....टाइटैनिक देखते हुए हिचकियाँ भरते हुए मुझे अपने चार साल के बेटे को हॉल से बाहर ले जाना पड़ा था. हाल में ही..बाहर से लौटी तो देखा...मेरे दोनों college going बेटों की आँखे भरी हुई है....घबरा कर पूछने ही वाली थी "क्या हुआ?" कि नज़र टी.वी. पे चली गयी...वहाँ "pursuit of happiness " चल रही थी. ब्लॉगजगत में ही गिरिजेश जी...सतीश पंचम जी की अपने माता-पिता से सम्बंधित लिखी पोस्ट देख ये नहीं कह सकते कि..सिर्फ बेटियाँ ही माता-पिता से जुड़ी होती हैं.
और सही कहा...,"'बेटी के बिना घर घर नहीं है, हर घर में एक बेटी होनी चाहिए' कहने वालों पर हम टूट नहीं पड़े। यदि कोई बेटों पर लिखता और बिन बेटे वालों को बेचारा बताता तो क्या हाल होता?"
मैने लोगो के बार-बार ये कहने पर..."तुम क्या जानो नानी का प्यार...नानी तो कभी बनोगी नहीं" कह ही दिया..."यही अगर मेरी दोनों बेटियाँ होतीं तो कभी नहीं सुनना पड़ता, "तुम क्या जानो दादी का प्यार ,दादी तो कभी बनोगी नहीं" (तब सबको लगता,..अरे इसके बेटा नहीं है..कहीं बुरा ना लग जाए )
बेटे और बेटियों ,दोनों की ही अपनी अहमियत है...इसलिए दया दृष्टि ना दिखाएँ किसी पर.
एक बेहतरीन और विस्तृत आलेख
ReplyDeleteइसके बाद इस विषय पर एक पंक्ति भी लिखना शायद किसी के लिये असम्भव होगा।
प्रणाम स्वीकार करें
रश्मिजी की टिप्पणी से मै पूरी तरह सहमत हूँ |
ReplyDelete"पुत्रों के साथ समस्या यही है कि उनके पैदा होते से ही अपेक्षाओं का वृक्ष भी अपने आप उग आता है। अपेक्षाएँ न केवल उससे किन्तु उसकी भावी पत्नी से भी।"
पुत्रियों के साथ ये होता है की उनके पैदा होते ही ये पारम्परिक भावना घर कर जाती है की एक दिन उन्हें दूसरे घर जाना ही होता है |लगाव बढ़ता ही जाता है |पति के साथ साथ घर के दूसरो सदस्यों के साथ भी निबाहने की पूर्व में सीख जाती थी क्योकि परिवार भौतिक और भावनात्मक तौर पर जुड़े होते थे |तो बेटी या बहू अपने मन की बात सबसे बाँट लेती थी |
मैंने कही पढ़ा था की बच्चे पेड़ पोधे नहीं होते |
सो केवल बेटी की चाहत उतनी ही गलत है जितनी केवल बेटे की। मेरी बेटियाँ हैं तो मैं उनके बिना जीवन की कल्पना नहीं कर सकती। बेटों वालों का भी यही हाल होगा।
ReplyDelete@घुघुतीदी...आपके लेख में ही हमारा जवाब भी छिपा है....दस दिन तक दोनों बेटे साथ थे...हर रोज़ घंटों हर विषय पर बातें करते न थकते..आज शाम विद्युत को कॉलेज के लिए दुबई वापस जाना है...कल शाम से ही बार बार गले लग कर अपना प्यार जता रहा है...
बेटी या बहन की चाहत होना कोई बुरा नहीं...कॉलेज पहुँचने तक वरुण कहता रहा कि उसकी शक्ल जैसी बहन गोद ले लें...कुछ दिनों बाद दोनों भाइयों में बहस शुरु हो गई कि उसकी शक्ल जैसी बहन चाहिए.. चार की गिनती होते ही दोनो भाइयों को अपने पापा पर तरस आ गया कि इतने बच्चों का पालन पोषण उनके लिए मुश्किल होगा...अब अपने परिवार के चार लोग एक दूसरे में ही सुख और आनन्द पाते हैं...जीवन में जो है..उसे भरपूर जी लिया जाए..बस यही सोच सुख देती है ...
इस पोस्ट को पहले ही विवेक रस्तोगी जी के बज़ पर पढ़ लिया था लेकिन प्रतिक्रिया न दे पाया। दुबारा पढ़ा और कुल मिलाकर यही कहूँगा कि एक जटिल भावनात्मक विषय को आपने बहुत ही सरल तरीके से समझाया है मसलन, कैसे वृक्ष और गमले के पौधे की अपेक्षाओं में भेद है और कैसे लोगों को उसी अनुसार आचरण करना चाहिये।
ReplyDeleteरश्मि जी ने मेरी उस पोस्ट को अब तक याद रखा इसके लिये शुक्रिया। इधर उन्होंने मेरी उस आपबीती की याद दिलाई और देखिये आज फिर उस पोस्ट को पढ़ फल्ल से आंसू बह निकले... क्योंकि अभी हफ्ते भर पहले ही अपने गाँव से लौटा हूँ और एक बार फिर वही मंज़र था फिर वही सब लाग-मोह.
अच्छा लिखा है आपने। हर मसले को बारीकी, निष्पक्षता और गहरी मनोवैज्ञानिक समझ से देखते हुए। साथ ही जिस तरह सरल भाषा और उदाहरणों के साथ समझाया है, क़ाबिले-तारीफ़ है।
ReplyDeleteरिश्तों के यथार्थ के इतने सरल प्रस्तुतिकरण को पढ़ ठगा सा हूँ ।
ReplyDeleteवाह कहूँ या आह कहूँ ?
घुघूती जी प्रणाम,
ReplyDeleteआपने पुत्रवधुओ और जामाताओं के प्रति कितनी अपेक्षा रखनी चाहिए इस विषय पर बिलकुल निरुत्तर कर देने वाला लेख लिखा. पर क्या अजीत गुप्ता जी ने एक माँ के बेटी और बहु से रिश्ते का आकलन किया था या बेटी और बेटे से रिश्ते का आंकलन किया था. मुझे तो अजीत गुप्ता जी के लेख को पढ़ कर लगा था की वो बेटे और बेटी के नैसर्गिक स्वाभाव का फर्क बतला रही हैं और इसी नज़रिए से मैंने भी अपनी बेटी के स्वाभाव को लेकर एक पोस्ट लिख मरी थी जोकि मैंने आपने पुत्र और पुत्री के स्वाभाव के अंतर को दर्शाने के लिए लिखी थी. हमारे समाज में वे माता पिता जिनके सिर्फ पुत्र होते हैं खुशनसीब समझे जाते हैं और जिनके सिर्फ पुत्रियाँ होती हैं उन्हें बहुत हद तक दयनीयता की दृष्टि से देखा जाता है.
चलिए कोई बात नहीं आपने एक नए नज़रिए से पुरे विषय को देखा पर मुझे अभी भी कुछ शंका है शायद आप समाधान कर पाए इस लिए कह देता हूँ.
एक बार खुशवंत सिंह जी का एक वाक्य पढ़ा था की स्त्रियों का स्वाभाव देश, सभ्यता और संस्कृति की सीमा के परे एक सा होता है. हालाँकि ये वाक्य उन्होंने एक विशेष सन्दर्भ में कहा था जिसे उल्लेखित करना यहाँ जरुरी नहीं पर मैंने इस वाक्य से प्रेरित होकर इस ओर ध्यान देना शुरू किया. बच्चों के कुछ सीरियल्स और कार्टून हिंदी में दब करके दिखाए जाते हैं जिनमे यूरोपीय और अमेरिकन परिवारों का चित्रण होता है. इन प्रोग्रम्म्स में मैंने एक बात विशेष रूप से देखि की सभी जगह छोटे बच्चों के ग्रैंडपा और ग्रेंनी उनके दादा दादी न होकर उनके नाना नानी होते हैं. शुरू में मुझे ये बड़ा अजीब सा लगा क्योंकि मेरी भारतीय मानसिकता के हिसाब से बच्चो के दादा दादी उनके साथ दिखने चाहिए थे. बेटी के घर पर नाना नानी के नज़र आने का मतलब तो यही है की वहां भी बेटा आपने माता पिता से उतना जुड़ा नहीं है जितना की बेटी. तो क्या वहा भी बेटों के ऊपर कोई भावनात्मक बोझ लादा जाता है की उसकी पत्नी आयेगी तो वो माँ बाप की सेवा करेगी. मेरा अनुभव तो ये कहता है की अंग्रेजी सभ्यता में लडके और लड़कियों पर किसी तरह का पारिवारिक बोझ नहीं होता. तो फिर वहा पर भी बेटियां ही माता पिता के करीब क्यों होती है.
एक बात और कहना चाहता हूँ. आदरणीय अजित गुप्ता जी ने आपने लेख में जो भी बात कही वो समाज में व्याप्त आम मानसिकता थी. आप आपने लेख में जो कुछ भी कह रही है वो आदर्श स्थिति है की क्या होना चाहिए. आदर्श स्थिति की कल्पना साहित्यकार कर सकता है परन्तु जमीनी सच्चई तो आदर्श स्थितियों से सर्वथा भिन्न होती है.
@ रश्मि राव जी से एक बात कहना चाहता हूँ की मेरी नज़र में तो स्त्रियाँ पुरुषों से ज्यादा भावुक होती हैं जिनमे भावुकता का सागर हमेशा हिलोरे मार रहा होता है और पुरुषों की भावुकता म्युनिसिपलिटी के नल के सामान होती है जिसमे कभी कभार ही पानी आता है. अपवाद हर जगह होते हैं और अपनी बात को सही साबित करने के लिए अपवादों का सहारा नहीं लेना चाहिए. हमेशा औसत क्या है इस पर विचार करना चाहिए. (यहाँ पर औसत का मतलब mediocre नहीं average है )
घुघूती जी प्रणाम,
ReplyDeleteआपने पुत्रवधुओ और जामाताओं के प्रति कितनी अपेक्षा रखनी चाहिए इस विषय पर बिलकुल निरुत्तर कर देने वाला लेख लिखा. पर मुझे थोड़ी सी शंका है. क्या अजीत गुप्ता जी ने एक माँ के बेटी और बहु से रिश्ते का आकलन किया था या बेटी और बेटे से रिश्ते का आंकलन किया था. मुझे तो अजीत गुप्ता जी के लेख को पढ़ कर लगा था की वो बेटे और बेटी के नैसर्गिक स्वाभाव के बीच का फर्क बतला रही हैं और इसी नज़रिए से मैंने भी अपनी बेटी के स्वाभाव को लेकर एक पोस्ट लिख मरी थी जोकि मैंने आपने पुत्र और पुत्री के स्वाभाव के अंतर को दर्शाने के लिए लिखी थी. हमारे समाज में वे माता पिता जिनके सिर्फ पुत्र होते हैं खुशनसीब समझे जाते हैं और जिनके सिर्फ पुत्रियाँ होती हैं उन्हें बहुत हद तक दयनीयता की दृष्टि से देखा जाता है.
चलिए कोई बात नहीं आपने एक नए नज़रिए से पुरे विषय को देखा पर मुझे अभी भी कुछ शंका है शायद आप समाधान कर पाए इस लिए कह देता हूँ.
एक बार खुशवंत सिंह जी का एक वाक्य पढ़ा था की स्त्रियों का स्वाभाव देश, सभ्यता और संस्कृति की सीमा के परे एक सा होता है. हालाँकि ये वाक्य उन्होंने एक विशेष सन्दर्भ में कहा था जिसे उल्लेखित करना यहाँ जरुरी नहीं पर मैंने इस वाक्य से प्रेरित होकर इस ओर ध्यान देना शुरू किया. बच्चों के कुछ सीरियल्स और कार्टून हिंदी में दब करके दिखाए जाते हैं जिनमे यूरोपीय और अमेरिकन परिवारों का चित्रण होता है. इन प्रोग्रम्म्स में मैंने एक बात विशेष रूप से देखि की सभी जगह छोटे बच्चों के ग्रैंडपा और ग्रेंनी उनके दादा दादी न होकर उनके नाना नानी होते हैं. शुरू में मुझे ये बड़ा अजीब सा लगा क्योंकि मेरी भारतीय मानसिकता के हिसाब से बच्चो के दादा दादी उनके साथ दिखने चाहिए थे. बेटी के घर पर नाना नानी के नज़र आने का मतलब तो यही है की वहां भी बेटा आपने माता पिता से उतना जुड़ा नहीं है जितना की बेटी. तो क्या वहा भी बेटों के ऊपर कोई भावनात्मक बोझ लादा जाता है की उसकी पत्नी आयेगी तो वो माँ बाप की सेवा करेगी. मेरा अनुभव तो ये कहता है की अंग्रेजी सभ्यता में लडके और लड़कियों पर किसी तरह का पारिवारिक बोझ नहीं होता. तो फिर वहा पर भी बेटियां ही माता पिता के करीब क्यों होती है.
एक बात और कहना चाहता हूँ. आदरणीय अजित गुप्ता जी ने आपने लेख में जो भी बात कही वो समाज में व्याप्त आम मानसिकता थी. आप आपने लेख में जो कुछ भी कह रही है वो आदर्श स्थिति है की क्या होना चाहिए. आदर्श स्थिति की कल्पना साहित्यकार कर सकता है परन्तु जमीनी सच्चई तो आदर्श स्थितियों से सर्वथा भिन्न होती है.
@ रश्मि राव जी से एक बात कहना चाहता हूँ की मेरी नज़र में तो स्त्रियाँ पुरुषों से ज्यादा भावुक होती हैं जिनमे भावुकता का सागर हमेशा हिलोरे मार रहा होता है और पुरुषों की भावुकता म्युनिसिपलिटी के नल के सामान होती है जिसमे कभी कभार ही पानी आता है. अपवाद हर जगह होते हैं और अपनी बात को सही साबित करने के लिए अपवादों का सहारा नहीं लेना चाहिए. हमेशा औसत क्या है इस पर विचार करना चाहिए. (यहाँ पर औसत का मतलब mediocre नहीं average है )
एक बात कहना चाहता हूँ की मेरी नज़र में तो स्त्रियाँ पुरुषों से ज्यादा भावुक होती हैं जिनमे भावुकता का सागर हमेशा हिलोरे मार रहा होता है और पुरुषों की भावुकता म्युनिसिपलिटी के नल के सामान होती है जिसमे कभी कभार ही पानी आता है. अपवाद हर जगह होते हैं और अपनी बात को सही साबित करने के लिए अपवादों का सहारा नहीं लेना चाहिए. हमेशा औसत क्या है इस पर विचार करना चाहिए.
ReplyDeleteसहमत हूँ आपके आलेख ने निशब्द कर दिया। शुभकामनायें।
विचार शून्य जी की बात का तो एक ही मतलब है कि अपेक्षाओं का कोई फर्क ही नहीं पडता.अगर ऐसा है तो क्यों भारतीय महिलाएँ रिश्तों के प्रति अधिक समर्पित रहती है.एक महिला ब्लॉगर ने कहा हम भारतीय माएँ अपने बच्चों के प्रति ज्यादा पजेसिव होती है,क्यों?क्या भारतीय महिलाएँ इसके लिये कोई टॉनिक या केप्सूल वगेरह लेती है?यूरोप की हिप्पी संस्कृति में पली बढी लडकियों की तुलना भारतीय लडकियों से करके देखिये और फिर बताइये.और बात तो यहाँ लडकोँ से अपेक्षाओं की हो रही है.पश्चिम में भी पुरुषों के लिये भावनाओं का प्रदर्शन उसी तरह से टैबू है जैसे हमारे यहाँ.पुरुषों के आत्मकेंद्रित होने,मानसिक तनाव,पागलपन,हार्टअटैक और आत्महत्या की दर ज्यादा होने के मनोवैज्ञानिक और सामजिक कारणों की पडताल करें तो पता लगेगा कि क्यों पुरूषों की भावुकता म्यूनिसिपलिटी के नल की तरह हो जाती है.माँ बाप से दूर जाने का गम लडकों को भी उतना ही होता है यहाँ तक कि माता पिता के बीच होने वाले झगडों का भी लडकों पर ज्यादा नकारात्मक असर होता है.पश्चिम में भी बेटों के सामने माता पिता किसी संवेदनशील विषय पर बात ही नहीं करते है हमारे यहाँ भी ऐसा ही है,बेटे ने कभी पूछा भी तो माँ ये कह देगी कि तुझे औरतों की बातों से क्या लेना देना.जब उन्हें पता ही नहीं होगा कि घर में चल क्या रहा है तो फिर उनसे बेटियों जैसी संवेदनशीलता की उम्मीद किसलिए.नारीवादी विचार रखने वाली महिलाएँ भी कभी नहीं चाहेंगी कि उनका पति उनकी तरह बात बात में भावुक हो जाए और टेसुऍँ बहाने लगे जबकि वो खुद ऐसा करे तो ये सब पति के लिये सामान्य होता है.पुरूषों की ऐसी इमेज की अपेक्षा बेटों से भी की जाती है.लडके मौजी और चंचल जरूर होते है लेकिन असंवेदनशील नहीं.वो तर्क को भावनाओं पर प्राथमिकता देते है लेकिन जैसे हम लडकियों के बारे मे ये नहीं कह सकते कि वो तार्किक नहीं होती वैसे ही लडकों के लिये भी नहीं कह सकते कि वो असंवेदनशील होते है.भावुक पुरुष अपवाद नहीं है,भावनाओं को इस तरह व्यक्त करने वाले पुरूष अपवाद है,वैसे ही जैसे बेटियों से प्रेम करने वाले पिता अपवाद नहीं है लेकिन उन पर ऐसी भावुकता भरी पोस्टे लिखने वाले पिता अपवाद है.ये भी तो पुरुषों की संवेदनशीलता का ही उदाहरण है. आप बर्फी को ज्यादा स्वादिष्ट बताएँ किसे इंकार है लेकिन ये कहें कि लड्डू में मिठास होती ही नहीं या वो किसीको स्वादिष्ट ही नहीं लग सकता तो क्या इसे यूँ ही मान लें?
ReplyDeleteबेहतरीन और विस्तृत आलेख
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